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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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वैभाविक नाम की शक्ति विशेष वश जीव और पुद्गल संयुक्त हो बंधनवद्ध हो जाते हैं। जिस प्रकार चंत्रक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है, उसी प्रकार वैभाविक शक्ति विशिष्ट जीव रागादि भावों के कारण कार्मास वर्गणा तथा आहार, तैजस, भाषा तथा मनोवर्गणा रूप नोकर्मत्रगणाओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा है, कि जिस प्रकार तप्त लोह पिण्ड सर्वांग में जल को खेंचकर आत्मसात् करता है, उसी प्रकार रागादि से संतप्त जीव भी कार्माण तथा नोकार्माण वर्गणाओं को खेचा करता है। अनंतानंत परमाणुओं के प्रचय को वर्गणा कहते हैं । पद्मनंदि पंचविशतिका में कहा है
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धर्माधर्म नमांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते । चत्वापि सहायतामुपगता स्तिष्ठन्ति गत्यादिषु ॥ एक: पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्म-कर्माकृतिः । बैरी बंधकृदेष संप्रति मया भेदासिना खंडितः ॥ २५॥ आलोचना अधिकार
धर्म, अधर्म, आकाश और काल मेरा। तनिक भी अहित नहीं करते हैं। ये गमन, स्थिति आदि कार्यों में मेरी सहायता किया करते हैं । एक मुद्गल द्रव्य ही कर्म और नोकर्म रूप होकर मेरे समीप रहता है । अब मैं बंध के कारण उस कर्म रूप शत्रु का भेद-विचार रूपी तलवार के द्वारा विनाश करता हूँ ।
परिभाषा - परमात्म प्रकाश में कहा है :
विसय कसायहि रंगियहं जे अणुया लभ्यंति । जीव-पएसहं मोहियहं ते जिण कम्म भांति ॥ ६२ ॥ विषय तथा कवयों के कारण आकर्षित होकर जो पुदगल के परमाणु जीव के प्रदेशों में लगकर उसे मोहयुक्त करते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं।
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मुद्गल द्रव्य की तेईस प्रकार की वर्गणाओं में कार्मास वर्गा कर्म रूप होती है तथा आहार, तैजस, भाषा और मनोवर्गणा नोकर्म रूपता को प्राप्त होती हैं। शेष अद्वादश प्रकार का पुद्गल कर्म- नोकर्मरूपता
'वयस्कान्तोपलाकृष्ट सूची यत्तद्द्द्वयोः पृथक् ।
अस्ति शक्तिः विभावाख्या मिथो बंधाधिकारिणी ||पंचा. राष्४२ शा "देोदये सहि जीवो आइदि कम्म-शोकम्मं ।
पचिसमयं सच्च तत्तायस डिभीव्व जलं । गो० क० ३ ॥ परमाहिं अताहि वग्गसरा दु होदि एक्का हु ।। गो. जी. २४४॥
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