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अन्वयार्थ-(ततो) उसके बाद (विदिए दिवसे) दूसरे दिन (संघ मोयत्यं) संघ की खुशहाली कुशलता के लिए, (भूयबलिं गहखंति) भूत आदि के प्रकोप तथा ग्रहों को शान्ति के लिए (महामह) महापूजा (संति वायणा) शान्ति वाचना (करिज्जए) करें ॥७३ ।।
अर्थ-उसके बाद दूसरे दिन संघ की खुशहाली के लिए भूत प्रेत आदि के प्रकोप तथा ग्रहों की शान्ति के लिए महा-महोत्सव के अन्तर्गत पूजा शान्ति पाद एवं विसर्जन करें ।७३ ॥
विशेष-आचार्य पद प्रतिष्ठापन अथवा संयप-सूरि पद प्रतिष्ठान क्रिया के होने के पश्चात् संघ के रत्नत्रय स्वास्थ्यादि को सकुशल हेतु , भूत-प्रेत आदि के बलप्रकोप को शान्त करने के लए तथा सुर्यचन्द्र आदि नपग्रहों के प्रकोप जनित प्रतिकूलता को अनुकूल बनाने के लिए एवं महामह-जिसको महापूजा कहा जाता है। शान्ति विसर्जन करना चाहिए । पंडित प्रवर आशाधरजी ने सागार धर्मामृत में महामह ! का स्वरूप इस प्रकार कहा है
भक्त्या मुकुटबद्धयां जिन पूजा विधीयते । तदाख्या:सर्वतोभद्र चतुर्मुख-महामहाः॥२७१/२॥
अर्थात् महामण्डलेश्वर राजाओं के द्वारा भक्ति पूर्वक जो जिनपूजा की जाती है उसके नाम सत्र शोभष्ट चतुर्मुख एवं महामह है। जिनकी सापन्नादि के द्वारा मुकुट कांधे जाते हैं उन्हे मुकुटबद्ध या मण्डलेश्वर कहते हैं। वे जब भक्तिवश जिनदेव की पूजन करते हैं तो उस पूजा को सर्वतोभद्र आदि कहते हैं बह पूजा सभी प्रणियों का कल्याण करने वाली होती है इसलिए उसे सर्वतोभद्र कहते हैं। चतुमुंख मण्डप में की जाती है इसीलिए सतर्मुख करते हैं और अष्टाहिक की अपेक्षा महान होने से महामह कहते हैं। सर्वत्र निर्भय होकर यह पूजाएं की जाती है किन्तु किसी भी भय के वशीभूत होकर नहीं। इसीलिए भक्ति वश कहा गया हैं। यह पूजा कल्पवृक्ष की पूजा के तुल्य होती हैं क्योंकि कल्पवृक्ष पूजा में पूजक चक्रवती अपने राज्य भर में याचक को इच्छा के अनुरूप दान के द्वारा उनके मनोरथों को पूर्ण करते हुए पूजा करता है किन्तु महामह पूजा में मण्डलेश्वर मात्र अपने जनपद में तदेच्छा प्रमाण दान के द्वारा याचक जनों को सन्तुष्ट करते हुए पूजा करता है।
उपर्युक्त गाथा में उक्त कारणों की शान्ति के लिए शान्तिपाठ विसर्जन स्तवन आदि महामहोत्सव के समापन की क्रिया करने का निर्देश आचार्य श्रेप्न ने दिया है ।१३ ॥
सग सग गपोण जुत्ता, आयरियं जह-कमेण बंदित्ता। लहुवा जंति सुदंसं, परिकलियं सूरि सूरेण ॥७४ ।।
75 V IRAIL