Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 67
________________ अर्थ-आचार्य के बैठने- विराजने योग्य स्थान पर प्रसिद्ध प्रशंसनीय उत्कृष्ट डा. कष्ट के ािसन मोम की जय-जनाए अनि करते हुए स्थापन करना चाहिए ॥६६॥ भावार्थ-बैठने योग्य गीठ- जो खटमल आदि क्षुद्र प्राणियों से रहित हो, चरचर शब्द न करता हो. जिसमें छेद न हो, जिसका स्पर्श सुखोत्पादक हो, जिसमें कोलकांटा आदि न हो, ओ हिला-डुलता न हो, निश्चल हो ऐसे काष्ट आदि पीठ का आश्रय करें। यथा: विजनत्व शब्दमच्छिद्रं सुख स्पर्शमकीलरुम्। स्थेयस्तार्णधिष्ठेयं पीठं विनय वनम् ॥५॥ क्रि. क. अथांत इस प्रकार कि योग्य काष्ट के शुद्ध सिंहासन-पोट को आचार्य जयजयकार का उच्चारण करते हुए सुनश्चित स्थान पर उस पीठ को स्थापन कर अथात् रखे। वह पीठ विशेष कर भूषित और शुद्ध होना चाहिए ॥६६ ॥ सूरि पदा प्रतिष्ठा के पूर्व तस्सतले वर पउमं अठ्ठदलं सालितंदुलो किण्णं। मझे मायापत्ते, ठल पिंडं चारु सव्यत्य ६७॥ अन्वयार्थ-(तस्स सलें) उस सिंहासन के नीचे भाग पर (अङ्गु दल) आठ दल वाला (वर) उत्तम (पउमं) कमल को (सालि तंदुलो) शालि सन्तुल पर (किणणं) शोभायमानःउत्कीर्ण करना और (पज्ञ) उसके बीच में (माया) पाया बीज हौं । पत्ते) पत्र में (चारु सव्यत्य) चारों और सर्वत्र (ठलपिंड) किरणें प्रसारित करें ७ ॥ अर्थ-उस सिंहासन के नीचे के भाग पर शालि धान्य के चावल को फैलाते हुए अष्ट दल वाले कपल को उत्कीर्ण करें, उसके मध्य भाग पर माया बीज "ही" एवं पत्र "प्रसारित करना " अर्थात् उसके मध्य भाग पर ही बीजाक्षर बनाकर उसके चारों ओर सर्वत्र किरणें प्रसारित करें ॥१७॥ पच्छा पुजिविजंतं, तिपयाहि ण देवि सिंह पीठस्स। कुंभी पाणो सगणं, परिपुच्छिय विउसउ तं पीठे ॥६८ ॥ अन्वयार्थ-(पच्छा) उसके बाद (पुजिषिजत) यंत्र की पूजा करके (देवि) दिव्य (सिंह पीठस्स) सिंहपीठ सिंहासन की (तिपमाहिण) तीन प्रदक्षिणा (दक्षिण से) करके (भी पाणो) जल कुम्भ लेकर (इन्द्र) (सगणं) अपने गण संघ को (परिपुच्छिय) पूछकर (तं पीठे ) उस सिंहासन पर (आचार्य को) (विउसउ) विराजमान कर ॥१८॥ 471 VISITE

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