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अथवा अन्य किसी आकार में एक मण्डल मा बनता है इसो का नाम परिवेष है।
प्रशस्तान् प्रशस्तांश्च यथावदनु पूर्वतः १/४॥ भ. सं अर्थात् प्रशस्त एवं अप्रशस्त के भेद से परिवेष दो प्रकार का है। पंच प्रकार विज्ञेया: पंच वर्णाश्च भौतिकाः। ग्रह नक्षत्रयोः काल परिवेषाः समुत्थिताः॥२/४॥ भ. सं
अर्थात् पांच वर्ण एवं पांच भूतों-पृथ्वी, जल अग्नि, वायु और आकाश की अपेक्षा से परिवेप पांच प्रकार के जानना चाहिए। यं परिषेष ग्रह एवं नक्षत्रों के काल को पाकर होते हैं।
तात्पर्य-जिन दीक्षा में संक्रान्ति, चन्द्र ग्रहण अथवा सूर्य ग्रहण, बादलों का खण्डन होना, भूमि कम्पन होना, अतिशय तीव्र आवाज के साथ मेघ गर्जना होना, परिवेष एवं आदि शब्द से उल्कापात, वायु प्रकोप, गन्धर्व नगर, दिग्दाह चर-स्थिर पदार्थ से विकार होना, रण्जु धूलि आदि प्रकोपों का समझ लेना चाहिए।
प्रशस्त-तिथि नक्षत्र-योग-लग्न ग्रहांशके । यद्दीक्षा ग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्ष्यते ॥१५७ ।। दीक्षा योग्यत्व माम्नांत सुमुखस्य सुमेधस ॥१९५८ ॥ ग्रहोपराग ग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयोः। वक्र ग्रहोदये मेघ पटल स्थगिततेऽम्बरे ॥१५९३५ नष्टाधिमास दिनयेः संक्रान्तौ हानिमत्तियौ। दीक्षा विधि मुमुक्षुणा नेच्छन्ति कृतःबुद्धयः ॥१६०/३९॥ आ. पु.
अर्थात् मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निर्गन्ध आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण करना चाहिए। योग्य पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने योग्य माना है। जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघ पटल से ढका हो, नष्ट मास (हीन मास) हो अथवा अधिक मास का दिन हो, सूर्य-चन्द्र पर परिवेष (मण्डल) हो, इन्द्र धनुष उठा हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षय तिथि हो। उस दिन बुद्धिमान आचार्य मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यों के लिए दीक्षा की विधि नहीं करनी चाहिए अर्थात् उस दिन किसी शिष्य को नवीन दीक्षा नहीं देते हैं।
MAMANAS 50
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