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खा जाएँगे तेरे पैसे।' तब सेठ कहतें हैं, उन सभी को, एक-एक को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ, पर क्या करूँ? उस संस्था के चेयरमेन मेरे समधी हैं, इसलिए उनके दबाव से देने पड़े, नहीं तो मैं तो पाँच रुपये भी दूं ऐसा नहीं हूँ!' अब पाँच लाख रुपये दान में दिए उससे बाहर तो लोगों को सेठ के प्रति 'धन्य-धन्य' हो गया, परन्तु वह उनका डिस्चार्ज कर्म था और चार्ज क्या किया सेठ ने? पाँच रुपये भी नहीं दूं! वैसा भीतर सूक्ष्म में उल्टा चार्ज करता है। उससे अगले जन्म में पाँच रुपये भी नहीं दे सकेगा किसीको! और दूसरा गरीब आदमी उसी संस्था के लोगों को पाँच रुपये ही देता है और कहता है कि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सभी दे देता! जो दिल से देता है, वह अगले जन्म में पाँच लाख दे सकेगा। ऐसे ये बाहर दिखता है, वह तो फल है और भीतर सूक्ष्म में बीज पड़ जाते हैं, उसका किसीको भी पता चले ऐसा नहीं है। वह तो अंतर्मुख दृष्टि हो जाए, तब दिखता है। अब यह समझ में आ जाए तो भाव बिगड़ेंगे क्या?
पिछले जन्म में, 'खा-पीकर मज़े करने हैं', ऐसे कर्म बाँधकर लाया, वे संचित कर्म । वे सूक्ष्म में स्टॉक में होते हैं वे फल देने को सम्मुख हों तब जंकफूड(कचरा) खाने को प्रेरित होता है और खा लेता है, वह प्रारब्ध कर्म
और उसका फिर फल आता है यानी कि इफेक्ट का इफेक्ट आता है कि जिससे उसे पेट में मरोड़ उठते हैं, बीमार पड़ जाता है, वह क्रियमाण कर्म।
परम पूज्य दादाश्री ने कर्म के सिद्धांत से भी आगे 'व्यवस्थित' शक्ति को जगत् नियंता' कहा है, कर्म तो जिसका अंश मात्र कहलाता है। व्यवस्थित' में कर्म समा जाते हैं, परन्तु कर्म में 'व्यवस्थित' नहीं समाता। कर्म तो बीज स्वरूप में हम पूर्वजन्म में से सूक्ष्म में बाँधकर लाए हैं, वे हैं। अब उतने से कुछ नहीं होता। उस कर्म का फल आए मतलब कि बीज में से पेड़ होता है और फल आते हैं, तब तक दूसरे कितने ही संयोगों की उसमें ज़रूरत पड़ती है। बीज के लिए जमीन, पानी, खाद, ठंड, ताप, टाइम, सभी संयोगो के इकट्ठे होने के बाद फिर आम का पेड़ बनता है और आम मिलते हैं। दादाश्री ने बहुत ही सुंदर खुलासा किया है कि ये सब तो फल हैं। कर्मबीज तो भीतर सूक्ष्म में काम करते हैं।