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ग्रन्थकार कहते हैं कि जो ग्राह्मण , क्षत्रिय तथा वैश्य कुल में उत्पना उच्चकुली हो, सग मोह,ई , लाभ, कध, I, मात्र आ.दे या विकार भावों से रहित हो तथा जो स्वसमय अर्थात् सामान्य तथा आत्मा के अर्थ में जीन नामक पदार्थ स्व समय हैं जो कि एकत्व रूप से एक ही समय में जानता हुआ तथा परिणमता हुआ समय है उपर्युक्त समय शब्द के दो भेदों में परमात्मा को स्वसमय तथा अहिरात्मा को पर समय बतलाया है। यथाः
बहिरंतरप्पमेयं परसमयं जिणिंदेहि। परमप्पो तब्भेयं जाण गुणठाणे ॥१४७ । र. सा. इसी तरह आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने समयसार ग्रन्थ में कहा है:
उच्चकुली हो, राग-इंच मोह, ईष्यां, लोभ, क्रोध, मान माया आदि सम्पूर्ण विकार भावों से रहित हो तथा जो स्वसमय अर्थात् सामान्यतया आत्मा के अर्थ में जीत्र नामक पदार्थ समय है जो कि एकत्व रूप से एक ही समय में जानता हुआ तथा परिणमता हुआ समय है उपर्युक्त समय शब्द के दो भेदों में परमात्मा को स्थसमय तथा बहिआत्मा को पर समय बतलाया है । यथा
इसी तरह आचार कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने समय सार प्रन्थ में कहा हैजीवो चरित्त देसण णाणविउ तं हि ससमयं जाण, जुग्गल कम्मपदेसठ्ठियं च तं जाण परसमयं ॥२ ।।स. सा.
अर्थात् हे भष्य ! जो भव्य जीव सम्यक चारित्र, दर्शन, ज्ञान में स्थित हो रहा है वह निश्चय से स्वसमय जानो और जो पुदगल कर्म प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जाती।
इस तरह जो यति स्वसमय एवं पर समय में से स्वसमय को मुख्य रूप से स्वीकार कर तथा अन्य परसमय को गोण करने के मार्ग बोध के प्रकाश करने वाले हैं, व्यवहार नय को दिखलाने वाले, परनिंदा करने वाले एवं कामदेव मोह को जीतने वाले आचार्य प्रतिष्ठा प्राप्त अन्योन्य यति गणों के द्वारा पूजनीय तथा शुद्ध सम्यक चारित्र वान होते हैं। ऐसे मारित्रवान, नय पथ प्रदर्शक आचार्य सर्वज्ञ मान्य तथा संघ, गणगच्णादि का उद्धार करने वाला होता है ।।२०१२१॥
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