Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान कथित
कर्म का विज्ञान
きく
(६)
€8
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान कथित
कर्म का विज्ञान
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन अनुवाद : महात्मागण
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक : अजीत सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन
उस्मानपुरा,
'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
प्रथम संस्करण : ३००० प्रतियाँ,
भाव मूल्य : 'परम विनय' और 'मैं' कुछ
द्रव्य मूल्य : २५ रुपये
मुद्रक
लेसर कम्पोज़ : दादा भगवान फाउन्डेशन,
मई २०११
भी जानता नहीं', यह भाव !
अहमदाबाद
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८० ०१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रिमंत्र
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
(दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान २०. पति-पत्नी का दीव्य २. सर्व दु:खों से मुक्ति
व्यवहार ३. कर्म का सिद्धांत
२१. माता-पिता और बच्चों का ४. आत्मबोध
व्यवहार ५. मैं कौन हूँ?
२२. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर २३. दान स्वामी
२४. मानव धर्म ७. भूगते उसी की भूल २५. सेवा-परोपकार ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर २६. मृत्यु समये, पहेला और ९. टकराव टालिए
पश्चात १०. हुआ सो न्याय
२७. निजदोष दर्शन से... निर्दोष ११. चिंता
२८. प्रेम १२. क्रोध
२९. क्लेष रहित जीवन १३. प्रतिक्रमण
३०. अहिंसा १४. दादा भगवान कौन ? ३१. सत्य-असत्य के रहस्य १५. पैसों का व्यवहार
३२. चमत्कार १६. अंत:करण का स्वरूप ३३. पाप-पुण्य १७. जगत कर्ता कौन ? ३४. वाणी, व्यवहार में... १८. त्रिमंत्र
३५. कर्म का विज्ञान १९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म ३६. आप्तवाणी-१और ४
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी ५५ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
दादा भगवान कौन ?
जून १९५८ की एक संध्या का करीब छः बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। ‘मैं कौन? भगवान | कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करनेवाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से । उसे अक्रम मार्ग कहा । अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना । अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट !
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है । हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं | दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं । वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
‘व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
5
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं। ___ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवेदन परम पूज्य ‘दादा भगवान' के प्रश्नोत्तरी सत्संग में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। उसी साक्षात सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो हम सबके लिए वरदानरूप साबित होगी।
प्रस्तुत अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के मापदण्ड पर शायद पूरी न उतरे, परन्तु पूज्य दादाश्री की गुजराती वाणी का शब्दशः हिन्दी अनुवाद करने का प्रयत्न किया गया है, ताकि वाचक को ऐसा अनुभव हो कि दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है। फिर भी दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है। अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
पाठकों से... इस पुस्तक में मुद्रित पाठ्यसामग्री मूलतः गुजराती 'कर्म का विज्ञान' का हिन्दी रुपांतर है। इस पुस्तक में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में किया गया है। जहाँ-जहाँ पर 'चंदूलाल' नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ-वहाँ पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें। पुस्तक में अगर कोई बात आप समझ न पाएँ तो प्रत्यक्ष सत्संग में
पधारकर समाधान प्राप्त करें। * दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों
'इटालिक्स' में रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालाँकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द () में अर्थ के रूप में दिये गये हैं। ऐसे सभी शब्द और शब्दार्थ पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
संपादकीय अकल्पित, अनिर्धारित घटनाएँ अक्सर टी.वी. अथवा अखबार से जानने को मिलती हैं। जैसे कि प्लेन क्रेश हुआ और ४०० लोग मर गए, बड़ा बम ब्लास्ट हुआ, आग लगी, भूकंप, तूफ़ान आए, हज़ारों लोग मारे गए! कितने ही एक्सिडेन्ट में मारे गए, कुछ रोग से मरे और कुछ जन्म लेते ही मर गए! कुछ लोगों ने आत्महत्या की भूखमरी के कारण! धर्मात्मा काली करतूतें करते हुए पकड़े गए, कितने ही भिखारी भूखे मर गए! जब कि संत, भक्त, ज्ञानी जैसे उच्च महात्मा निजानंद में जी रहे हैं! हररोज़ दिल्ली के कांड पता चलते हैं, ऐसे समाचारों से हरएक मनुष्य के हृदय में एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है कि इसका रहस्य क्या है? इसके पीछे कोई गुह्य कारण होगा? निर्दोष बालक जन्म लेते ही क्यों अपंग हुआ? हृदय द्रवित हो जाता है, खूब मंथन करने के बावजूद समाधान नहीं मिल पाता और अंत में अपने-अपने कर्म हैं, ऐसा मानकर, असमाधान को प्राप्त भारी मन के साथ चुप हो जाते हैं! कर्म हैं ऐसा कहते हैं, फिर भी कर्म क्या होता होगा? किस तरह से बँधता होगा? उसकी शुरूआत क्या है? पहला कर्म कहाँ से शुरू हुआ? कर्म में से मुक्ति मिल सकती है? कर्म के भुगतान को टाला जा सकता है? भगवान करते होंगे या कर्म करवाता होगा? मृत्यु के बाद क्या? कर्म कौन बाँधता होगा! भुगतता है कौन? आत्मा या देह?
