Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 26
________________ आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्त-पुत्तेहि। आसिज णाण-दसण-चरित्त-तक्वीरियायारं ।।२०२॥ प्र. सा./म. अर्थात् बन्धुवर्ग से विदा लेकर अपने से बई तथा स्त्री पुत्रादि से मुक्त हुआ, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार करके विरत होता है। आचार्य जिनसेनेण उक्तं च:सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य सर्वांनाहूय सम्मतान्। तत्साक्षि सूनवे सर्वं निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ॥३८॥ म. घु.।। अर्थात् गृह त्याग नामक संस्कार में सर्वप्रथम सिद्ध भगवान की पूजा कर अपने समस्त इष्ट सम्बन्धी अन को बुलाकर उन्हें उनके सम्पूर्ण घर के कार्य भार को सौंप कर उन्हें सन्मार्गोपदेश देकर स्वयं निराकुल होवे तत्पश्चात् दीक्षा ग्रहण हेतु अपना घर छोड़ दे॥ ___ उपर्युक्त गाथाएं बन्धुओं की सहमति प्रदान करती हैं परन्तु यदि बधुवर्ग में मतभेद होने से सहमत न हो तो दोशेच्छु को क्या करना चाहिए, तर आचार्य कहते हैं कि: तत्र नियमो नास्तिा कथमित ....तत्परिवार मध्य पदको लिमिध्याः र्भवति तद धर्मस्योपसर्ग करोतीति। यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोति तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति ॥२०२ ।। प्र.सा. ज. टीका अर्थात् अपने बंधु वर्ग से क्षमा करा यह कथन अपर्यादा के निषेध के लिए है अन्यथा उसके लिए वहां इस बात का नियम नहीं है। क्यों नियम नहीं है? क्योंकि भरत, सगर, राम, पाण्डवादि ने जिन दीक्षा धारण की थी। उनके परिवार के मध्य जव कोई भी मिथ्यादृष्टि होता था, वह धर्म पर उपसर्ग भी करता था। तब कोई उपर्युक्त मात को नियम मान बैठे तब उसके मत में अधिकतर तपश्चरण ही न हो सकेगा क्योंकि जब किसी तरह से तप ग्रहण करते हुए यदि अपने सम्बन्धी आदि से ममत्व करे तव कोई भी तपस्वी हो नहीं सकता। अपने मन में वैराग्य भावना पूर्वक गुरु के समीप जाकर हाथ जोड़कर, मस्तक शुका कर गुरु से प्रार्थना करता है "हे भगवान् मुझे स्वीकार करो" ऐसा कहकर प्रणाम किया जाता है और विशिष्ट आचार्य द्वारा यह ग्रहण किया जाता है। WATANT31WATERIES

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