Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 93
________________ ? डाले उसके प्रश्चात नीचे लिखा मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रथम केश को उपाड़े (उखाडे ) | LL : ॐ ह्रां अर्हद्भयो नमः, ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः ॐ सूरिभ्यो नमः ॐ ह्रौं पाठकेभ्यो नमः, ॐ ह्रः सर्वसाधुभ्यो नमः" इत्युच्चरन् गुरुः स्वहस्तेन पंचवारान् केशान् उत्पाटयेत् । पश्वादन्यः कोऽपि लोचावसाने बृहदीक्षायां लोचनिष्ठापनक्रियायां पूर्वीचार्येत्यादिकं पठित्वा सिद्धभक्ति ( क्तिं ) कर्तव्या ( कुर्यात्) ततः शीर्ष प्रक्षाल्य गुरुभक्तिं दत्त्वा वस्त्राभरणयज्ञोपवीतादिकं परित्यज्य तत्रैवावस्थाय दीक्षां याचयेत् । ततो गुरुः शिरसि श्रीकार लिखित्वा ॐ ह्रीं अहे असि आ उ सा ह्रीं स्वाहा' अनेन मंत्रेण जातं 108 दद्यात् । ततो गुरुस्तस्थांजलों केशर कर्पूरश्रीखंडेन श्रीकारं कुर्यात् । श्रीकारस्य चतुर्दिक्षु 44 रयणत्तयं च वंदे चउवीसजिणं तहा वंदे | पंचगुरुणं वंदे चारणजुगलं तहा वंदे ॥ ह्री श्री... . स्वाहा इस मंत्र से प्रथम केशों को उखाड़े तत्पश्चात् ॐ हां........इत्यादि मंत्र विथमंत्र का उच्चारण करके गुरु अपने हाथ से केशों को उखाड़े केशलोंच करें । उसके बाद अन्य कोई भी समास करें । लोन की समाप्ति पर "बृहदीक्षायां...... इत्यादि पढ़कर सिद्ध भक्ति करना चाहिए पश्चात् मस्तक को प्रक्षालित करके गुरु की भक्ति प्रस्तुत करके वस्त्र, आभरण आभूषण तथा यज्ञोपवीत आदि का परित्याग कर उसी अवस्था/नग्नावस्था में दीक्षा की याचना करें । 11 ॐ *****FALLAL उसके बाद गुरु सिर/ मस्तक पर श्रीकार लिखकर " ॐ हीमित्यादि मन्त्र से 108 बार जाप देवें । जाप करें। उसके बाद गुरु उस शिष्य की अंजुली में केशर, कपूर, श्री खण्ड द्रव्यों से श्रीकार करें । श्री कार के चारों दिशाओं में इति पठन् अंकान् लिखेत् पूर्वे 3, दक्षिणे 24, पश्चिमे 5, उत्तरं 4 लिखित्वासम्यग्दर्शनाय नमः सम्यग्ज्ञानाय नमः सम्यक्वारित्राय नमः । इति पठन् तन्दुलैरज्ञ्जलिं पूरयेत् तदुपरिनालिकेर पूगीफलं च धृत्वा सिद्ध चारित योगिभक्तिं पठित्वा व्रतादिकं दध्यात् । भावार्थ - श्री लिखकर उसके चारों तरफ ऊपर लिखी हुई गाथा बोलकर पूर्व में 3. दक्षिण में 24, पश्चिम में 5 उत्तर में 4 अंकों को लिखकर सम्यग्दर्शनाय नमः इत्यादि बोलकर शिष्य की अंजुलि में चावल भरकर ऊपर नारियल सुपारी धरकर समय हो तो नूरी सिद्ध, चारित्र योगिभक्ति पढ़कर व्रत देवें, नहीं तो लघु भक्तियां पढें । 197 V

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