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जड़ पर गणहर सीसो, पयठवणे संथुदो जह होदि। तो तस्स णामकरणं, सलोय आलोयणा सहियं ।।५७।।
अन्वयार्थ-(जइ) यदि (पर गणहर सोसो) पर गणधर अर्थात् अन्य आचार्य का शिम (जइ) मुनि ( पयठवणे) सूरि पर स्थापना में { संथुदो) संस्तुत भजनीय (होरि) होता है (तो तस्स) तो वह उसका (सलोय) । संघ सम्मुख अथषा प्रशंसा पूर्वक (आलोयणा) आलोचना सहित (नामकरणं) नामकरण करना चाहिए।५७ ॥
अर्थ-यदि पर गणधर का कोई शिष्य है। यह यदि आचार्य पद प्रतिष्ठापन पें संस्तुत अर्थात् प्रार्थनीय होता है तो उसका नामकरणं संघ सम्मुख सोच तथा आलोचना सहित करना चाहिए।५७॥
विशेष-यहां आचार्य श्रेष्ठ निर्देश करते हैं कि यदि कोई पर गणधर अन्य आचार्य का शिष्य सुरिं पदस्थापना करने के लए यदि संस्तुतः चुना गया हो तो सम्पूर्ण संघ साक्षी पूर्वक केशलोंच और आलोचना सहित नामकरण संस्कार करना चाहिए।
अब यहाँ प्रकारान्तर से पर गणस्थ आगतति के सम्बन्ध में विशेष कृत समाचार कहते है।
आगंतुक णामकुलं गुरुदिक्खामाण बरिसगसं च। आगमण दिसा सिस्खा पडिकमणादीय गुरु पुच्छा ।।१६६ ।।
सा. अ. मू. चा. अर्थात् गुरु आगन्तुक परगणस्थ शिष्य नाप, कुल, गुरु, दीक्षा के दिन, वर्षावास, आने की दिशा, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि के विषय में प्रश्न करते हैं।
इस प्रकार संघ के आचार्य शिष्य के रत्नत्रय सम्बन्धित प्रश्नादि के द्वारा समालोचना करते हुए आगन्तुक परगणस्थ शिष्य का नामकरण एवं स्वीकार करना चाहिए। ऐसा जिनोपदेश है । ५७ ॥
बारस बारस जावहु, दीण जणाणं च दिञ्जए दाणं। गाइय मंगल गीयं, जुवई जणो भत्ति राएण ५८ ॥
अन्वयार्थ-(बारस-बारस) बारह-बारह (जाबाहु ) दिन पर्यंत (दीण गणाणं) दीन-हीन जनों को (च) भी (दाणं दिज्जए) दान देवे तथा (जुबई जणो) युवति जनों द्वारा ( भत्ति राएण) भक्ति रागपूर्वक (मंगलगीय) मंगल गीत (गाइय) मंगलाचरण गान करना चाहिए । ८॥
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