Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 43
________________ 1 अर्थ - इस प्रकार लग्न के बल को भलिभांति जानकर मनुष्य को दीक्षा देवें । लग्न बल के बिना दी गई दीक्षा, दीक्षा आदि का घात करती है नष्ट करती है तथा दीक्षा च्युत करती है ३२ ॥ विशेष- उपरोक्त लिखे गये विधि के विधान को योग्य रीति से पूर्णत: जानकर अर्थात् उक्त बातों पर मध्यदृष्टि रखते हुए मोक्षेच्छु को जिन दीक्षा प्रदान करें अन्यथा लग्न बल के न रहते हुए दीक्षा देने से दीक्षक, दीक्षा धारणकर्ता एवं दीक्षा कार्य इन तीनों का घात करती हैं इससे संघ का भी अहित होता है। दीक्षा में त्याज्य संकंति गहण बद्दलखंड, तिहि भूमिकंप णिग्घोसा । परिवेस पमुह दोसं विवज्जए अपमलेण ॥ ३२ ॥ अन्वयार्थ - (संकंति) संक्रान्ति (ग्रहण) सूर्य-चन्द्र ग्रहण ( बद्दल ) बादल (खंड तिही) तिथि खंड / क्षयतिथि (भूमिकंप ) भूमि कम्प/ भूकम्प (गिग्घोसा) महान अव्यक्त शब्द भयंकर नाद तथा ( परिवेश) गरिवेष ( पमुह दोसं ) इत्यादि प्रमुख दोषों को ( अपमतेण ) निश्रमाद पूर्वक ( विवज्जए ) परित्याग कर देवें ॥ ३२ ॥ अर्थ संक्रांति, ग्रहण, बादल खण्ड तिथि का खण्डन, भूमि कम्प, परिवेष आदि प्रमुख दोषों को अप्रमाद पुर्वक छोड़े ॥ ३२ ॥ निर्घोष तथा विशेष - यहां आचार्य श्रेष्ठ विशेष परिस्थिति में दीक्षा का निषेध करते हुये कहते हैं कि जब संक्रान्ति हो अर्थात् "संक्रांन्तिः परिवर्तनम् " सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थकार ने संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन बताया है। यहां ज्योतिष नियमानुसार पूर्व राशि से अगली राशि में ग्रह आने का नाम संक्रांन्ति हैं। सम्पूर्ण ग्रहों की संक्रांन्ति होती है। प्रत्येक ग्रह हर राशि में गमन करता है। जैसे सूर्य संक्रान्ति में मेष संक्रान्ति, वृष संक्रान्ति मिथुन संक्रान्ति, कर्क संक्रान्ति सिंह संक्रान्ति, कन्या संक्रान्ति, तुला संक्रान्ति, वृश्चिक संक्रान्ति, धन संक्रान्ति, मकर संक्रान्ति, कुंभ संक्रान्ति, मीन संक्रान्ति। इसी तरह चन्द्र की संक्रान्तियाँ भी होती है। · द्वितीय ग्रहणकाल सूर्य ग्रहण तथा चन्द्र ग्रहण के भेद से ग्रहण दो प्रकार का होता है। जैनागम के अनुसार चन्द्र के नीचे राहु का विधान तथा सूर्य के नीचे केतु का विमान संचार करता हैं। वे दोनों छह मास में प ( क्रमश: पूर्णिमा- अमावस्या) की प्राप्ति होने पर चन्द्र और सूर्य को आच्छादित करते हैं ज्योतिर्विदों ने इस अवस्था को ही ग्रहण कहा है। यथा: चरतीन्दोरधो राहुररिष्ट्रोऽपि च भास्वतः । षण्मासात् पर्वसंप्राप्ता वर्केन्दु वृणुतश्च तौ ॥२२॥ लो. वि. MA 48 }

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