Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 70
________________ अन्वयार्थ - (अं) क्योंकि ( एस गुरु ) हमारे गुरु ( धम्मत्थं ) धर्म के लिए (कादि) क्रिया करते हैं (नं) तुम (जो दु) उसे जो (ण भण्णेदि) नहीं मानते हैं (सो) (समगो) श्रमण ( अज्जाओ) आर्यिका या (सावयवो ) श्रापक हो ( संघ बाहिरओ) संघ से बाहिर है ॥ ७१ अर्थ - ऐसे सर्वमान्य गुरु धर्म की सिद्धि के लिए जो भी शुद्ध भिक्षा की खोज, निर्दोष शिक्षा का ग्रहण करना इत्यादि क्रिया करते एवं करवाते हैं सर्वाश सहित उनकी आज्ञा को जो भ्रमण यति अर्जिका एवं श्रावक श्राविका गण उसे नहीं मानता है वह संघ से बाहर बाह्य है ॥ ७१ ॥ विशेष- उपर्युक्त विधि पूर्वक आचार्य पद प्रतिष्ठा हो जाने पर सर्वमान्य ऐसे आचार्य परम गुरु जिनकी संघ ने सिरमोर धारण किया था ऐसे गुरु जो भी निर्दोष क्रियापंचाचार, निर्दोष भिक्षा, निरतिचार व्रत का पालन, दोषों की शुद्धि आदि क्रिया स्वयं करता और करवाता हैं उसे जो संघ के विभाग संघांश मुनि, अजिंका, श्रावक एवं श्रीत्रिका मान्य नहीं करता है वह श्रमण संघ से बहिर्भूत बाह्य है । ७१ ।। संघ सत्कार एवं संघोसित्ता, मुत्तामालादि दिव्व वत्थेहिं । पोत्थय पूयं किच्चा, तदो परं पायपूजा य ॥ ७२ ॥ अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार ( संघोसित्ता) संघ के आश्रित (योग्य) (मुत्तापालादि) मुक्ता / मोती की माला स्वणादि पुष्प आदि (ग) तथा (दिव्व वत्थेहिं ) दिव्य वस्त्रों के द्वारा (पोत्थय ) शास्त्र की ( पूर्व किंच्या) पूजा करें (तदी) उसके बाद (गर) मुख्य गुरु के / आचार्य के ( पायपूजा) चरणों को पूजा करें ॥ ७२ ॥ अर्थ - इस प्रकार संघ के आश्रित जनों की मोती को माला आदि दिव्य वस्त्रों से शास्त्रजी की पूजा करके तत्पश्चात् उत्कृष्ट मुख्य गुरु यानि आचार्य परमेष्ठी के चरणों की पूजा करें। भावार्थ - यहां चुतर्विध संघ एवं आश्रित जनों के सत्कार करने का निर्देश दिया हैं कि संयम एवं आचार्य प्रतिष्ठापन क्रिया करने के पश्चात् धर्मसाधन के उपकरण भूत मोती, मूंगा की माला उत्कृष्ट श्रावक श्राविका एवं आर्यिका संघस्थ ब्रम्हचारी आदि की वस्त्र प्रदान के द्वारा और शास्त्र (जिनवाणी) की पूजा - सत्कार करके संघ के नायक उत्कृष्ट परम गुरु के चरण कमलों की पूजा करें । इस प्रकार संघ का सत्कार पूजादि करने की विधि विशेष का वर्णन किया गया है ॥ ७२ ॥ शान्ति विसर्जन तत्तो विदिए दिवसे, महामहं संति वायणा जुत्तं । भूयबलिं गृहखति, करिज्जए संघ भोयत्थं ॥ ७३ ॥ MAN JAY

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