अपने लोग कर्म किसे कहते हैं? काम-धंधा करें, सत्कार्य करें, दानधर्म करें, उन सबको 'कर्म किया' कहते हैं, ज्ञानी उसे कर्म नहीं कहते परन्तु कर्मफल कहते हैं। जो पाँच इन्द्रियों से देखे जा सकते हैं, अनुभव किए जा सकते हैं, वे सभी स्थूल में हैं वे कर्मफल यानी कि डिस्चार्ज कर्म कहलाते हैं। पिछले जन्म में जो चार्ज किया था, वह आज डिस्चार्ज में आया, रूपक में आया और अभी जो नया कर्म चार्ज कर रहे हैं, वह तो सूक्ष्म में होता है, उस चार्जिंग पोइन्ट का किसीको भी पता चले ऐसा नहीं है।
एक सेठ के पास एक संस्थावाले ट्रस्टी धर्मार्थ दान देने के लिए दबाव डालते हैं, इसलिए सेठ पाँच लाख रुपये दान में देते हैं। उसके बाद उस सेठ के मित्र सेठ से पूछते हैं कि 'अरे, इन लोगों को तूने क्यों दिए? ये सब चोर हैं,
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
खा जाएँगे तेरे पैसे।' तब सेठ कहतें हैं, उन सभी को, एक-एक को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ, पर क्या करूँ? उस संस्था के चेयरमेन मेरे समधी हैं, इसलिए उनके दबाव से देने पड़े, नहीं तो मैं तो पाँच रुपये भी दूं ऐसा नहीं हूँ!' अब पाँच लाख रुपये दान में दिए उससे बाहर तो लोगों को सेठ के प्रति 'धन्य-धन्य' हो गया, परन्तु वह उनका डिस्चार्ज कर्म था और चार्ज क्या किया सेठ ने? पाँच रुपये भी नहीं दूं! वैसा भीतर सूक्ष्म में उल्टा चार्ज करता है। उससे अगले जन्म में पाँच रुपये भी नहीं दे सकेगा किसीको! और दूसरा गरीब आदमी उसी संस्था के लोगों को पाँच रुपये ही देता है और कहता है कि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सभी दे देता! जो दिल से देता है, वह अगले जन्म में पाँच लाख दे सकेगा। ऐसे ये बाहर दिखता है, वह तो फल है और भीतर सूक्ष्म में बीज पड़ जाते हैं, उसका किसीको भी पता चले ऐसा नहीं है। वह तो अंतर्मुख दृष्टि हो जाए, तब दिखता है। अब यह समझ में आ जाए तो भाव बिगड़ेंगे क्या?
