Book Title: Karma Ka Vignan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ ९ कर्म का विज्ञान से कर्म बांधता है और देह के माध्यम से कर्म छोड़ता है? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। आत्मा तो इसमें हाथ डालता ही नहीं है। वास्तव में तो आत्मा अलग ही है, स्वतंत्र है। विशेषभाव से ही यह अहंकार खड़ा होता है और वह कर्म बांधता है और वही कर्म भुगतता है। 'आप हो शुद्धात्मा' परन्तु बोलते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ।' जहाँ खुद नहीं है, वहाँ आरोप करना कि 'मैं हूँ, वह अहंकार कहलाता है। पराये के स्थान को खुद का स्थान मानता है, वह इगोइज़म है। यह अहंकार छूटे तो खुद के स्थान में आया जा सकता है। वहाँ बंधन है ही नहीं। कर्म अनादि से आत्मा के संग प्रश्नकर्ता : तो आत्मा की कर्म रहित स्थिति होती होगी न? वह कब होती है? दादाश्री : जिसे एक भी संयोग की वळगणां (पाश, बंधन) नहीं हो न, उसे कर्म चिपकते ही नहीं कभी भी। जिसे किसी भी प्रकार की वळगणां नहीं होती, उसे ऐसा किसी भी प्रकार का कर्म का हिसाब नहीं है कि उसे कर्म चिपकें। अभी सिद्धगति में जो सिद्ध भगवंत हैं, उन्हें किसी प्रकार के कर्म नहीं चिपकते हैं। वळगणां खत्म हो गई कि चिपकते नहीं। ___ यह तो संसार में वळगणां खड़ी हो गई है और वह अनादि काल की कर्म की वळगणां है। और वह साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स से है सारा। सभी तत्व गतिमान होते रहते हैं और तत्वों के गतिमान होने से ही यह सब खड़ा हुआ है। यह सारी भ्रांति उत्पन्न हुई है। उससे ये सभी विशेष भाव उत्पन्न हुए हैं। भ्रांति का मतलब ही विशेषभाव। उसका मूल जो स्वभाव था, उसके बदले विशेषभाव उत्पन्न हुआ और उसके कारण यह सारा बदलाव हुआ है। यानी पहले आत्मा कर्म रहित था, ऐसा कभी हुआ ही नहीं। यानी कि वह जब ज्ञानी पुरुष के पास आता है, तब काफी कुछ कर्म का बोझ हल्का हो चुका होता है और हल्के कर्मवाला हो चुका होता है। हल्के कर्मवाला है तभी तो ज्ञानी पुरुष मिलते हैं। मिलते हैं, वह भी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं। खुद के प्रयत्न से

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94