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अर्थ-ज्ञान विहीन जीवन जिनमार्ग को छोड़कर उन्मार्ग में प्रवृत्ति करता हुआ अपने सम्पूर्ण लोक-इहलोक एवं परलोक दोनों लोकों का विनाश करता है 1911
विशेष-ज्ञान से रहित जीवन अज्ञानता के कारण जिन प्रणीत सन्मार्ग को छोड़कर उन्मार्ग कुमार्ग अथवा मिथ्यामार्ग में प्रवृत्ति-आचरण करता है तो वह अपने इस लोक
और परलोक दोनों को बिगाड़ता है अथवा अपना और पर-अन्य लोगों का दोनों का नाश करता है। क्योंकि ज्ञानहीन, विवेकहीन जीव रत्नत्रय से हीन हो जाता है और रत्नत्रय रहित हुआ स्व- पर दोनों घातक होता है । स्वयं का भी अकल्याण करता है और अन्य अश्रित जनों का भी अकल्याण करता है । दूसरे शब्दों में इस लोक में भी निन्दा का पात्र तथा परलोक में भी संगति का बिगाड़ करता है हीनाचार से ॥७॥
अहिंसा की मूर्ति-आचार्य : जम्हा तित्थयराणं उवएसो सव-जीव-दय-करणं । आयरिय मुत्तिणूणं तम्हा सो वण्णिओ समये । ॥
अन्वयार्थ-(जम्हा) जैसे (तित्थयराणं उवएसो) तीर्थकरों का उपदेश (सत्थ्य जीव दय करणं) सम्पूर्ण जीवों की दया का कारण है ( तम्हा) उसी प्रकार की (आयरिय मुत्ति) साक्षात् भूर्ति आचार्य हैं (सो समये) ऐसा उस समय में (पण्णिओ) वर्णित वर्णन किया गया ॥८॥
अर्थ-जिस तरह तीर्थकरों का उपदेश सम्पूर्ण जीव दया का कारण है उसी तरह आचार्य भी प्रत्यक्ष दया की मूर्ति है ऐसा उस समय में वर्णन किया गया है ८ ॥
विशेष-यहां पूर्व में दृष्टान्त के रूप में कहा गया है कि जैसे तीर्थकर परमदेव का उपदेश सपंजीव दया का कारण है । जैसाकि कहा है ।
न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः ॥ स.म. ३/१५२२ __ अर्थात् हित का उपदेश देने के बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक-परम अर्थ सिद्धि को देने वाला उपकार नहीं है ।
क्योंकि: जिण वयण मोसह मिणं, विसय सुह विरेयण अभियभूयं । जर मरण वाहि हरणं, खयकरणम सव्व दुक्खाणं ॥१७|| द. पा.
अर्थ-जिन बचन रूपी औषध विषय सुख का विनेरक, अमृत रूप, जरा मरण की नाशक एवं सर्वदुःखों का क्षय करने वाली है ।
आद पर समुद्धारो आणा वच्छल्ल दीवण्णा भत्ती । होदि परदेसगत्ते अव्वोच्छित्तिय तित्थस्स ॥१११॥ भ.आ.
अर्थात् स्वाध्याय भावना में आसक्त मुनि परोपदेश देकर आत्मा का समुहार, जिन वचनों में भक्ती एवं तीर्थ की अव्युच्छित्ति आदि उत्सम गुणों को प्राप्त कर लेता है । उपदेश के द्वारा सर्व जोषों का कल्याण होता है । निज पर कल्याण होता है । CINEHINDIHIROIRAHINITIA 23 MIRRORI STIA