पिछले जन्म में, 'खा-पीकर मज़े करने हैं', ऐसे कर्म बाँधकर लाया, वे संचित कर्म । वे सूक्ष्म में स्टॉक में होते हैं वे फल देने को सम्मुख हों तब जंकफूड(कचरा) खाने को प्रेरित होता है और खा लेता है, वह प्रारब्ध कर्म
और उसका फिर फल आता है यानी कि इफेक्ट का इफेक्ट आता है कि जिससे उसे पेट में मरोड़ उठते हैं, बीमार पड़ जाता है, वह क्रियमाण कर्म।
परम पूज्य दादाश्री ने कर्म के सिद्धांत से भी आगे 'व्यवस्थित' शक्ति को जगत् नियंता' कहा है, कर्म तो जिसका अंश मात्र कहलाता है। व्यवस्थित' में कर्म समा जाते हैं, परन्तु कर्म में 'व्यवस्थित' नहीं समाता। कर्म तो बीज स्वरूप में हम पूर्वजन्म में से सूक्ष्म में बाँधकर लाए हैं, वे हैं। अब उतने से कुछ नहीं होता। उस कर्म का फल आए मतलब कि बीज में से पेड़ होता है और फल आते हैं, तब तक दूसरे कितने ही संयोगों की उसमें ज़रूरत पड़ती है। बीज के लिए जमीन, पानी, खाद, ठंड, ताप, टाइम, सभी संयोगो के इकट्ठे होने के बाद फिर आम का पेड़ बनता है और आम मिलते हैं। दादाश्री ने बहुत ही सुंदर खुलासा किया है कि ये सब तो फल हैं। कर्मबीज तो भीतर सूक्ष्म में काम करते हैं।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुतों को यह प्रश्न होता है कि पहला कर्म किस तरह बँधा? पहले देह या पहले कर्म? पहले अंडा या पहले मुर्गी? इसके जैसी यह बात हुई! सचमुच वास्तविकता में पहले कर्म' जैसी वस्तु ही नहीं है वर्ल्ड में कोई! कर्म
और आत्मा सब अनादिकाल से हैं। जिन्हें हम कर्म कहते हैं, वह जड़ तत्व का है और आत्मा चेतन तत्व है। दोनों तत्व अलग ही हैं और तत्व अर्थात् सनातन वस्तु कहलाती है। जो सनातन है, उसकी आदि कहाँ से? यह तो आत्मा और जड़ तत्व का संयोग हुआ, और उसमें आरोपित भावों का आरोपण होता ही रहा। उसका यह फल आकर खड़ा हुआ। संयोग वियोगी स्वभाव के हैं। इसलिए संयोग आते हैं और जाते हैं। इसलिए तरह-तरह की अवस्थाएँ खड़ी हो जाती हैं और चली जाती हैं। उसमें रोंग बिलीफ़ खड़ी हो जाती है कि यह मैं हूँ और यह मेरा है।' उससे यह रूपी जगत् भास्यमान होता है। यह रहस्य समझ में आए, तो शुद्धात्मा और संयोग दो ही वस्तुएँ हैं जगत् में। इतना नहीं समझने से तरह-तरह की स्थूल भाषा में कर्म, नसीब, प्रारब्ध सब कहना पड़ा है। परन्तु विज्ञान इतना ही कहता है, मात्र जो सभी संयोग हैं, उनमें से पर हो जाए तो आत्मा में ही रह सकता है! तब फिर कर्म जैसा कुछ रहेगा ही नहीं।
कर्म किस तरह बँधते हैं? कर्त्ताभाव से कर्म बँधते हैं। कर्त्ताभाव किसे कहते हैं? करे कोई, और मानता है कि मैं करता हूँ', वह कर्त्ताभाव। कर्त्ताभाव किससे होता है? अहंकार से। अहंकार किसे कहते हैं?
