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अर्थ - इस प्रकार बारह बारह दिन पर्यंत दीन-हीन जनों को भी दान देवें तथा युवतिजनों द्वारा भी भक्ति मार्ग पूर्वक मंगल गान किया जाना चाहिए अर्थात् भक्ति मंगलाचरण गान पूर्वक करना चाहिए ॥५८ ।।
जेण वयणेण संघो, समच्छरो होड़ तं पुणो वयणं ।
वारस दिवसं जावदु वज्जियव्वं अप्पमत्तेण ॥५९॥ अन्वयार्थ-(जेण ययणेण) जिस वचन से (संघ) संघ (समच्छरो होइ मात्सर्य / कोप - द्वेष युक्त होता है ( तं वयामं) ऐसे उस वचन को (अप्पमत्तेण ) प्रम्मद छोड़कर ( वज्जिपव्वं ) वर्जित / परित्याग करना चाहिए। (बारस दिवस) बारह दिन (जावदु) पर्यंत (पुणो ) पुनः इष्ट स्मरण करना चाहिए ॥५९ ॥
अर्थ - जिस वचन के द्वारा संघ मात्सर्य - कोप एवं द्वेष युक्त होता है ऐसे वचन को तथा निन्दायुक्त वचन को अप्रमाद पूर्वक परित्याग परिहार करना चाहिए तथा बारह दिन मन ही मन बार बार इष्ट देवता- अरहंत सिद्ध आदि का स्मरण उच्चारण करना चाहिए । ५९ ।।
इन्द्र प्रतिष्ठाः
वारस इंदा रम्मा, तावदिया चेव तेसिमवलाओ। हाणादि सुद्ध देहास्ते, वर मउड कद सोहा ॥ ६० ॥ पुंडिक्खु दंड हत्था, इंदा इंदायणीओ सिक्खलसा । आयरियस्स पुरत्था, पर्छति णच्वंति गायंति ॥ ६१ ॥
अन्वयार्थ - ( वारस इंद रम्मा ) रमणीय / मनोहर बारह इन्द्र (चेव) और उतनी ही ( अचलाओ ) इन्द्राणियां (तेसि) उनमें ( पहाणादि देहास्ते) वे स्नानादि से अपने शरीर की (सुद्ध) शुद्ध करें और (वर) उत्तम ( मउड) शिरोभूषण मुकुट ( कद) के द्वारा (सोहा) सुशोभत, (पुंडिक्खु ) धवल तिलक, (दंडहत्था ) हाथ में दण्ड लिए हुए (इंदा इंद्रायणीओ) इन्द्र और इन्द्राणियां (सिक्खलसा) अभ्यास करते हुए आयरियस्स पुरस्था) आचार्य के अग्रवर्ती / सम्मुख (पद्धति) स्तव पढ़ते हैं ( णच्वंति ) नृत्य करते हैं (और) (गायंति) मंगल गान करते हैं ॥ ६०/६१
अर्थ - रमणीक मनोरम बारह इन्द्र एवं उतनी ही बारह इन्द्राणियां स्नान उबटन लेपन आदि से देह शरीर को शुद्ध करें तथा अभीष्ट मस्तक का आभूषण किरीट (मुकुट), धवल तिलक, हाथ मे दण्ड- हाथ में रजत-स्वर्ण तथा रत्नमय छड़ी अथवा हाथ में चंबर लिए हुए शोभा को प्राप्त दीप्तिमान ये इन्द्र और इन्द्राणियां अभ्यास करते हुए प्रथमावस्था में जिनोपदेश के स्थान पर आचार्य के सामने स्तवन करते हैं, गुण वाद
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