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ज्ञान के द्वारा जिन शासन में निर्दोष विधि से संघ, गण, गच्छादि का सम्यक् प्रकार से उद्धार-उत्थान पुनरूत्थान करता है। इस भव्य यति को उक्त प्रवृत्ति चिन्ता विहीन तथा शुद्ध है। तात्पर्याथ-सा उक्त प्रवृत्ति के द्वारा गण गच्छ संघादि का उद्धार करने में समर्थ होता है। ॥१८-१९ ॥ आचार्य गुण
बंभण खत्तिय बइसो, विमुक्क कुट्ठाई सयल दोष गणो। सग-परसमय णयवह, पभासओ सुद्ध चारित्तो ॥२०॥
अन्वयार्थ-जी (बंभाग) ब्राह्मण (खत्तिग) क्षत्रिय (वाइसो) वैश्व ही (कुट्ठाई सयल दोष गणो) व कुटिलता आदि अथवा कुष्ट आदि सकल दोष समूह से । विमुक्को) विमुक्त राहत हो। (सग-पर समय) स्व समय, पर समय और (गापवह ) न्याय नीति का (पभासी) प्रकाशक ऐसा (सुद्ध चारित्रो) शुद्ध चरित्रवान् आचार्य होता है ॥२०॥
अर्थ-जो ब्राह्माण, क्षत्रिय तथा वैश्य है, कुटिलता, कुष्ट आदि सकल दोपों के समूह से रहित है, जो स्वसमय एवं परममय का ज्ञाता, नीति मागं का प्रकाशक हैं वे शुद्ध चारित्र वाले हैं ॥२०॥
भावार्थ-उस्म कुलीन जातज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो, कुष्ट अपस्मार, महा मारी आदि रोग तथा मानसिक कुटिलता आदि सम्पूर्ण दोपों से रहिन हो, ओ स्वसमय स्वसिद्धान्त और एरसमय परसिद्धान्त के नय प्रमाण आदि का पूर्णन : जानकार हो एवं शुद्ध निर्मल निर्दोष चारित्र वाले हो।सर्वत्र पूज्य:
ववहारणया वेखी परिणिंदा विवन्जिओ जियाऽ णंगो आइरियो परिठविदो, अण्णोण्ण वि पूजाणिजो य ॥२१ ।।
अन्वयार्थ-विवहारणया णयावेखी) व्यवहार नयापेक्षो व्यवहार नय की अपेक्षा रखने घाला {परीण दा विज्जिओ) पर निन्दा का परित्यागी (जियाऽणंगो) विषयाभिलाषाओं को जीतने वाला (आयरिओ परिठविदो) आचार्य पद पर स्थापित किया जाता है, (पुजाणिज्जो य ) वह पूज्य होता है, (ण अण्ण्योण्ण वि) अन्य नहीं ॥२१॥
अर्थ-जो व्यवहार भय की अपेक्षा रखने वाला, परनिंदा से रहित, विघय की आशाओं से रहित कामदेव के विजेता हो, एक दूसर/परस्पर आचार्य पद पर स्थापित किया जाता है वहीं सृजनीय होता है अन्य नहीं॥
___ यह। उपरोक्त गाथा नं. २० एवं २१ में आचार्य के लक्षण प्रकट करते हुए
EIRRIMINAINA
NANASI
HalibiHITRIIII