जो खुद नहीं है, वहाँ मैं पन' का, उसका नाम अहंकार। आरोपित भाव, वह अहंकार कहलाता है। मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा मानता है, वही अहंकार है। वास्तव में खुद चंदूलाल है? या चंदूलाल नाम है? नाम को 'मैं' मानता है, शरीर को 'मैं' मानता है, मैं पति हूँ, ये सभी रोंग बिलीफ़ हैं। वास्तव में तो खुद
10
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्मा ही है, शुद्धात्मा ही है, परन्तु उसका भान नहीं, ज्ञान नहीं, इसलिए मैं चंदूलाल, मैं ही देह हूँ ऐसा मानता है। यही अज्ञानता है ! और इससे ही कर्म बँधते हैं।
छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म, नहीं भोक्ता तू तेहनो ए छे धर्मनो मर्म।- श्रीमद् राजचंद्र। जो तू जीव तो कर्त्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी।
अखा भगत। 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा भान है उसे जीवदशा कहा है और मैं चंदूलाल नहीं हूँ परन्तु वास्तव में मैं तो शुद्धात्मा हूँ, उसका भान, ज्ञान बरते उसे शिवपद कहा है। खुद ही शिव है, आत्मा ही परमात्मा है और उसका स्वभाव कोई भी संसारी चीज़ करने का नहीं है। स्वभाव से ही आत्मा अक्रिय है, असंग है। मैं आत्मा हूँ' और मैं कुछ भी नहीं करता हूँ', ऐसा निरंतर ध्यान में रहे उन्हें ज्ञानी कहा है और उसके बाद फिर एक भी नया कर्म नहीं बँधता। पुराने डिस्चार्ज कर्म फल देकर खत्म होते रहते हैं।
जो कर्मबीज पिछले जन्म में बोते हैं, उन कर्मों का फल इस जन्म में आता है। तब ये फल कौन देता है? भगवान? नहीं। वह कुदरत देती है। जिसे परम पूज्य दादाश्री साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स – 'व्यवस्थित शक्ति' कहते हैं। जिस चार्ज का डिस्चार्ज नेचरली और ऑटोमेटिकली होता है। उस फल को भोगते समय अज्ञानता के कारण फिर से पसंद-नापसंद, राग-द्वेष किए बगैर रहता नहीं है। जिससे नए बीज डालता है। जिसका फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। ज्ञानी नया बीज डालने से रोकते हैं, जिससे पिछले फल पूरे होकर मोक्षपद की प्राप्ति होती है!
___ कोई अपना अपमान करे, नुकसान करे, वह तो निमित्त है, निर्दोष है। बिना कारण के कार्य में किस तरह आएगा? खुद अपमानित होने के कारण बाँधकर लाया है उसका फल, उसका इफेक्ट आकर खड़ा रहता है, तब उसके लिए दूसरे कितने ही दिखनेवाले निमित्त उसमें इकट्ठे होने चाहिए। सिर्फ बीज से ही फल नहीं बनता, परन्तु सारे ही निमित्त इकट्ठे
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
हों, तब तो बीज में से वृक्ष बनता है और फल चखने को मिलता है। इसलिए ये जो फल आते हैं, उनमें दूसरे निमित्तों के बिना फल किस तरह आएगा? अपमान खाने का बीज हमने ही बोया है, उसीका फल आता है, अपमान मिले उसके लिए दूसरे निमित्त मिलने ही चाहिए। अब उन निमित्तों को दोषी देखकर कषाय करके मुनष्य अज्ञानता से नये कर्म बाँधता है और ज्ञान हाज़िर रहे कि सामनेवाला निमित्त ही है, निर्दोष है और यह अपमान मिल रहा है वह मेरे ही कर्म का फल है, तो नया कर्म नहीं बँधेगा और उतना ही मुक्त रहा जा सकेगा। और सामनेवाला दोषित दिख जाए तो तुरन्त ही उसे निर्दोष देखें, और दोषी देखा उसके लिए प्रतिक्रमण शूट एट साइट कर दें, जिससे बीज भुन जाए और उगे ही नहीं।
अन्य सभी निमित्त इकट्ठे होकर खुद के डाले हुए बीज का फल आना और खुद को भुगतना पड़े, वह पूरा प्रोसेस ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं और उसे ही दादाश्री ने कहा है कि 'व्यवस्थित शक्ति' फल देती है।
_ 'ज्ञानी पुरुष' परम पूज्य श्री दादा भगवान ने खुद के ज्ञान में अवलोकन करके दुनिया को 'कर्म का विज्ञान' दिया है, जो दादाश्री की वाणी में यहाँ संक्षिप्त में पुस्तक के रूप में रखा गया है, जो पाठक को जीवन में उलझानेवाली पहलियों के सामने समाधानकारी हल देगा!
___- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
करते हैं या करना पड़ता है? दादाश्री : तेरे साथ कभी ऐसा होता है कि तेरी इच्छा न हो फिर भी तुझे वैसा कुछ करना पड़े? ऐसा कुछ होता है तुझे कभी? ऐसा होता है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ। ऐसा होता है।
दादाश्री : लोगों को होता होगा या नहीं? उसका क्या कारण है कि इच्छा नहीं हो और करना पड़ता है? वह पूर्वकर्म किया हुआ है, उसका यह इफेक्ट आया। बरबस होकर करते हैं, उसका क्या कारण है?
जगत् के लोग इस इफेक्ट को ही कॉज़ कहते हैं और उस इफेक्ट को तो समझते ही नहीं न! इस जगत् के लोग इसे कॉज़ कहते हैं, तो हम कहते नहीं कि मेरी इच्छा नहीं है फिर भी किस तरह यह कार्य किया मैंने? अब जिसकी इच्छा नहीं वह कर्म 'मैंने किया', ऐसा किस तरह कहते हो? क्योंकि जगत् किसलिए कहता है उसे, 'आपने कर्म किया' ऐसा? क्योंकि दिखनेवाली क्रिया को ही लोग 'कर्म किया' कहते हैं। लोग कहेंगे कि, 'यह इसने ही कर्म बाँधा।' जब कि ज्ञानी उसे समझ जाते हैं कि यह तो परिणाम आया।
किसने भेजा पृथ्वी पर? प्रश्नकर्ता : हमने अपने आप जन्म लिया है या हमें कोई भेजनेवाला
है?
दादाश्री : कोई भेजनेवाला है नहीं। आपके कर्म ही आपको ले
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान जाते हैं। और तुरन्त ही वहाँ जन्म मिलता है। अच्छे कर्म हों तो अच्छी ही जगह पर जन्म होता है, खराब कर्म हों तो खराब जगह पर होता है।
कर्म का सिद्धांत क्या? प्रश्नकर्ता : कर्म की परिभाषा क्या है?
दादाश्री : कोई भी कार्य करो, उसे 'मैं करता हूँ' ऐसा आधार दो, वह कर्म की परिभाषा है। 'मैं करता हूँ' ऐसा आधार दें, उसे 'कर्म बाँधा' कहा जाता है। 'मैं नहीं करता' और 'कौन करता है' वह जान लो, तो इसे निराधार करते हो न, तब कर्म गिर जाता है।
प्रश्नकर्ता : कर्म का सिद्धांत यानी क्या?
दादाश्री : तू बावड़ी में अंदर जाकर बोले कि 'तू चोर है' तब बावड़ी क्या बोलेगी?
प्रश्नकर्ता : 'तू चोर है।' ऐसे हमारे बोले हुए की प्रतिध्वनि आती
दादाश्री : बस, बस। यदि तुझे यह पसंद नहीं हो, तो तू कहना कि 'तू बादशाह है।' तब वह तुझे 'बादशाह' कहेगी। तुझे पसंद हो, वैसा कहना, यह कर्म का सिद्धांत ! तुझे वकालत पसंद हो तो वकालत कर। डॉक्टरी पसंद हो तो डॉक्टरी कर। कर्म अर्थात् एक्शन। रिएक्शन अर्थात् क्या? वह प्रतिध्वनि है। रिएक्शन प्रतिध्वनिवाला है। उसका फल आए बगैर रहता नहीं।
वह बावड़ी क्या कहती है? कि यह पूरा जगत् अपना ही प्रोजेक्ट है। जिसे आप कर्म कहते थे न, वह प्रोजेक्ट है।
प्रश्नकर्ता : कर्म का सिद्धांत है या नहीं?
