Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 55
________________ पद के विरुद्ध अहितकर है ॥ ४७ ॥ सुयदेविमंत महिमा, अणिहय सुगुणादि मंत सत्तीए । संघे आलोचित्ता, कायव्वं सूरि पठ्ठेवणं ॥ ४८ अन्वयार्थ - (सुय देविमंत) श्रुतदेवी के मंत्र की (महिमा) महात्म्य (अणिहच ) अनिहत है। (सुगुणादि मंत) उत्तम गुणों आदि की अतिशय मन्त्र ( सत्तीए) शक्ति / सामर्थ्य के होने पर (सं) चतुबिंध संघ के प्रत्यक्षता में (आलोचिता) आलोचना करते हुए ( सूरि पट्टणं) सूरि/आचार्य पद की प्रकृष्ट स्थापना (कायत्वं ) करना चाहिए ॥ ४८ ॥ अर्थ- श्रुत देवी के मंत्र की महिमा महात्म्य अहित है किसी के भी द्वारा उल्लंघन नहीं कती हैं अर्थात् अकाट्य है, उस शिष्य में उत्तम गुणों की म देखकर चतुर्विध संघ के होने पर प्रकर्ष रूप से सूरिं अतिशय योग्यता पद प्रतिष्ठा विधि पूर्वक स्थापना करना चाहिए ॥ ४८ ॥ विशेष सवति महिमा ! - जनयति मुदमन्त भव्य-पाथोरूहाणां, हरति तिमिर - राशिं या प्रभा भानवीन । कृत निखिल पदार्थ द्योतना भारतीद्धा, वितरतु धुतदोषासार्हतीं भारती व ॥१ ॥ सु. र. सं. अर्थात् सरस्वती, सूर्य को प्रभा - आभा के समान ज्ञान प्रभा का विस्तार करने वाली है । सरस्वती देवी सूर्य के समान भव्य जीवों के अन्तः करण में हर्ष को उत्पन्न करती है, अज्ञान तिमिर राशि को नष्ट कर ज्ञानरूप प्रकाश करती है अभिप्राय सरस्वती की उपासना से अरहंत पद की प्राप्ति होती है जिन्हें भारती आदि अनेक उत्तम नामों के द्वारा पुकारा जाता है जिनकी महिमा अपरम्पार है । योगी जन ही जिसकी थाह को पा सकते हैं इस तरह सरस्वती देवी की मंत्र महिमा - मंत्रशक्ति विशाल है। ऐसे उस श्रुत द्वादशांग वाणी के द्वारा उस सूरिं पद प्रतिष्ठा योग्य शिष्य को गुणादि की सामर्थ्यता को देखकर दीक्षा प्रदायक आचार्य मुण्यादि चतुर्विध संघ के होने पर यानि संघ की प्रत्यक्षता में सूरि प्रतिष्ठा विधिवत् स्थापन अर्थात् गुणारोपण करें ॥ ४८ ॥ दीक्षा स्थानादि वातावरण: पिम्मले गाये णयरे, णिम्पल भूवाल संघ संजुत्ते । फासूय भूमीए सदहत्थं, खेत्तं परिवहु ॥४९ ॥

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