Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 19
________________ श्रेतुर्व्याख्यातुश्च असंख्यात गुण श्रेण्या कर्म निर्जरण हेतुत्वात् ।। ध. १३/५, ५, ५० अर्थात् क्योंकि व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणी रूप से होने वाली कर्म निर्जरा का कारण है । उसी प्रकार आचार्य की वाणी के द्वारा कल्याण कारी उपदेश होता है । सारांश देवाधिदेव तीर्थकर दया की साक्षात जीवंत मूर्ति है तो उसी प्रकार आचार्य परम देय अहिंसा के साक्षात मूर्तिमान है । दीक्षा योग्या-योग्य वण्णत्तय संजादो, पिदु-मादु विसुद्धओ सुदेसो । कल्लाणंगो सुमुहो, तव-सहणो चारू रूबो य ॥९॥ अन्वयार्थ-जो (वण्णतय संजादो) त्रिवाणे में उत्पन्न हो (पिटु माद विसुसओ) जिसके मातु पक्ष और पितृ पक्ष, (कुल-आति) विशुद्ध हो (सुदेसो) उत्तम देशज हो (कल्लाणंगो) कल्याण रूप शुभ अंग हो (तव सहाणो) तप सहिष्णु, ताप सहन करने वाला हो (चारू रूवो य) और सुन्दर रूपवान हो ॥९॥ अर्थ-आचार्य त्रिवर्णोत्पन्न माता-पिता को विशुद्धि, उत्तपदेश कल्याण स्वरूप योग्य प्रशस्त अंग सौम्य मुखमुद्रा तथा तप साधना युक्त सुन्दर रूपवान हो । दिक्खागहणे जोग्गो ण विच्छिण्णो णय अहिय अंगो य । छिब्बिरणासो उम्पाई चित्ती दुव्व-वसण-सतत्तो ॥१०॥ अन्वयार्थ-(दिक्खा गहणे जोग्गो) दीक्षा ग्रहण करने योग्य है । (को) कौन जो (ण छिठियाणो) न विकलांग हो, (णय अहिंय अंगो) न अधिक अंग हो (य) च शब्द से न हीन अंग हो, (छिव्विर णासो) सुन्दर छोटी नाक वाला हो ( उम्माई) शुक सम नाक हो ( चित्ती दुख्य वसण) और दुख्यसनों से (सतत्तो) रहित हो १५० ॥ अर्थ-दीक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं है जो विकलांग न हो जिसका अंग भंग एवं अधिक अंग न हो तथा जो न क्षत-विक्षत, न उन्मत्त प्रवृत्ति वाला, सुन्दर छोटी नासा वाला, शुक सम नासा वाला हो उन्माद अपस्मार आदि दोषों से रहित और दुर्व्यसन से रहित होना चाहिए ॥१०॥ विशेष यहां आचार्य प्रपर जिन दीक्षा का पात्र कौन है ऐसा वर्णन करते हैं । जिसमें प्रथम विकर्ण में उत्पन्न हो । ऐसा उल्लिखित है - तदुक्तं ब्राह्मण, क्षत्रियाः वैश्या, योग्याः सर्वज्ञ दीक्षणे । कुलहीने न दीक्षाऽस्ति जिनेन्द्रोद्दिष्टि शासने ॥१०६॥ ग्रा. चू. म 24 TV

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