दादाश्री : पूरा जगत् कर्म का सिद्धांत ही है, दूसरा कुछ है ही नहीं। और आपकी ही जोखिमदारी से बंधन है। यह सारा प्रोजेक्शन आपका ही है। यह देह भी आपने ही गढ़ा है। आपको जो-जो मिलता है, वह सारा आपका ही गढ़ा हुआ है। उसमें दूसरे किसीका हाथ ही नहीं। होल एन्ड
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
सोल रिस्पोन्सिबिलिटी आपकी ही है सारी, अनंत जन्मों से।
अपना ही 'प्रोजेक्शन' बावड़ी में जाकर प्रोजेक्ट करें, उस पर से लोग ऐसा कहेंगे कि बस, प्रोजेक्ट करने की ही ज़रूरत है। हम पूछे कि किसलिए ऐसा कहते हो? तब कहेंगे कि बावड़ी में जाकर मैं पहले बोला था कि, 'तू चोर है।' तो बावड़ी ने मुझे ऐसा कहा कि, 'तू चोर है।' फिर मैंने प्रोजेक्ट बदला कि, 'तू राजा है।' तो उसने भी 'राजा' कहा। तो भाई, वह प्रोजेक्ट तेरे हाथ में है ही कहाँ फिर? प्रोजेक्ट को बदलना, वह बात तो सच्ची है, पर फिर वह तेरे हाथ में नहीं है। हाँ, स्वतंत्र है भी और नहीं भी। 'नहीं' अधिक है और 'है' कम है। ऐसा यह परसत्तावाला जगत् है। सच्चा ज्ञान जानने के बाद स्वतंत्र है, नहीं तो तब तक स्वतंत्र नहीं है।
परन्तु अब प्रोजेक्ट बंद कैसे हो? खुद का स्वरूप जब तक मिले नहीं इनमें से कि 'मैं यह हूँ या वह हूँ?' तब तक भटकना है। यह देह मैं नहीं हूँ। ये आँखें भी मैं नहीं हूँ। अंदर दूसरे बहुत सारे स्पेयरपार्ट्स हैं, उन सभी में 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा अभी तक भान है। ये सार नहीं निकाल सकते, इसलिए वे क्या समझते हैं? यह त्याग करता हूँ, वही मैं हूँ। इसलिए 'मैं' तो किसी भी ठिकाने पर नहीं रहा उसे। वह समझता है कि यह तप करता है, वही 'मैं' हूँ। यह सामायिक करता है वही 'मैं' हूँ। यह व्याख्यान देता है, वही 'मैं' हूँ। 'मैं करता हूँ' ऐसा भान है तब तक नया प्रोजेक्ट करता रहता है। पुराने प्रोजेक्ट के अनुसार भुगतता रहता है। कर्म का सिद्धांत समझें न, तो मोक्ष का सिद्धांत जान जाएँ।
रोंग बिलीफ़ से कर्मबंधन आपका नाम क्या है? प्रश्नकर्ता : चंदूभाई। दादाश्री : सचमुच में चंदूभाई हो? प्रश्नकर्ता : ऐसा कैसे कहा जा सकता है? सभी को जो लगता
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
कर्म का विज्ञान
है, वही सच है।
दादाश्री : तो फिर वास्तव में तो चंदूभाई हो, नहीं? आपको विश्वास नहीं है? ‘माइ नेम इज़ चंदूभाई' बोलते हो आप तो?
प्रश्नकर्ता : मुझे तो विश्वास है ही ।
दादाश्री : माइ नेम इज़ चंदूभाई, नोट आइ । तो आप वास्तव में चंदूभाई हो या कोई और हो ?
प्रश्नकर्ता : यह ठीक है, कुछ अलग ही हैं । यह तो हक़ीक़त है। दादाश्री : नहीं, यह चंदूभाई तो पहचानने का साधन है, कि भाई, ये देहवाले, ये भाई, ये चंदूभाई हैं । आप भी ऐसा समझते हो कि इस देह का नाम चंदूभाई है। परन्तु 'आप कौन हो ?' वह नहीं जानना है?
प्रश्नकर्ता : वह जानना चाहिए। जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
दादाश्री : यानी यह किसके जैसा हुआ कि आप चंदूभाई नहीं हो, फिर भी आप आरोप करते हो, चंदूभाई के नाम से सारा लाभ उठा लेते हो। इस स्त्री का पति हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ, ऐसे लाभ उठाते हो और उससे निरंतर कर्म बँधते ही रहते हैं । आप आरोपित भाव में हो, तब तक कर्म बँधते रहते हैं । जब कि 'मैं कौन हूँ?' वह तय हो जाने के बाद आपको कर्म नहीं बँधते हैं।
यानी अभी भी कर्म बँध रहे हैं और रात को नींद में भी कर्म बँधते हैं। क्योंकि 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा मानकर सोते हैं । 'मैं चंदूभाई हूँ', वह आपकी रोंग बिलीफ़ है, उससे कर्म बँधते हैं ।
भगवान ने सबसे बड़ा कर्म कौन - सा कहा ? रात को 'मैं चंदूभाई हूँ' कहकर सो गए और फिर आत्मा को बोरे में डाल दिया, वह सबसे बड़ा कर्म!
