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विशेष- श्री गिरनार गिरि के शिखर पर स्थित आचार्य भद्रबाहु विराजमान हैं । जो कि जिनागम श्रुत सागर के जानने वाले हैं। उन्हें सम्पूर्ण यति संघ ( यति, ऋषि, मुनि, अनगार) के प्रमुख मुनि गुतिगुप्त द्वारा गुरु वन्दना की जाती है । और..
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प्रतिज्ञा
अह पुव्व सूरि मुहकय विणिग्गयं सव्वसाहु-हियकरणं । भणामि सुगह संजम - रिद्धी सिद्धी तुहं होइ ॥ ४ ॥
अन्वयार्थ - (अ) इसके बाद ( पुष्ट सूरि मुहकम) पूर्व आचार्यों के मुख से (विणिग्गयं) विनिर्गत-निकले हुए (सव्व साहु हियकरणं) सम्पूर्ण साधुओं का हित करने वाली आठवीं प्रतिष्ठापन को ( पभणामि ) कहता हूं (तुहं सुणह) उसे तुम सुनों जिससे तुम्हारे ( संजम रिद्धी सिद्धी) संयम की रिद्धी-सिद्धी होती है ॥४॥
अर्थ - इसके बाद पूर्वाचार्यों के मुख से निकले हुए सर्व साधुओं के लिए हित को करने वाली आठ प्रतिष्ठापना को कहता हूं । उसे आप सब श्रवण करें, जिसस संयम की ऋद्धि और सिद्धि होती हैं ॥४॥
विशेष - यहां आचार्य प्रवर प्रतिज्ञा करते हैं कि में पूर्वाचार्य कथित संयम की वृद्धि और सिद्धि यानि कर्मों का क्षय करने वाली आठ प्रतिष्ठापना को कहने का संकल्प करते हैं । जिसके द्वारा सम्पूर्ण साधु समूह का हित हो, कर्म निर्मूल होते हैं तात्पर्यार्थ इस प्रतिष्ठापना के द्वारा सर्व साधुओं का हित ( कर्मों का क्षय एवं संयम की वृद्धि) होता है । यही शास्त्र श्रवण का फल है।
भरहे दूसह समए संघकमं मेल्लिऊण जो मूढो । परिवहृदि गव्विरओ सो सवणो संघ बाहिरओ ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ - (भरहे दूसह समए) भरत क्षेत्र के दुःसह काल में ( संघकमं मेल्लिऊण) संघ क्रम को छोड़कर (जो मूढो) जो मूढ मूर्ख (गब्बरओ) गर्यरत होकर ( परिषदृदि) प्रवृत्ति / आचरण करता है। ( सो समणो ) वह श्रमण ( संघ बाहिरओ) संघ से बाह्य/बाहर है ॥५ ॥
अर्थ - भरत क्षेत्र के दुःसम पंचम काल में मूलसंघ के अनुक्रम को छोड़कर अभिमानरत् होकर आचरण - विचरण करता है वह मूढ़ है एवं संघ से बाहिर - ग्रहीभूत
है
विशेष - जो गर्व से गर्वित हो अभिमान के उत्तंग शिखर पर आसीन होकर जिनागम एवं पूवाचार्य कथित आचरण को छोड़ता है वही संघ से बहींभूत है ऐसा आचार्य
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