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हो तो (मझिमया) मध्यम होते हैं (बुह सणिच्चरा) बुध और शनिश्चर (पूर्ण) उसी के समान मध्यम होते हैं (णवमा) नवा ( मंगल, ससि, दियरा ) मंगल. चन्द्र और सूर्य (सया) हमेशा ( वज्जेव्वा) वर्जनीय / परिहार करने योग्य हैं ॥ ४२ ॥
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अर्थ - नवम धर्म भाव में बृहस्पति, गुरु और शुक्र मध्यम होते हैं। बुध और शनि उसी के समान मध्यम होते हैं किन्तु मंगल, चन्द्र और सूर्य का सर्वदा परिहार कर देना चाहिए ॥४२ ॥
दशम् कर्म भावगत ग्रहः
बुह सुक्क गुरु तिण्णिवि, दसम्मि हवंति सव्व सिद्धियरा । ससि सणिणो मज्झत्था, असुहा रवि मंगला पूर्ण ॥ ४३ ॥
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अन्वयर्थी - (बुह सुक्क गुरु) बुध, शुक्र, और गुरु (तिमिणवि) ये तीनों ही (दसम्म) दस भाव में सिद्धि) सिद्धि की कर पाले (हवंति ) होते हैं। दसवें में (ससि सगिगो) चन्द्र और शनि हो तो (मज्झत्था) मध्यम होता है। (रषि मंगला) सूर्य और मंगल हो तो (गुणं असुहा) हीन अशुभ है ||४३|
एकादस द्वादश आय व्यय भाव गत ग्रहः
इक्कारसमा सब्वे, सिद्धियरा बारसा महादुठ्ठा ।
एवं लग्गे रज्जे, बिंबाई पड़ठ्ठए रम्मं ॥ ४४ ॥
अन्वयार्थ - (इक्कार समा) ग्यारहवें स्थान में (सव्वे) सभी ग्रह (सिद्धियरा ) सिद्धि करने वाले तथा ( बारसा) बारहवें स्थान में रहने वाले ( महादुला) महादुष्ट/ अशुभ दोष युक्त होते हैं। ( एवं ) इस प्रकार के (लग्गे) लग्न में (रज्जे) राज्य में (बिंबाई पइए) बिम्ब सूरिपद आदि प्रतिष्ठा करना ( रम्यं ) रम्य/ शुभ होता है ॥४४॥
अर्थ - ग्यारहवें आय भाव में सम्पूर्ण ग्रह सर्वसिद्धि करने वाले होते हैं तथा बारहवें ष्यय नामक स्थान में सर्व ग्रह महान दोष युक्त होते हैं। इस प्रकार के लग्न होने पर राज्य में बिम्ब, जिनदीक्षा सूरि पद आदि प्रतिष्ठा करना मन को हरण करने वाली रमणीय होती है ॥ ४४ ॥
विशेष-उपर्युक्त द्वादश भावों में क्रमशः ग्रहों के होने की योग्य अयोग्यता को आचार्य श्री ने दिग्दर्शन कराया जिसकी संक्षिप्त रूप से तालिका दी जा रही है। यथा:
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