कर्त्तापद से कर्मबंधन
प्रश्नकर्ता : कर्म किससे बँधते हैं? इसे ज़रा अधिक समझाइए ।
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
दादाश्री : कर्म किससे बँधते हैं, वह आपको बताऊँ। कर्म आप करते नहीं, फिर भी आप मानते हो कि 'मैं करता हूँ', इसलिए आपका बंधन जाता नहीं है। भगवान भी कर्ता नहीं है। भगवान कर्ता होते तो उन्हें बंधन होता। यानी भगवान कर्ता नहीं हैं और आप भी कर्त्ता नहीं हो। परन्तु आप मानते हो 'मैं करता हूँ', उससे कर्म बँधते हैं।
कॉलेज में पास हुए, वह दूसरी शक्ति के आधार पर होता है और आप कहते हो कि मैं पास हुआ। वह आरोपित भाव है। उससे कर्म बँधते
वेदांत ने भी स्वीकार किया निरीश्वरवाद प्रश्नकर्ता : तो फिर किसी शक्ति से होता होगा, तो कोई चोरी करे तो वह गुनाह नहीं और कोई दान दे तो वह भी, सब समान ही कहलाएगा न!
दादाश्री : हाँ। समान ही कहलाएगा, लेकिन वे फिर समान रखते नहीं है। दान देनेवाला ऐसे छाती फुलाकर घूमता है, इसीलिए तो बँधा और चोरी करनेवाला कहता है, 'मुझे कोई पकड़ ही नहीं सकता, अच्छे-अच्छों के यहाँ चोरी कर लूँ।' इसलिए मुआ वह बँधा। 'मैंने किया' ऐसा कहे नहीं, तो कुछ भी छुए नहीं।
प्रश्नकर्ता : ऐसी एक मान्यता है कि प्राथमिक कक्षा में हम ऐसा मानते हैं कि ईश्वर कर्ता हैं। आगे जाकर निरीश्वरवाद के सिवाय वेद में भी कुछ नहीं है। उपनिषद में भी निरीश्वरवाद ही है। ईश्वर कर्त्ता नहीं है, कर्म के फल हरएक को भुगतने पड़ते हैं। अब ये कर्मों के फल जन्मोजन्म चलते रहते हैं?
दादाश्री : हाँ, ज़रूर, कर्म का ऐसा है न कि यह आम में से पेड़ और पेड़ में से आम, आम में से पेड़ और पेड़ में से आम!
प्रश्नकर्ता : यह तो उत्क्रांति का नियम हुआ, यह तो होता ही रहेगा। दादाश्री : नहीं, यही कर्मफल है। यह आम फल के रूप में आया,
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान उस फल में से बीज गिरता है और वापिस पेड़ बनता है और पेड़ में से वापिस फल बनता है न! वह चलता ही रहेगा, कर्म में से कर्मबीज गिरते ही रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो फिर ये शुभ-अशुभ कर्म बंधते ही रहते हैं, छूटते ही नहीं?
दादाश्री : हाँ, ऊपर से गूदा खा लेते हैं और गुठली वापिस डलती
प्रश्नकर्ता : उससे तो वहाँ फिर से आम का पेड़ उत्पन्न होगा। दादाश्री : छूटेगा ही नहीं न!
यदि आप ईश्वर को कर्त्ता मानते हो तो आप अपने आप को कर्त्ता किसलिए मानते हो? यह तो वापिस खुद भी कर्ता बन बैठता है! सिर्फ मनुष्य ही ऐसा है कि जो 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भान रखता है, और जहाँ कर्ता बना वहाँ आश्रितता टूट जाती है। उसे भगवान कहते हैं कि, 'भाई, तू कर लेता है तो तू अलग और मैं अलग।' फिर भगवान का और आपका क्या लेना-देना?
