________________
जो कि बह जन्मदात्री माता से भी अधिक हित कारक होता है ।।४७९ ।। से ४८३॥
यही आचार्य प्रवर कहते है कि यदि कोई पनुष्य गुरु क्रम परम्परा नीति मार्ग का उल्लंघन करता है। और उन्मार्ग में गमन करता है तो उसको रोकने के लिए अथवा निग्रह करने के लिए संघ नायक आचार्य उस उन्मार्गी पति वा श्रावक को दण्ड की चारों नीतियों का आश्रय लेते हुए पूर्व स्थापित संयप मार्ग में पुनः स्थितिकरण करता है एवं त्रुर्विध भ्रमण श्रृंखला में उस यति को स्थापित करता है ऐसा ही भगवती आराधनाकार सिखते हैं।
तस्सवि पड़ठाणळू, परूवियो विहिविसेसेणं किंपि। दिक्खा कजो व पुणो, उवयार होइ णियमेण ।।२३।।
अन्वयार्थ-(तस्सवि) उसकी भी पुनः (पश्ताषणठं) प्रतिष्ठापना के लिए (किंपि) जो कुछ भी (परूवियो विहि विसेसेणं) आगम प्ररूपित विधि विशेष/विशेष विधि के द्वारा (पुणो) पुनः (दिक्खा कम्जो) दीक्षा करना योग्य है, (णियमेण) निश्चय से ( उवयारं होइ) उपकार करने वाला होता है ॥२३॥
अर्थ-उन्मार्गी उस शिष्य के संयम प्रतिष्ठापना के लिए प्ररूपित विधि विशेष के द्वारा दीक्षा कार्य भी नियम से उपकाररूप होता है या उपचाररूप होता है ॥२३ ॥
विशेष-आठवीं संयम प्रतिष्ठापना हेतु परम्परागत विधि की विशेषता के कारण दोक्षा धारण को भी महान उपकार एवं प्रशंसनीय कहा है जैसाकि पश्यन्दि आचार्य श्रेष्ठ ने अपने पंचत्रिंशतिका ग्रन्थ में कहा है -
मनुष्य किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वे-वाप्तवचः श्रुतिः स्थितिरतस्याश्च दृग्बोधने। प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि पर स्यातां न येनोन्झिते, स्वर्मोक फलप्रदे स च कथं न लाध्यते संयम ॥९७१ ॥
अर्थात् इस संसारो प्राणी को मनुष्यत्व, उत्तमजात्यादि, जिनवाणी श्रवण, दीर्ध आयु, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक-अधिक दुर्लभ है। ये सब संयम-जिन व्रत के बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फल को नहीं दे सकते। इसलिए संथप कैसे प्रशंसनीय नहीं हैं। अर्थात् नियम से प्रशंसनीय-महान उपकार स्वरूप है ॥२३॥