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स्वे परिपूरीत निर्मल राज्य एवं निर्मल संघ कहलाता है इसीलिए चतुर्विध संघ की सानिध्यता का तथा जन मानस की सानिध्यता का आचार्य प्रवर ने निर्देश दिया है। इस प्रकार सम्पूर्ण वातावरण की अनुकूलता होने पर १०० हाथ ( १५० फुट) प्रमाण प्रासुक एकेन्द्रिम आदि सूक्ष्म जीव रहित, सुक्ष्म बिल, छिद्र आदि से रहित टोस भूमि पर जिन दीक्षा प्रतिष्ठापन महान उत्सव करने के लिए मण्डप की स्थापना करना चाहिए ||
अथवा
अह चउरसीदिहत्थं, चउसठ्ठिय चदुवीसं परिमाणं । खेत्तं किज्जा शुद्धं वेदिजुगं भूमि माणेण ॥ ५० ॥
अन्वयार्थ - (अ) अथवा (चउरसीदि हत्यं) चौरासी हाथ (चउसलिंग) चौसट हाथ (दुवीसा) चौबीस हाथ ( परिमाणं ) प्रमाण / नाप ( खेत्तं) क्षेत्र को (शुद्ध करना) शुद्ध करके (भूमि मागेण) भूमि मान / भूमि प्रमाण के अनुसार (वेदिजुगं ) युगल वेदी का निर्माण करना चाहिए।
अर्थ - अथवा ८४ हाथ ( १२६ फुट ) या ६४ हाथ ( ९६ फुट ) अथवा २४ हाथ (३६ फुट ) प्रमाण क्षेत्र को शुद्ध करना चाहिए। भूमि मापानुसार उसमें युगल ( २ ) वेदी का निर्माण करना चाहिए ॥ ५० ॥
विशेष भूमिको शुद्ध करने की विधि:
खात्वा विशोध्य संपूर्य समीकृत्य पवित्रिते ।
भूभागे मंडपं कार्यं पूगक्षीर द्रुमादिभिः ॥४/४ ॥ प्र. ति.
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अर्थात् यज्ञ सिद्धि के लिए उपकरणों को तैयार करके सर्व प्रथम शान्तिविधान करें तदनन्तर मंडप वेदी आदि निर्माण करें। भूमि खोदकर, शोधकर पुनः उसे भरकर समान करें ऐसो पवित्र भूमि पर उम्बर आदि वृक्ष की लकड़ी से मंडप तैयार करें | ५० ॥
चक्र रचनाः
कायव्वं तत्थ पुणो गणहर वलयस्स पंच वण्णेण । चुणेण य कायत्वं उद्धरणं चारु सोहिल्लं ॥ ५१ ॥
अन्वयार्थ - (गुणो) उसके बाद (तत्व) वहां (पंच वण्णेण चुपणेण) पांच वर्ण (रंग) के चूर्ण से (गणहर अलयस्स) गणधर वलय का ( चारु) सुन्दर (य) और ( सोहिल्लं) शोभा युक्त (उद्धारणं) ऊपर उठाते हुए (कायत्वं ) यनना चाहिए ॥५१ ।। अर्थ - फिर वहां पर पंच वर्णों के चूर्ण से गणधर वलय यंत्र का सुन्दर एवं
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