Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 80
________________ परिशिष्ट-1 दीक्षोद्धेश्य । हिताहित कर] दीक्षा गृहन्ति मनुजाः स्वक, हरा . स्वपुण्य वृद्धये केचिद् केचित् संसृति मुक्तये 124 1॥ विश्व जीयानुकंपावान् धर्म प्रयोत कारकः । यथा श्रीगौतमस्वामी केचिदात्मविशुद्धये ॥25॥ कश्चित् स्वकुलनाशाय दुष्कृतोपार्जनाय ना । बंधुवर्ग विनाशाय द्वीपायन मुनिर्यथा 126 ।। कश्चिदात्म विनाशाय निजधर्मैकहानये । दुष्ट-मिथ्याग्रहग्रस्तः पाश्वनामा मुनिर्यथा 127 ॥ कश्चिदुच्चासनासक्तः कपायानच्छ मानसः । काष्टांगार स्वाभाति प्रध्यस्त निजवल्लभः Izal दा . शा./ पा. भे. अर्थात् संसार में कोई मनुष्य अपने कमों का नाश करने के लिए दीक्षा लेते हैं। कोई अपने पुण्य की वृद्धि के लिए दीक्षा लेते हैं । कोई संसार से छूटने के लिए दीक्षा लेते हैं | संसार के समस्त जीवों के प्रति अनुकम्पा रखने वाले, धर्म की प्रभावना करने वाले श्री गौतम स्वामी ने जिस प्रकार आत्मशुद्धि के लिए दीक्षा ली है वैसे ही कोई-कोई दीक्षा लेते हैं । कोई-कोई द्वीपायन मुनि के समान अपने कुल का नाश करने के लिए, पापों का उपार्जन करने के लिए एवं बंधु वर्गों का संहार करने के लिए दीक्षा लेते हैं । कोई-कोई पाश्वमुनि के सपान अपने नाश के लिए, अपने धर्म के नाश के लिए, दुष्ट-मिथ्यात्वरूपी भूत के वशीभूत होकर दीक्षा लेता हैं | कोई-कोई काष्टांगार के समान उच्च आसनों-पद के लोलुपो होकर, कवाय कलुपित चित्त से अपने स्वामी के नाश करने की भावना से दीक्षा लेते हैं 124-28 17 देह क्लेश सहा: केचित्परोत्कर्षा सहिष्णवः । नाशयति जनान्धर्म भूपा भूत्वाग्र जन्मनि ॥29॥ तपांसि धृत्वा कायेन हद्वारभ्यां नंति तानि च । वोत्खातयंत; शास्यानि मुक्त्वा श्वेतार्जुनानि च ॥30॥ MANTRAPARINTAI BASTIPRITICIA

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