Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ पणिधाण जोग जुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । एस वरित्ताचारो अट्ठविहो होइ णायव्वो ॥ २९७ ॥ मू. आ. अर्थात् प्राणियों की हिंसा, झूठ बोलना, चोरी, मैथुन सेवन, परिग्रह - इनका परित्याग अहिंसा आदि पांच प्रकार का चारित्राचार है || परिणाम के संयोग से पांच समिति और तीन गुपजका रूप प्रवृति देखावा है । ( ४ ) तपचाचार : दुविहो य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो । एक्केक्को विधद्धा जहाकमं तं परूवेमो ॥ ३४५ ॥ अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्ति परिसंखा । "कायस्स च परितावो विवित्त सयणासणं छई ॥३४६ ॥ पावच्छ्रितं विषयं वैज्जावच्चं तहेब सन्झायं । झाणं च विसग्गो अब्भंतरओ तवो एसो ॥ ३६० ॥ मू. आ. अर्थात् तपाचार के दो भेद हैं- बाह्य, अभ्यन्तर। उनमें दोनों के ६-६ भेद हैं उनको क्रम से कहता हूं । अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्ति परिसंख्यान, काय-शोषण एवं विवक्त शय्यासन इस तरह बाह्य तप के छ: भेद हैं। प्रायश्चित्त, विनय वैश्यावृत, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग- ये छ: भेद अन्तरंग तप के हैं। अनशनावमौदर्य वृत्ति परिसंख्यान - रसपरित्याग- विविक्त शय्यासन - 3 कायक्लेश-प्रायश्चित्त-विनय वैयावृत्य-स्वाध्यायव्युत्सर्ग लक्षण तपाचार ॥प्र.सा. अर्थात् अनशन अवमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं व्युत्सर्ग स्वरूप तपाचार I ( ५ ) वीर्याचार : अणिगूहिय बलविरओ पर कामादि जो जह्रुत्तमाउत्तो । जुंजदि य जहाथाणं विरियायारो त्ति णादब्धो ॥४१३ ॥ मू. आ. सम्मत्तेतराचार प्रवर्तक स्वशक्त्यानिगूह लक्षणं वीर्याचार ॥प्र. सा. शाक्ति जिसने ऐसा संयम विधान करने अर्थात् नहीं छिपाया है आहार आदि से उत्पन्न बल तथा साधु यथोक्त चारित्र में तीन प्रकार अनुमति रहित सत्रह प्रकार के 36

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100