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विचक्राय इत्रौ-इत्रौ स्वाहा।"
मण्डप की सुन्दरताः विचित्र वसनैः सर्व मंडपानि प्रसाधयेत् ध्वजैश्च सल्लकीरभास्त भैरपि दलस्रजा ॥२७॥ चतुद्वरोज़ कोणस्थ शुभ्र कुम्भाष्टकेन च। तोरणै भूरि सौंदर्य नानारत्नांशु कांचितैः ॥२८ ।। प्रलम्बन मुक्तालंबूष हार स्त्रक्तारकोत्करैः॥ भूरिपुष्पोपहारेण चारु चन्दन चर्चया ॥२९॥ मुक्ता स्वस्तिक विन्यासै रंगावलि विशेष के ॥३०॥ प्र. ति.
अर्थात् सम्पूर्ण मण्डल उत्तम प्रकार के चित्र-विचित्र दिव्य वस्त्रों से सुशोभित करे। पताकाएं स्थापति करें सल्लकी वृक्ष तथा केला के वृक्ष स्तम्भ सारों कोण में खड़ा करें। चारों दिशाओं में माला लटकायें। मण्डप के चारों दरवाजों के कोण में दो-दो कुंभ स्थापन करें, तोरण बांधे, मोती के हार लटकायें, पुष्प फैलायें, स्वस्तिक बनावें एवं अनेक रंग के चित्र बनावें। कलश, दर्पण, शृंगार, दर्भमाला, धूपघट एवं अन्य मंगल पदार्थों से मंडप को सुशोभित करें ॥५॥
दुईजम्मि संति मण्डल महिमा काऊण पुष्फ धूवेहि। णणाविह भिक्खेहि य करिज परितोसिय चक्कं ।।५२॥
अन्वयार्थ-(दुइजम्मि) जिसमें दो (मण्डल) मण्डल (पुष्फ हिं) पुष्प और धूप के द्वारा (महिमा काऊण) महिमा प्रभावना/साज-सज्जा युक्त करके (माणाविह) अनेक प्रकार के (भिक्खेहिय) भक्ष्य पदार्थों से (परितोसिय) दान से सन्तुष्ट करते हुए (चक्क) चक्र/गणधर चक्र की (करिज्ज) पुजा करे ॥५२॥
अर्थ-जिसमें दोनो पंडल (मंडप) साज-सज्जा को पुष्प और धूप से उत्तम गंध युफ्त करके अनेक प्रकार के भक्ष्य पदाथों से चतुर्विध संघ को एच्छिक दान आदि से संतोषित करना चाहिए और अनेक विध वैभव प्रभाषना पूर्वक चक्र की पूजा करें ॥५२॥
विशेष-यहां आचार्य प्रवर ने दीक्षार्थी के लिए निर्देश किया है कि वह इहलोक एवं परलोक में सुख तथा शान्ति को प्रदान करने वाले गणधर वलय चक्र की पूजा एच्छिक दान देते हुए महान महिमा-वैभव के साथ करें | चुतर्विध संघ को भक्ष्य पदार्थों का दान करता हुआ संतोपित करें।
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