Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ यंथाः गोपुच्छिकः श्वेतवास, द्रविडो यापनीयकः । निष्पिच्छश्चेति पंचैते, जैनाभासाः प्रकीर्तिता ॥ १० ॥ नीतिसार अर्थात् गाय के बछड़े की पूंछ के बाल की पिच्छी धारण करने वाले, श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय, पिच्छी रहित निःपिच्छ इस प्रकार ये पाँच प्रकार के यति जैनाभास कहे जाते हैं । द्वितीय लक्षण च्युत श्रमणों का जिन प्रणीत सुमार्ग को छोड़ कर उन्मार्ग (जिन प्रतिकूल मार्ग) में भ्रमण करने वाले यति के लिए कहा है। तीसरा लक्षण "गुरु क्रम का लग्नापू ने भी श्रमणत्वपने का निषेध किया । यथा गुरु कमोल्लंघन तत्परा, ये जिन क्रमोल्लंघन तत्परास्ते । तेषां न दृष्टिर्न गुरुर्न पुण्यं वृत्तं न बंधुर्न त एव मूढाः ॥ १३८ ॥ चतुर्विध निरूपण ॥ दा. शा. अर्थात् जो मनुष्य गुरुओं की परम्परा को उल्लंघन करना चाहते हैं वे गुरु आज्ञा प्रमाण न होने से जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के उल्लंघन करने में तत्पर हैं ऐसा समझना चाहिए। उन लोगों में सम्यक्त्व नहीं, उनके कोई गुरु नहीं, उनके पुण्य बन्ध नहीं, खारिज प्राप्ति नहीं, तथा उनका कोई बन्धु नहीं। विशेष क्या ? वे अपना अहित कर लेने वाले मूढजन हैं। धार्मिको में उत्मकः निज धर्मवंश पारंपरागत-सत्क्रमं व्यतिक्रम्य । यो वर्तते स उत्सक इह तेन च धर्म वंश हानिः स्यात् ॥ १३९ ॥ दा. शा. अर्थात् सर्वज्ञ परम्परा से आगत सन्मार्ग का उल्लंघन कर आचरण करने वाला धार्मिक मनुष्यों में उत्सक कहलाता है। क्योंकि वह स्वेच्छा से ही आचार धर्म को मानने वाला होता है इसीलिए इस प्रकार उच्छृंखल प्रवृत्ति से उस व्यक्ति द्वारा निज धर्म एवं वंश की हानि होती है। दिक्खा विहणा रहिओ, सयमेव व दिक्खिओ पमत्तट्टो । संघ पडिकूल चित्तो, अवंदणिजो मुर्णी होई ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ - जो ( दिक्खा विहिणा रहिओ ) दीक्षा विधि से रहित हो (सयमेव दिक्खिओ) स्वयं दीक्षित हो (य पमत्तट्टी) और प्रमत्त अभिप्राय वाला (संघ पिडकूल A129 1VUUNE

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100