Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 15
________________ सुरावाणा-मांस भक्खण-कोह-माणा-माया-मोह-हरस रइ-सोग। भय-दुगंधित्थि-पुरिस-णव॒सय वेया परिच्चागो अदिचारो ॥ अर्थात् सुरापान, मांस भक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद इनके परित्याग न करने को अतिचार कहते हैं। 'एदेसि विणासो णिरदिचारी संपुण्णदा, तस्स भावो णिदिवारदा।" अर्थात् उपर्युक्त कथित अतिचारों का सर्वथा सम्पूर्णतया विनाश, सर्वथा परित्याग कर देने का नाम निरतिचार है उसके भाष निरतिचार होते हैं । ___ इस प्रकार निरतिचार व्रत/चरित्र का पालन करते हैं और द्रव्य एवं भाव दूयविध पान के जाता है ! को देखने योग्य वस्त को खाते हैं ! जिनका अतिचार रहित सम्यक्त्व है ऐसे निर्ग्रन्थ मुनियों का देह जंगम प्रविमा कहा है ऐसे यतिगण बन्दना के योग्य, ऐसे यतियों की वन्दना की जाती है । यहां आचार्य प्रवर संसारी जीवों की शुद्ध प्रतिष्ठा यानि परमार्थ से आचरण करने योग्य मुनिपद के शुद्ध स्थरूप को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं ॥२॥ शिष्य द्वारा गुरू से पृच्छना: सिरि उजयंत सिहरे णाणाविह-मुणि अरिंद संपुण्णे । चउविह संघेण जुदं सुयसायर पारगं धीरं ॥२॥ सिर भद्दबाहु सामी णमसित्ता गुत्तिगुत्त मुणि णाहि । परिपुच्छिचय पसत्थं अलु पइछावर्ण जइणो ॥३॥ अन्वयार्थ-(सिरि उज्जयंत सिहर) श्री उर्जयंत-गिरनार शिखर पर (माणाविह मुणि अरिदं संपुण्णे) अनेक प्रकार के मुनिन्द्रों से श्रेष्ठ (चउविह संधैण सह) चतुर्विध(यति, ऋषि, मुनि, अनगार) संघ से संयुक्त/सहित (सुयसायर पारगं) श्रुतसागर के पारगामी (ऐसे) (धीर) धी/धैर्यवान (सिरि भद्दबाहु सापी) श्री भद्रबाहु स्वामी को (गमसित्ता) नमस्कार करके (णाहिं ) नाभिसम (गुत्तिगुत्त मुणि पाहि) गुप्तिगुस मुनि के द्वारा (जइणो) यतियों के (पसस्थ अट्ठ पइट्ठावणं) प्रशस्त/शुद्ध आठवी प्रतिष्ठापना के सम्बन्ध में (परिपुच्छिचप) प्रश्न पूछा गया ॥२/३ ॥ अर्थ-श्री उर्जयंत - गिरनार शिखर पर अनेक प्रकार के यतिन्द्रों में श्रेष्ठ चतुर्विध संघ सहित श्रुत सागर (शास्त्र सपुर) के परगामी ऐसे धैर्यशाली श्री भद्रबाहु स्वापी को नमस्कार करके नर नाभि सम गुप्तिगुप्त मुनि के द्वारा यतियों के शुद्ध आठ प्रतिष्ठापना के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया ॥२॥३॥ STORIRAL 20 }VATIBIOTI

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