________________
अवसन्न-जो चारित्र पालन में आलस्य युक्त होता है, जिनवचनों को नहीं जानता है, जिसने चारित्रभार छोड़ दिया है, ज्ञान से व चरित्र से जो भ्रष्ट है और क्रियाओं में आलग्य युक्त है।
कुशील क्रोधादिकों से कलुषित, व्रतगुण और शीलों से रहित संघ का अपमान करने वाला होता है |
मृगाचारी-गुरुकुल को छोड़कर बिहार करने वाला और जिनवचनों को दूषित करने वाला होता है । इस प्रकार पार्श्वस्थादि यतियों का अल्पांश स्वरूप कहा विस्तार से पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थों से जानना चाहिए।।
पासत्थादी पायं णिच्चं वजेह सव्वधा तुम्हे । हंदि हु मेलण दोसेण होई पुरिसस्स तम्मयदा ॥३४१ ॥ लजं तदो वि हिंसं पारंभं णिव्विसंकदं चेव। पियधम्मो वि कम्मेणा रूहतओ तमओ होई ॥३४२ ।। भ. अ.
अर्थात् पार्श्वस्थ, अवसन्न संसक्त, कुशील एवं मृगचरित्र इन पांच प्रकार के कुमुनियों में तुम मदा दूर रहो। उनसे मेल रखने से उनके सपान पार्श्वस्थ आदि रूप हो जाता है | पार्श्वस्थ आदि का संसर्ग करने की इच्छा रखते हुए भी लज्जा करता है पश्चात् असंयम के प्रतिग्लानि करता है कि मैं कैसे इस प्रकार व्रत का खण्डन करूं यह तो दुरन्त संसार में गिराने वाला है, परन्तु चारित्र मोह के उदय के वशीभूत होकर असंयम का प्रारम्भ करता है। असंयम का पालन करके वह यति आरम्भ परिग्रह आदि में नि: शंक होकर प्रवृत्ति करता है । इसप्रकार धर्म का प्रेमी भी मुनि क्रम से लज्जा आदि का त्याग करते हुए पार्श्वस्थ आदि रूप हो जाता है । तत्पश्चात्
संविग्गस्सपि संसग्गीए पीदी तदो य वीसंभो। सदि वीसंभे य रदी होई रहीए वि तम्मयदा ॥३४३ ॥
अर्थात् संसार से भयभीत मुनि भी पार्श्वस्थ आदि के संसर्ग से उनसे प्रीति करने लगता है । नीति करने से उनके प्रति विश्वासी हो जाता है। उनका विश्वास करने से उनका अनुरागी हो जाता है और उनमें अनुराग करने से पार्श्वस्थादि मय हो जाता है ।। क्योंकि:
दुजण संसग्गीए संकिजदि संजदो वि दोसेण। पाणागारे दुद्धं पियंतओ बंभणो चेव ॥३५१ ।।
दू[ 33 KARI