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राजवार्तिक में लिखते हैं-"यथा भाजनविशेष प्रतिप्तानां विविधरसवीज-पुप्प-फलानां मदिराभावेन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि प्रात्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः" । जैसे प्रत्र । विशेष में डाले गए अनेक रसवाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरा म्प
में परिणाम होता है, उसी प्रकार योग तथा कषाय के कारण यात्मा । में स्थिय पुद्गलों का कर्मरूप से परिणमन होता है। 1 समयसार में मदपि कुंदकुंद कहते हैं :
जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गल-कम्पणि मित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥
बंध में निमित्त नैमित्तिकपना-जीव परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल का फर्मरूप से परिणमन होता है। इसी प्रकार पोद्गलिक ग्रामदेशे निमित्त चायावासा सहारीवामन होता है । किशनसिह जी ने क्रियाकोष में कहा हैं :
। सूरज सन्मुख दरपण घरै, रूई ताके आगे करें । unia रवि-दर्पणको तेज मिलाय, अगनि उपज रूई बलि जाय ॥५१॥
नहि अगनी इकली रूइ मांहि, दरपन मध्य कहूँ हैं नाहि । | दुहुनि को संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥५५॥ समयसार का यह फथम मार्मिक है :
ण वि कुब्बइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । श्रणोएण-णिमित्तेण दु परिणाम जाण दोएहपि ॥१॥
' –तात्विक दृष्टि से विचार किया जाय, तो जीव न तो कर्म में गुण करता है और न कर्म ही जीव में कोई गुणा उत्पन्न करता है। जीव तथा पुद्गल का एक दूसरे के निमित्त से विशिष्ट रूप से परिणमन हुधा करता है।
एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्मल-कम्म-क्रयाणं दु कत्ता सव्यभावाणं ॥२॥ र इस कारण से आत्मा अपने भाव का कर्ता है। यह पुद्गल कर्मकृत समस्त भावों का कर्चा नहीं है।