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प्रवर का निर्देश है। जिनमार्ग के प्रतिकूल आचरण करने वाले को यहां पूठ कह कर सम्बोधित किया गया है। क्योंकि गुरुकुल को अवहेलना करने वाले को आचार्य महोदय ने चरित्रवान् ज्ञानवान् होकर भी चरित्रहीन एवं ज्ञान हीन कहा है । यथा
गुरु कमोल्लंघन तत्परा ये जिन क्रमोल्लंघन तत्यरास्ते ।
तेषां न दृष्टि में गुरुर्न पुण्यं वृत्त न बंधुर्न एव मूढा ॥ १३८ ॥ दा. शा.
अर्थात् गुरु की परम्परा को जो नर उल्लंघन / अवहेलना करना चाहते हैं अर्थात् गुर्वाज्ञा को नहीं मानते हैं वे जिन भगवान की आज्ञा को ही उल्लंघन करने में तत्पर हैं ऐसा समझना चाहिए। उनमें सम्यक्त्व नहीं है, उनका कोई गुरु नहीं है, उनके पुण्य का बंध नहीं, उनके चारित्र की प्राप्ति नहीं, उनका कोई बन्धु नहीं, विशेष क्या? वे अपन अहित करने वाले मूहुजन मुखे हैं।
और भी आगे कहा है कि जो सर्वज्ञ परम्परा से आए हुए सन्मार्ग को उल्लंघन कर जो आचारण करता है वह धार्मिक मनुष्यों में उत्सक अर्थात् धर्म का नाशक कहलाता हैं । इस धर्महीन अनादर प्रवृत्ति करने वाले को ही आचार्य परमदेव ने संघबाह्य घोषित किया है ॥५ ॥
गुण हानि वरन विनाश नहीं
गामा देसा वण्णा, पवणाय मेहया समणिया ।
पडसम गुहाणी व
दूभर ६ ॥
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अन्वयार्थ - (गामा देसा पण्णा) गाँव, देश और वर्ण (पवणाहय महया) पवनात मेघ के समान (डिसमयं ) प्रतिसमय (गुणहाणी) गुणों की तो हानि होती है ( किन्तु ) (एणविणासं} गुणों का विनाश नहीं होता ।
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अर्थ - प्रतिसमय होने वाले गाँव, देश और वर्णों के हनन एवं शमन से भरत क्षेत्र के दुःसम काल में प्रलय के समय गुणों की हानि होती है, किन्तु गुणों का विनाश नहीं होता है ।
( इति भद्रबाहु कृत यतेः पदस्थापनं )
(इस प्रकार भद्रबाहु द्वारा यातियों के पद की स्थापना पूर्ण ) ज्ञान विहीन जीव की प्रवृत्तिः
णाण- विहुणो, जीवो जिणमग्गं छंडिकण उम्मग्गे । वट्टंतो अप्पाणं सावय लोयं पणासेइ ॥७॥
अन्वयार्थ (गाण विहुणी जीवो) ज्ञान विहीन / अज्ञानी जीव (जिणमगं छंडिकण) जिनमार्ग को छोड़कर (उम्मग्गे) उन्मार्ग में (वट्टतो) वर्तन/प्रवृत्ति करता हुआ (अप्पा) अपने / आत्मा के ( सावय लोयं) सावय लोक को (पणासई) प्रणाश/ उच्छेद करता है ॥७ ॥
MUMAN 22 V