Book Title: Kriyasara Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar Publisher: Sandip Shah Jaipur View full book textPage 9
________________ होकर आत्म के शुझ स्वरूप में लीन होने से जीवात्मा संयम युक्त होता है । शुद्ध स्वात्मोपलब्धिः स्यात् संयमो निष्क्रियस्य च ॥१११७॥ पं.धं अर्थात् निष्क्रिय आत्मा के स्वशुद्धात्मा की उपलब्धि हो संयम कहलाता है । मकलदेश एवं विकल देश, प्राणि तथा इन्द्रिय संयम के भेद से संयम ३-२ भेदों याला कहा गया है । चारित्र पाझुड में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने “दुखिहं संजपचरणं सायार तह ह गिराया" अर्थात् सागार और अनगार इस प्रकार दो प्रकार के संग्रम का उल्लेख किया हैं । इसी प्रकार मूलाचार में आचार्य श्रेष्ठ ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु बनस्पति तथा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, थार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा करने को प्राणी संयम कहा है । स्मर्शन, रसना, प्राण, चक्षु. कर्ण ये पांच इन्द्रियाँ एवं छठे मन को संयपिन रखने को इन्द्रिय संयम कहा है । क्रियासार ग्रन्थ में संयम की स्थापना के निरूपण को ही बल दिया गया है । जिसमें सर्व संघ हितकारक सूरि पद स्थापना का मूल रूपेण उल्लेख है । क्रियासार में वर्णित विषय : यह ग्रन्थ ८० गाथाओं से सूत्रबद्ध है । जिसमें प्रारम्भ में देवेन्द्रों से वन्दित स्त्री वीर जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है, तत्पश्चात् सिद्धक्षेत्र गिरनार शिखर पर स्थित श्रुत सागर के पारगामी श्री भद्रबाहु स्वामी को सर्वसंघ सानिध्य में नमस्कार करते हुए संयम एवं सूरि पद की स्थापना के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है । तदनन्तर संयम की स्थापना हेतु आचार्य दीक्षा का सावयव पूर्णरूपेण प्रावधान है । इस ग्रन्थ में क्रियाओं के सार स्वरूप एकमात्र संयम की स्थापना से सम्बन्धित जिनदीक्षा एवं आचार्यपद धारण करने की पात्र-अपात्रता (योग्यायोग्यता), दीक्षा के पूर्ष स्वभाव, आचार विचार का सार्णन, दीक्षा के पूर्व की प्राथमिक क्रिया, दीक्षा योग्य काल समयक्षेत्र (स्थान) का परिमाप एवं शुद्धि विधान, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, लग्नबला-बल का विशेष वर्णन आचार्य प्रवर ने किया है तत्पश्चात् दीक्षा प्रदान विधि का वर्णन उल्लिखित है । वर्णित विषयों में एक महत्वपूर्ण विषय का भी उल्लेख किया है जिसमें यदि परगण अर्थात् अन्य संघ का शिष्य यदि आचार्य पद के योग्य अथषा प्रार्थनीय हो तो संघ के सानिध्य में आचार्य प्रथमावस्था में परगण के शिष्य के आचार-विचार आदि प्रवृत्तियों को पूर्णरूपेण अवलोकन करता हुआ पुनः चतुर्विध संघ सानिध्य में नामकरण करता है और अपने संघ में आचार्य के रूप में स्वीकार करता है । भगवती आराधना में आचार्य अमितगति लिखते हैं कि आने वाले मुनि की आचार्य एवं संघस्थ विशिष्ट यति द्वारा परीक्षा की जाती है वह कैसे की जाती है ? तब आचार्यश्री समाधान करते हैं कि-1 LIVE 14 VIIIIIPage Navigation
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