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संसार में मोह बड़ा जबरदस्त कीचड़ है। उसमें जो फंस जाते हैं फिर उनका उस कीचड़ से निकलना कठिन हो जाता है एवं उसे पवित्र रत्नत्रय धर्म से च्युत होना पड़ता है जिस के कारण मनोगत क्रियाकाण्ड करता हुआ वह दीर्घ संसारी सन जाता है ॥ १६ ॥
होसई मग्गप्प भठ्ठा, जिणरूव परूवणा विविह संघा । जम्हा - तम्हा सूरी परिठवणं, सव्व सोक्खकर ॥ १७ ॥
अन्वयार्थ - (पग्गप्पभठ्ठा) मार्ग भ्रष्ट ( जिणरूष परूषणा होसई) जिन रूप प्ररूपणा होगी तथा ( विविध संघा) विविध संघ होंगे। अतः वस्तुतः जिनप्ररूपणार क्षण हेतु (जम्हा तुम्हा) जैसे-तैसे (सव्य सौख्य कर) सर्व सुख को प्रदान करने वाली (सूरी परिणं) आचार्य पद प्रतिस्थापना है ॥ १७ ॥
अर्थ - जिनरूप प्ररूपणा के मार्ग से भ्रष्ट विविध अनेक संघ होंगे उनको आचार्य जैसे तैसे भी जिन रूप की प्ररूपणा के रक्षण के लिए सर्वसुख को करने वाली सूरि स्थापना की आवश्यकती है ॥७॥
विशेष यहां आचार्य ज्येष्ठ कहते हैं कि जिनदेव के द्वारा प्रतिपादित जिनरूप यथाजात नग्न दिगम्बर रूप मार्ग से अनेक जन भ्रष्ट होंगे। उन भ्रष्ट होते हुए जीवों को संघ का संचालन करने वाले शिष्यानुग्रह करने वाले आचार्य द्वारा जैसे भी बने येनकेन प्रकारेण संयम प्रतिष्ठा की रक्षा हो सकेगी वैसे सर्वप्रकार के सुख को देने वाले आचार्य पद की स्थापना करेंगे। जैसे ग्रन्थकार आचार्य गुप्ति गुप्त द्वारा अनेक विव संघ की स्थापना की गई । यथाः
यतीनां ब्रह्म निष्ठानां परमार्थ विदामपि । स्वपराध्यवसायत्व मावि सीदतिक्रमम् ॥४॥ तदा सर्वोपकाराय, जाति संकर भीरूभिः ।
महर्द्धिकैः परंचके, ग्रामादयाभिधया कुलम् ॥५ ॥ नी. सा.
अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में तत्पर, परमार्थ को जानने वाले ऐसे मुख्य यतियों के साथ आत्मध्यान और बाह्य तपस्या के व्यापार करने का उल्लंघन होता था । उस अतिक्रम से सभी का उपकार करने के लिए वर्ण, जाति आदि में संकरता उत्पत्ति होने के भय से ऋद्धि सम्पन्न राजर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि, महामुनियों के नामों से श्रेष्ठ निर्दोष कुलों की स्थापना की। अनन्तर कई आचार्यों के पश्चात् भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य आचार्य शान्तिसागर जी ने शिथिलाचार निवारण करने के लिए श्रमण संघ को