Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 12
________________ ग्रन्थ रचना काल : क्रियासार ग्रन्थ के प्रकाशक आचार्य भद्रबाहु हैं एवं ग्रन्थ के लिपिकार आचार्य गुसिंगुप्त हैं । भद्रबाहु आचार्य का कार्यकाल उपरोक्त प्रमाणाधार पर वीर निर्माण के ४९२ बाई पश्चात् माना गया है। इन्हीं के पश्चात् आचार्य गुप्तिगुप्त संघ ( गण ) की धारण करने वाले गणधर हुए । अहिवल्लि माघणंदि धरसेणं पुप्फवंतं भूदवली । अडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥ प्रा.प. अर्थात् अर्हति (गुप्तिगुप्त ), माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य का कार्यकाल २८, २१, १९, ३० एवं २० वर्ष हैं । इस उल्लेख से गुप्तिगुप्त का समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी तथा वीर निर्माण को छठी शताब्दी होना चाहिए । इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के अनुसार अंगज्ञानी आचार्योपरांत विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त, अलि एवं माघनन्दि, आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं जिनसेन के हरिवंश पुराण में अंगज्ञानी आचार्यों के बाद २५ आचार्यों के नामोल्लेख हैं। इनमें से प्रथम चार विनयघर, गुप्तऋषि, शिवगुप्त एवं अर्हति हैं । ये आचार्य श्रीर निर्वाण की सातवीं सदी के धरसेन आदि के समकालीन माने जा सकते हैं। उपरोक्त नामावली से इन नामावलि के साथ काफी समानता है । के डॉ. ओहरापुरकर के आधार पर आचार्य अर्हद्वलि (गुप्तिगुप्त ) पुष्पदन्त एवं भूतबलि गुरु थे । इस तरह उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर क्रियासार ग्रन्थ का रचनाकाल ईसवी की प्रथम शताब्दी तथा वीर निर्वाण की छठी सातवीं शताब्दी के समकालीन होता है । उपसंहार : डॉ. उदयचन्द्र जैन, उदयपुर प्राकृत के मूर्धन्य विज्ञान हैं। उनका मार्गदर्शन ही क्रियासार के टीका को नया आयाम दे सका है । इस ग्रन्थ की टीका श्री १००८ अतिशय बली श्री पार्श्वनाथ जिनालय में ही प्रारम्भ कर पूर्ण की । आपने संकेत किया हैं। यह ग्रन्थ महान हैं इसके सम्पादन, संशोधन, अनुवादन एवं मुद्रण में भूल रहना स्वाभाविक है अतः विद्वतगण स्वाभाविक धूल-सुधार कर पढ़ें एवं हमें सूचित करें । ग्रन्थ प्रकाशन का त्वरित कार्य गुरूवर्य परमपूज्य या. ब. प्रातः स्मरणीय राष्ट्रसन्त निमित्र ज्ञान शिरोमणी, वात्सल्य रत्नाकर, साहित्य दिवाकर धर्मतीर्थ प्रवर्तक स्याद्वाद केसरी, भारत गौरव, चारित्रोपासक, मेवाड़ सपूत गणधराचार्य १०८ श्री कुन्धुसागरजी महाराज की असीम कृपा एवं आशीर्वाद से ही सब कुछ साध्य हो पाया है। गुरू कृपा ही अलोकिक होती है । उनके चरण कमलों में शतशः शतश: सादर विनय वन्दन करता हुआ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ । मंगलवार, चैत्र वदी पंचमी, वी. नि. सं. २५२२, २१, मार्च, १९९५ सन्तजनों का अनुचर उपाध्याय मुनि सुरदेव सागर

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