Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 14
________________ - आचार्य भद्रबाह स्वामी ( पंचम श्रुत केवली ) क्रियासार पणमिय वीर जिणिंद तियसिंदणमंसियं विमलणाणं । वोच्छ परमत्थ-पदं जंगम पड्डायण सुद्धं ॥१॥ अन्वयार्थ-(तियसिंद) देवपति इन्द्र के द्वारा (पणमिय) पंदनीय (पीर विणिंद) वीर जिनेन्द्र को (णमंसिय) नमस्कार करके (जंगम) जीवों की (सुद्ध पट्ठायण) शुद्ध प्रतिष्ठापना के (परमस्थ पदं) परमार्थ पद रूप (विमलणाणं) विमल ज्ञान को (वोच्छ) कहूंगा ॥१॥ अर्थ-देवेन्द्रों के द्वारा पंदनीय वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके जगम (संसारी) जीवों की शुम प्रतिष्ठापना के परमार्थ पद स्वरूप निर्मल विशुद्ध ज्ञान को कहूंगा ॥१॥ विशेष-जंगम जीवों की शद्ध प्रतिष्ठा-अर्थात् यहां पर आचार्य प्रवर (ग्रन्थकार) देव आदि के शत इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय, चतुर्निकाय देवों से वन्दनीय ऐसे परमात्मा महावीर जिन को मन षघन काय की शुसि पूर्वक नमस्कार करके जंगम जीव अर्थात् प्राकृत भाषा में जंगम का तात्पर्य चलने वाला, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता हो उसे जमीन महा है 'माग में "पपरालमिया" पद दिया है जिसका अर्थ स्पष्ट होता है कि जो जीव कर्मों के आवरण से संयुक्त है जिसके उदय में जीव एक पर्याय से दूसरे पर्याय में, एक लोक से दूसरे लोक में, एक भव से दूसरे भव में, एक परमाणु मात्र स्थान से दूसरे परमाणु मात्र स्थान में गमन करता है । ऐसे कमांवरण सहित, अशुद्ध प्रतिष्ठापना सहित जीवों के शुस अर्थात् निज, आत्मीय उत्पन्न, कर्मावरण से रहित, राग द्वेष मोहादि विकार भावों से रहित शुद्ध आत्मीय प्रतिष्ठापन के अनन्त ज्ञान आदि निन आस्म सम्पत्ति स्वरूप परमपद में स्थित शुद्ध प्रतिष्ठापना को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं। पह शुद्ध प्रतिष्ठा कैसे होती सो कहते हैं जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्ध-सम्मत्तं । सा होइ बंदणीया णिगंथा संजदा पडिमा ॥११॥ बो. पा. अर्थात् जो निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं जिनश्रुत-जिनागम को जानते हैं, अपने योग्य वस्तु को देखते हैं तथा जिनका सम्यक्त्व शुद्ध है, ऐसे मुनियों का निर्ग्रन्थ शरीर जंगम प्रतिमा है । कह वन्दना करने के योग्य है । यहां ग्रन्थकार जंगम प्रतिमा का वर्णन करते हैं कि जो अतिचार रहित चारित्र का पालन करते हैं, अतिचार की व्याख्या धवलाकार ने इस प्रकार की है : 19 TIMITRA

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