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अर्थात् माझण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही सर्वज्ञ दीक्षा निर्ग्रन्थ लिंग धारण करने योग्य हैं। इन तीनों में भिन्न शुद्रादि कुलहीन हैं अत: इनके लिए जिन शासन में निर्ग्रन्थ (नग्न) लिंग नहीं- पे निग्रन्थ लिंग को धारण करने योग्य नहीं है।
त्रिषु वर्णेष्वेकतमः, कल्याणांगः तपः सहो वयसा। सुमुखः कुत्सा-रहितः, दीक्षा गहणे पुमान योग्य ॥
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों में से कोई सा भी एक वर्ण मोक्ष का अधिकारी है, वही वय के अनुसार तपश्चरण करने वाला सुन्दर और ग्लानि रहित दीक्षा ग्रहण करने योग्य है ।
शान्तस्तपः क्षमोऽकुत्सो बणे ज्वेक तमस्त्रिषु ।। कल्याणंगो नरो योग्यो लिङ्गस्य ग्रहणे मतः ॥५१॥ यो. सा.
अर्थात् जो मनुष्य शान्त है. तमनार में पाई है हो कि है. तीन वर्ष में से किसी एक वर्ण का धारक हो और कल्याण रूप सुन्दर शरीर के अंगों से युक्त है वह जिनलिंग के ग्रहण में योग्यपाना गया है।
तीसु एक्को कल्लाणंगो तयो सहो वयसा । सुमुहो कुछारहिदो लिंगग्गहणे इवदि जोग्गो ॥१० ।३०५। प्र. सा.
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्षों में से किसी एक वर्ण का, निरोग, तप करने में समर्थ, अति बाल व अति वृद्धत्व से रहित, योग्प आपु वाला, सुन्दर लोकोपवाद से रहित पुरुष ही जिनलिंग को ग्रहण के योग्य होता है ।
प्रथम गुण त्रिवर्णोत्पन्न तथा द्वितीय गुण माता पिता की विशुद्धि होना आवश्यक बतलाया है जैसा कि कहा है
विशुद्ध-कुल-गोत्रस्य सद्वृत्तस्यवपुष्मतः ।। दीक्षा योग्यत्व माम्नातं सुमुखस्य सुमेध सः ॥१५८॥३९॥ आ. पु.
अर्थात् जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने योग्य माना गया है ।
कुल एवं गोत्र शुद्धि से तात्पर्यः कुलीन क्षुल्लकेष्वेव सदा देयं महाव्रतं । सल्लेखनोप रूडेषु गणेंद्रेण गणेच्छुना ॥११३ ॥ प्रा. चू.
अर्थात् सम्माति विवाहिता ब्राह्मणों में ब्राह्मण से, क्षत्रिया में क्षत्रिय से तथा वैश्य HIIIIIIIIIIIIIIRAL 25 MITHIIIIIIIIMa