Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 25
________________ चित्तों) संघ के प्रतिकूल चित्तं वाला (मुणी) मुनि (अवंदणिज्जो) अवंदनीय यन्दना करने योग्य नहीं (होई) होता है ॥१३॥ अर्थ-दीक्षा विधि से रहित, स्वयं दीक्षित, प्रमादी, आर्तध्यानी और संघ के प्रति कुल चित्त का धारक मुनि अवन्दनीय होता है ॥१३॥ विशेष-उक्त बारहवीं गाथा में आचार्य श्रेष्ठ ने च्युत श्रमण के लक्षण दिये उसी को यहां पर और भी स्पष्ट किया गया है जिससे प्रथम लक्षण दीक्षा विधि से रहित यति श्रमण परम्परा से रहित होने से अवन्दनीय कहा है। दसण गाण चरित्ते उवहाणे जइ ण लिंग रूवेण। अटुं झायर्यात झा झरगत समिती होदी का अर्थात् जो मुनि लिंग धारण कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्यज्ञान एवं सम्याचारित्र को उपधान- ( आश्रय) नहीं बनाता है तथा आर्तध्यान करता है यह अनन्त संसारी है ॥ अब यहां प्रकरण वश संक्षिप्त दीक्षाद्य विधि का वर्णन करते हैं। यथाः जिन दीक्षा का इच्छु जन सर्वप्रथम दीक्षा धारण करने का कारण समझना चाहिए। जैसा कि कहा है: गृह का त्याग क्यों ? शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मनः । अतश्चित्त प्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः ॥१०॥ निरन्तरानिलदाह, दुर्गमे कुवासनाध्वान्त-विलुप्त-लोचने। अनेका चिंता ज्वर जिगितात्मनां, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्ध्यति ॥१२/४ ।। ज्ञानार्णव अर्थात् गृहस्थ घर में रहते हुए अपने चपल मन को वश करने में असमर्थ हैं। अतएव चित्त की शान्ति के लिए सत्पुरुषों ने घर का त्याग कर दिया और एकान्त में रहकर ध्यान अवस्था को प्राप्त हुए क्योंकि निरन्सर पीड़ा रूपी आतंध्यात को अग्नि के माह से दुर्गम, बमने के अयोग्य तथा काम क्रोधादि की कुवासना रूपी अन्धकार से विलुप्त हो गयी है नेत्रों की दृष्टि जिसमें, ऐसे घर में अनेक चिन्ता रूपी ज्वर से विकार रूप मनुष्यों के अपने आत्मा का हित कदापि सिद्ध नहीं होता ॥१०/१२ ॥ ___ जब मुमुक्षु जन गृह त्यागना आल्प हितार्थ अनिवार्य समझ लेते हैं तब अपने बन्धु वर्ग में परम्पशं ले उनकी आज्ञा लेकर गुरु समीप जाता है क्योंकि यह दीक्षा पूर्व प्राथमिक क्रिया हैं। ऐसा ही पूर्वाचार्य कहते हैं। DOORMA CHODAIVAL 30 S AARCH

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