Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 96
________________ शौचोपकरणं (कमण्डलु) ॐ णमो अरहताणं रलत्रय पवित्रीकरणांगाय बाह्याभ्यन्तरमलशुद्धाय नमः भो अन्तेवासिन् ! इदं शौचोपकरणं गृहाण ग्रहाण । (इति गरु महाराज पाये हाथ से कमण्डल दान देखें ।) लघु समाधि भक्तिः । इच्छामि भंते समाहित्तिकाउस्सागो कओ तस्सालोचेउं रयणत्तयसरूवपरमप्पझाण लक्खाणं समाहिभत्ती ए णिच्च कालं अंचेमो, पूजेमि, वदामि, यमस्सायि, दुखमनु ओ. कम्मरपओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिपरणं, जिणगुण सम्पनि, होउ मझं । ततो नषदीक्षितोमुनिगूरुभक्तया गुरुं प्रणम्य अन्यान् मुनीन् प्रणम्योपविति । यात्रव्रतारोपणं न भवति तावदन्ये मुनयः प्रतिवन्दना न ददति ।। ततो दातु प्रमुखाः जनाः उत्तम फलानि अग्रे निधाय तस्मै नमोऽस्तु इति प्रणाम कुर्वन्ति। भावार्थ-समाधि भक्ति पढ़ने के बाद नवदीक्षित मुनि गुरुभक्ति से गुरुदेव को प्रणाम (नमस्कर) करके अन्य मुनियों को भी नमस्कार करके बैठ जावे । जब तक व्रतों का आरोंपण नहीं होये तब तक दूसरे मुनिवृन्द प्रतिवन्दना नहीं करें । इसके बाद दाता प्रधान मनुष्य उत्तम फलों को आगे धरकर उन नव दीक्षित मुनिराज को नमोस्तु करे । ततस्तत्पक्षे द्वितीयपक्षे वा सुमुहूर्ते व्रतारोपणं कुर्यात् । तदा रलाय पूजा विधाय पाक्षिक प्रतिक्रमणपाठः पठनीयः । तत्र पाक्षिक नियमग्रहण समयात् पूर्व यदा बदसमिदिदीत्यादि पठ्यते तदा पूर्ववत् व्रतादि दद्यात् ।नियमग्रहण समये यथायोग्य एकं तपो दद्यात् । (पल्यविधानादिक) दातृ प्रभृतिः श्रावकेभ्योपि एक एक तपोदद्यात् । ततोऽन्ये मुनयः प्रतिवंदनां ददति । उसके बाद उसी पक्ष में या उसके दूसरे पक्ष में शुभा उत्तम मुहूत के होने पर व्रतों का आरोपण करें । तब इतना होने पर, रत्नत्रय पूजा को करना होता है तो पाक्षिक प्रतिक्रमण पढ़ना योग्य है । यहाँ उस पाक्षिक नियम ग्रहण के समय से पूर्व सबसे पहले पद समिदी आदि पढ़ते हुए पहले के समान प्रतादि को देवें । नियम ग्रहण करने के समयान्तर में यथायोग्य शक्त्यानुसार एक तप व्रत (पल्य विधानादि को) देखें और दीक्षा दिलाने वाले श्राषक भी एक-एक तप को देखें। उसके बाद ही अन्य मुनिवर्ग प्रतिवन्दना करते हैं । अब मुख शुद्धि मुक्त करण विधि कहते हैंHIRAITHILITIMILITA 100 SIMIRRIA

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