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की आकर्षक स्थिति बनाकर अर्थात नृत्य आदि कुकर्म करके अपने उदर पूर्ति करता है एवं मान-प्रतिष्ठा बढ़ाता है वह श्रमण संस्कृति से बहि भूत है।
तदुक्तंगायक-वादक नईगल पागध गरिद्धाराकानि लोकेभ्यः । सेवार्थ दाता धनमपदादभयेन चार्थिने दद्यात् ॥१९८ ॥ दा. विचार.
दा, शा.
अर्थात् गाने वाला, बजाने वाला, नृत्य करने वाला, स्तुति करने वाला, हास्यकार, याचक, आदियों की सेवा करने के उपलक्ष्य में, लोक में अपवाद न हो इस भय से ही धन देना चाहिए। उनको पात्र समझ कर दान नहीं देना चाहिए । अर्थात् उनको आचार्य श्री ने पात्र की संज्ञा ही नहीं दी।
णच्चदि गायदि तावं कार्य बाएदिलिंगरूवेण। सो पाव-मोहिद-मदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो १४॥ लिं. पा.
अर्थात् जो मुनि होकर भी नृत्य करता है, गाता है और बाजा बजाता है वह पापी पशु है मुनि नहीं। इस प्रकार के यति संघ बाह्य है ॥ ११ ॥
पिच्छ पड़िदाय णिरदो, उम्मग्ग पवढगो अहं जुत्तो। जहकम विलो वि चरिओ णो सवणो समण पुल्लोसो ॥१२॥
अन्वयार्थ-जो (पिच्छ पडिदाय गिरदो) पिच्छी का परिवाद करने में निरत है (उम्मग पयठुगो जुत्तो) उन्मार्ग का प्रवर्तक है और अटुंग मुक्त है (जहकम विलोषि चरिओ) यथाक्रम का लोप कर चारित्र का पालन करता है (णो सवणो समण) यह श्रमण नहीं बल्कि ( पुल्लोसो) घाम के पूले के समान है ॥१२॥
अर्थ-पिच्छ ग्रहण नहीं करने वाले निमिच्छ, उन्ाग में प्रवृत्ति करने वाले. यथाक्रम से गुरु क्रम का और चारित्र का लोप करने वाला श्रमण नहीं है किन्तु च्युत श्रमण है घास के पुले के समान तुच्छ है।
विशेष-यहां इस गाथा में आचार्य प्रवर स्पष्ट करते हैं कि जगत में च्युत श्रमण अथात् श्रमण पद से च्युत कौन यति है ? उक्त वर्णन में सर्वप्रथम जो यति पिच्छी को स्वीकार नहीं करते हैं वे च्युत श्रमण है ऐमा उल्लेख किया है।
इन्द्रनन्दि आचार्य ने अपने नीतिसार नामक ग्रन्थ में पिच्छी धारण स्वीकार न करने वाले यतियों को नि:पिच्छ जैनाभास के नाम से स्मरण किया है।
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