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कुल-जाति-बयो-देठ-कृत्य-बुद्धि-कुधादयः । नरस्य कुत्सिता व्यङ्गास्तदन्ये लिङ्ग योग्यता 15218 ॥
जिनलिंग ग्रहण में कुकुल-विकृत कुल, कुजाति-जाति संकरादि संयुक्त कुषय अतिबाल-अतिवृत आदि, कुदेह-रोगी, कुकृत्य-सप्तव्यसन, पापादिरस, कुबुद्धिमिथ्यात्वादि ग्रसित, कुक्रोधादिक-क्रोधादि कषाय संयुक्त ये मनुष्य के जिनलिंग ग्रहण में व्यंग अर्थात् भंग अथवा बाधक है । इनसे भिन्न सुकुलादि लिंग धारण की योग्यता को लिये हुए है।
पंचम काल में जिन लिंग सम्भव तरुणस्य वृषस्योच्चै : नदतो विहतोक्षणात् । तारुण्य एव नामाण्ये स्थास्यन्ति न देशान्तर 175 || म. पु.
समवशरण में भरत चक्री के स्वप फल बनाते हुए भगवान कहते हैं कि ऊंचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार देखने से सूचित होता है कि लोग तरुणावस्था में हो पुनिपद में ठहर सकेंगे, अन्यावस्था में नहीं ।
कोऽपि क्यापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं, मिथ्यात्वादि कलङ्क रहितः सद्धर्म रक्षामणिः ||241 || नि. स'
कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि स्वरूप मल कीचड़ से रहित रक्षामणि ऐसा समर्थ पुनि होता है ।।
क्षिा योग्य काल जब कोई आसन्न भष्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके आत्मराधना के अर्थ ब्राह्मण अभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण करता है। वह दीक्षा काल है । प. का./ता. वृ.
क्षा के अयोग्य काल जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य चन्द्र पर परिवेष हो, इन्द्रधनुष उठा हो, दुष्ट ग्रहोदय हो, आकाश मेष पटल से ढका हो, क्षयपास अथवा अधिक मास हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षयतिथि हो उस दिन बुद्धिमान आचार्य मोक्ष के इच्छुक भव्यों के लिए दीक्षा की विधि न करें ।।159-160। म. पु.
इस प्रकार सर्वगुण सम्पन्न गुरु देव के द्वारा स्वीकृत होने के लिए अपने सकुटुम्ब को सान्त्वना पूर्वक पूछताछ कर मीठे शब्दों से संतोष दिलाकर क्षमा याचना, क्षमाप्रदान कर गुरु चरणों में श्रद्धा भक्ति पूर्वक पिनय करते हुए दीक्षा की याचना करें । गुरू भी
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