Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 54
________________ को अथवा संयम की स्थिरता (हवा) होती है ॥४६॥ अर्थ-तिर्गग्मुख उध्वंमुख संज्ञक तथा ध्रुव संज्ञक नक्षत्र होने पर दीक्षा प्रतिष्ठा आदि कार्य करें तथा उर्ध्वमुख स्थित ध्रुवपद छाया में यज्ञादिक करें तो वह अक्षय वृक्षसंयम की स्थिरता अथवा अक्षय चारित्र को प्रदान करती है ।।४६ || विशेष-तिय॑ग्मुख-रेवती, अश्विनी, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति, मृगशिर एवं पुनर्वसु ऊर्ध्वमुख-उ.भा., उ. फा. ,उ. पा., पुष्य, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा एवं शतभिषा। ध्रुव संज्ञक-ल. भा., उ. फा., उ. पा., रोहिणी/रविवार । भरण्युत्तर फाल्गुन्यो, मघा चित्रा विशाखिकाः। पूर्वाभाद्र पदा भानि, रेवती मुनिदीक्षण ॥२॥ रोहिणी चोत्तराषाढा उत्तराभाद्र पत्तथा। स्वातिः कृत्तिकया साध बन्यते मुनि दीक्षणे ॥३॥ क्रि. क. सं. अर्थात् भरणी, उत्तरा फाल्गुनी, मघा, चित्रा, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद, रेवती मुनि दीक्षा में प्रशस्त है! रोहिणी, उत्तरापाद उत्तरा भाद्रपद तथा स्वाति, कृत्रिका आदि नक्षत्र मुनि दीक्षा में वर्जित है। सारांश यह है कि रंषती अश्विनी आदि तिर्यग् मुख नक्षत्र तथा उत्तराषाढ़ आदि ध्रुष नक्षत्र वर्तमान हो तब संयम की स्थिरता और अक्षय चारित्र की सिद्धि हेतु जिन दीक्षा प्रदान की जानी चाहिए और जब उ. भा. आदि ऊर्ध्व मुख नक्षत्र हो तब यज्ञादि प्रशस्त कर्म करने चाहिए। तणुच्छायाइ पयाई सणि ससि सुक्के सु वसु वसु चणवलं। अछु बुहे णव भोमे मुणिरुद्दो गुरु रवी एस ॥४७॥ अन्वयार्थ-(तणुच्छायाई) अपने तनु शरीर की परछाई (पयाई) पैर तक पड़ती हो (वस) द्वितीय धन भाव में (सणि ससि मुक्केस) शनि, चन्द्र एवं शुक्र हो (गुरुरवी) गुरु और सूर्य हो तो (मुणिरूद्दो) मुनि पद के विरुद्ध अयोग्य है ।।४७ ॥ अर्थ-अपने शरीर की छाया - परछाई पैर तर पड़ती हो/मध्यान्ह काल, कसुद्वितीय धन स्थान-भाव में शनि, चन्द्र एवं शुक्र हो, आठवें में बुध नवें में पंगल तथा इन्ही आठवें एवं नवें भाव में गुरु एवं सूर्य हो तो मुनि दीक्षा का ग्रहण करना मुनि KHIRAINRITARIA 59 }TIIIIIIIIIIIII

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