Book Title: Kriyasara
Author(s): Bhadrabahuswami, Surdev Sagar
Publisher: Sandip Shah Jaipur

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Page 8
________________ अतः भद्रबाहु आचार्य का अस्तित्व श्रुतावतार, सरस्वत्याफ्तार डॉ. नेमिचन्द, प्रेमीजी, डॉ. विद्याधर जोहरपुरकर तथा डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल के आधार पर ईसवी शताब्दी के ३५ वर्ष पूर्व या । क्रियासार की विषय वस्तु : समस्त क्रियाओं के सार स्वरूप आचार्य प्रवर ने संयम को स्थान दिया है । पूर्वाचार्यों ने संयम का लक्षण इस प्रकार दिया है : सम्यक् यमो वा नियमः ध.७/२, १,३/७/३ अर्थात् सम्यक प्रकार से यम नियन्त्रण सो संयम है । संयमन करने को संयम कहते हैं तात्पर्य भाष संयम सहित द्रव्य संयम, संयम कहा है । अन्यथा नहीं । पूर्वाचार्यों ने संयम के अनेक भेद किये हैं । उनमें प्रथप व्यवहार संयम एवं द्वितीय निश्चय संयम ।। व्यवहार संयमः पंच समिदि तिगुत्तो पंचेंदिय मंबुडो जिदकसाओ दसणणाण समग्गो समणोसो संजदो भणिदो ॥२४० ।। प्र. सा. अर्थात् पांच समिति सहित पांच इन्द्रियों के संकर (गोपन करने) वाला, तीन गुप्ति सहित कषायों को जीतने पाला एवं दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत (संयम) कहा जाता है । बदसमिदि कसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचाहं । धारण-पालण-णिग्गह-चायजओ संज्मो भणिओ ॥१२७ ॥ पं.सं. अर्थात् पांच महावत को धारण करना, पांच समिति का पालन करना, कषायों ( २५ अथवा ४) का निग्रह करना, मन, वचन, काय रूप तीनों दण्डों का त्याग करना, तथा पांच इन्द्रियों का जीतना (सो) वह संयम कहा गया है । बाह्य आभ्यंतर परिग्रह का त्याग, त्रियोग-रूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारंभ, इन्द्रिय विषयों से विरक्तता, कषाय का क्षय यह सामान्यतः संयम का लक्षण कहा है । विशेषतया प्रव्रज्या अवस्था में होता है । पंच महात्रतादि का धारण पालनादि करना व्यवहार से संयम कहलाता है जो कि पुण्योपार्जन क्रिया कहलाती है। निश्चय संयम : समस्त छह जीव निकाय के घात करने, पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषयाभिलापा से पृथक ANITATISTIAL 13 STARRADITITIOTICS

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