________________
के आचार कर्म को छोड़ देता है और पश्चात् अपने स्वयं मनोकल्पना अर्थात् जैसा मन की रुचे वैसे कर्म को आचार मानकर उस स्वकल्पित आचार कर्म को करने में तल्लीन हो जाता है। ऐसा यति मूल आचारों को त्याग करने वाला वन्दना करने योग्य नहीं है।
यहां पर प्रकरण वश पंचाचारों का पूर्वाचार्य कथित संक्षिप्त वर्णन करते हैं(१) दर्शनाचार की निर्मलताः दंसण चरण विसुद्धी अविहा जिणवेरहि णिहिट्ठा ।।२०० ॥ णिक्कंखिद णिव्वदिगिच्छा अमूढ़ दिट्ठी य। उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्न पहावण य ते अट्ठ १२०१ मू.आ.
अर्थात् दर्शनाचार की निर्मलता जिनेन्द्र वरिष्ठो के द्वारा आठ प्रकार की कहीं है। नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृति, उपगूहन. स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना । ये आठ सम्यक्त्व के गुण (अंग) जानना ।
(२) ज्ञानाचारः काले विणए उवहाणे तहेव णिण्हवणे। वंजण अत्थ तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठ विहो ॥२६१॥ मू. आ.
अर्थात् स्वाध्याय का काल (अकाल समय को छोड़कर), मन-वचन एवं काय से शास्त्र का विनय यत्नपूर्वक करना, पूजा -सत्कार-सम्मान आदि से पाठ करना ( आदर विनय पूर्णक), अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पदे हुए शास्त्र का नाम प्रकट करना (छिपाना नहीं) वर्ण, पद, वाक्य को शुद्धि पूर्वक शुद्ध उच्चारण करके पढ़ना, अनेकास स्वरूप अर्थ की शुद्धि अर्थ सहित पाठादिक की शुद्धि होना । इस प्रकार ज्ञानाचार के आठ भेद हैं।
काल दिनयोपधान बहुमाना निह्नवार्थ व्यन्जन तदुभय सम्पन्नत्व लक्षण ज्ञानाचार : ॥२०२ ।। प्र. सा.
अर्थात् काल, विनय, उपधान, यहुमान, अनिन्हव, अर्थ, व्यन्जन और तदुभय सम्पन्न ज्ञानाचार है।
(३) चारित्राचारः पाणिवह मुसाबाद अदत्त-मेहुण-परिग्गहा विरदी। एस चरित्नाचारों पंचविहो होदि णादव्वो ॥२८८ ।।
CARTHATANTRIMATERNIMATAL 35
MIRRY