________________
उद्देश्य : ग्रन्थ प्रकरण से जिनदोक्षा पूर्णरूपेण निराबाध रूप से धाराप्रवाह के रूप में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त हो तथा टीकाकार से जिनदीक्षा को ग्रहण व प्रदान करते समय विधिवत् सम्पूर्ण आवश्यक क्रियाओं का पालन किया जाय, जिससे की संयम स्थापना व सूरि पद प्रतिष्ठा के पश्चात् संयप में आधा, संघ में गिरावट एवं हीनता का प्रादुर्भाव न हो । जिससे संघाटक संयम एवं संयम धारणकर्ता का किसी भी प्रकार से अहित न
हो ।
आवश्यकता : आवश्यक सम्गृर्ण क्रियाओं के अभाव या होनता में संघ, धर्म, संगम एवं मुमुक्षु भव्य जीन की हानि होती है ।
अस: आवश्यक है, कि दीक्षा दाता पूर्व में सर्वत्र अवलोकन करके सावयव विधिपूर्वक जिनदीक्षा (संयम स्थापना ) प्रदान करें । अन्यथा स्वयं एवं क्रिया विहीन दीक्षा जिनशासन में मान्य नहीं ।
क्रियासार की आवश्यकता: संसार में अनेक प्रकार की क्रियाएं विद्यमान हैं । जिसके द्वारा संसारी आत्माएं कर्मों को निर्जरा क्रमशः कर्मों का अभाव, कमों का आनत्र, कमों का बंध करती हैं । अनेक विध क्रिया समूहों में दान-पूजादि पुण्य क्रियाएं पुण्य को प्रदान करने वाली तथा हिंसा-झूठ आदि पापों को क्रियाएं पाप को प्रदान करने वाली है, किन्तु उन्हीं क्रियाओं के मध्य से उत्पन्न होते हुए कमल पुष्प की समानता को धारण करने वाली-विधि विधान की विशेषता को लिये हुए संयम की प्रतिष्ठापना क्रिया है जिसकी समानता जगति-तल पर किसी क्रिया के द्वारा नहीं की जा सकती है । जिसको संसारी जन आश्चर्य की दृष्टि से देखते हैं । वह संयम अलौकिक हैं, लौकिक जनों की दृष्टि एवं शक्ति से बाह्य है । वह संयम अप्रमेय है, जिसका परिमाप अनंत होने से असंभव है । वह संयप उपमा से रहित अनुपम है तथा वह संयम मुक्ति सुख को प्रदान करने वाली होने से अनन्त सुखों की खान है । इसप्रकार ऐसे अनुपम परमोपकृष्ट संयम की सर्वांग अवयव सहित स्थापना के होने से ही मुमुक्षुजनों के लिए अति आवश्यक ग्रंथ की रूप रेखा का चित्रांकन अनिवार्य है । इसी मुक्ति दायक संयम स्थापना के लक्ष्य से ही क्रिया सार ग्रन्थ को प्रकाशित किया ऐसा प्रतीत होता है 1 तभी आचार्य गुशिगुप्त ने संघ के हित के लिए सम्पूर्ण संघ की साक्षी पूर्षक निज गुरू को नमन - वंदन करते हुए प्रश्न किया | यहाँ समस्त क्रियाओं के सार स्वरूप संयम को प्रधानता दी है ।
PROANIMAL 16 TI