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उन्मार्गनिग्रह हेतु कदम जह गुरुका परिहापो, बाई को दि प्रमुखको समायरओ। तो तस्स णिग्गहई, चविह संघोपवढेदि ॥२२॥
अन्वयार्थ -(जह गुरु कम परिहीणो) यथा गुरु क्रम/परम्परा से रहित, (जइ) यदि (कोवि माणुस्सो) कोई भी मनुष्य( समायरओ) आचरण करता है। (तो तस्स) तो उसके (णिपहष्टुं ? निग्रह अवरोध रुकावट के लिए (चरविह) चतुर्विध (संघोपवट्रेदि) संघ युक्ति पूर्वक स्थापन करता है ॥२६॥
अर्थ-यदि कोई भी मनुष्य यथा गुरु-क्रम परम्परा का हास करके समाचरण.. आचरण करता है तो उसके निग्रह के लिए आचार्य पुनः चतुर्विध संघ में युक्ति पूर्वक संस्थापित करते हुए प्रत में स्थिर करता है । अर्थात् उसका निग्रह करना योग्य है ॥२२॥
शिष्य निग्रह विधिःपिल्लेदूण रडत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पन्जेड़ घदं माया तस्सेय हिंद विचिंतती ॥४७९ ॥ तह आयरिओ वि अणुजस्स खवयस्स दोस णी हरण। कुणदि हिदं पे पच्छा होहिदि कडओसहं वत्त ।।४८० ।। पाएणवि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारण अस्थि ॥४८१ ॥ आदट्ठमेव जे चिंतेदु मुट्ठिदा जे परमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदि दुल्लहा लोए।।४८३ ।। भ. आ.
अर्थात् जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हित के कार्य में बलात् प्रवृत्ति कराता है जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए बालक का भी मुंह फाड़कर उसे घी पिलाती है । उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षएक को जबरदस्ती दोषों की आलोचना करने में बाध्य करते है, तब वह क्षपक अपने दोप कहता है जिससे कि उस शिष्य का हित हो। जैसे कट औपधि पीने के बाद रोगी का कल्याण -रोग निवारण होता है। लातो से शिष्यों को ताड़के हुए भी शिष्य को दोषों से अनीति मार्ग से अलिप्त रखता है वहीं गुरु हित करने वाला समझना चाहिए । जो पुरुष आत्महित के साथ-साथ, कटु एवं कन्दोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं ये जगत में अतिशय दुर्लभ सपझने चाहिये । एवं यहीं तो आचार्य का कर्तव्य है