खुद को कर्त्ता मानता है, इसलिए कर्म बंधन होता है। खुद को यदि उस कर्म का कर्त्ता नहीं माने तो कर्म का विलय होता है।
यह है महाभजन का मर्म इसलिए अखा भगत ने कहा है कि,
'जो तू जीव तो कर्त्ता हरि,
जो तू शिव तो वस्तु खरी!' अर्थात् यदि 'तू शुद्धात्मा है' तो सच्ची बात है। और यदि 'जीव है', तो ऊपर कर्त्ता हरि है। और यदि 'तू शिव है' तो वस्तु खरी है। ऊपर हरि नाम का कोई है ही नहीं। यानी जीव-शिव का भेद गया तब परमात्मा होने की तैयारी हुई। ये सभी भगवान को भजते हैं, वह जीव-शिव का
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
भेद है और अपने यहाँ यह ज्ञान मिलने के बाद जीव-शिव का भेद गया।
‘कर्ता छूटे तो छूटे कर्म,
ए छे महाभजननो मर्म!' चार्ज कब होता है कि, 'मैं चंदूभाई हूँ और यह मैंने किया।' यानी जो उल्टी मान्यता है उससे कर्म बँध गया। अब आत्मा का ज्ञान मिले तो 'आप' चंदूभाई नहीं हो। चंदूभाई तो व्यवहार से, निश्चय से वास्तव में नहीं हो और यह 'मैंने किया', वह व्यवहार से है। इसलिए कर्त्तापन मिट जाए तो कर्म फिर छूट जाते हैं, कर्म नहीं बँधते।
'मैं कर्त्ता नहीं' वह भान हुआ, वह श्रद्धा बैठी, तब से कर्म छूटे, कर्म बँधने से रुक गए। यानी चार्ज होना बंद हो गया। वह है महाभजन का मर्म । महाभजन किसे कहा जाता है? सर्व शास्त्रों के सार को महाभजन कहा जाता है। वह तो महाभजन का भी सार है।
करे वही भुगते प्रश्नकर्ता : हमारे शास्त्र ऐसा कहते हैं कि हर एक को कर्म के अनुसार फल मिलता है!
दादाश्री : वह तो खुद ही अपने लिए जिम्मेदार है। भगवान ने इसमें हाथ डाला ही नहीं। बाक़ी, इस जगत् में आप स्वतंत्र ही हो। ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) कौन है? आपको अन्डरहेन्ड की आदत है इसलिए आपको ऊपरी मिलते हैं, नहीं तो आपका कोई ऊपरी नहीं है और आपका कोई अन्डरहेन्ड नहीं है, ऐसा यह वर्ल्ड है! इसे तो समझने की ज़रूरत है, और कुछ है नहीं।
पूरे वर्ल्ड में सब जगह घूम आया, ऐसी कोई जगह नहीं है कि जहाँ पर ऊपरीपन हो। भगवान नाम का आपका कोई ऊपरी है नहीं। आपके जोखिमदार आप खुद ही हो। पूरे वर्ल्ड के लोग मानते हैं कि जगत् भगवान ने बनाया। परन्तु जो पुनर्जन्म का सिद्धांत समझते हैं उनसे ऐसा नहीं माना जा सकता कि भगवान ने बनाया है। पुनर्जन्म अर्थात् क्या कि 'मैं करता
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान हूँ और मैं भोगता हूँ। और मेरे ही कर्मों का फल भुगतता हूँ। इसमें भगवान की दख़ल है ही नहीं।' खुद जो कुछ करता है, खुद की ज़िम्मेदारी पर ही यह सब किया जाता है, किसकी ज़िम्मेदारी पर है यह? समझ में आया
प्रश्नकर्ता : आज तक ऐसा समझता था कि भगवान की ज़िम्मेदारी
है।
दादाश्री : नहीं, खुद की ही ज़िम्मेदारी है! होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबिलिटी खुद की है, परन्तु उस आदमी को गोली क्यों मारी? वे रिस्पोन्सिबल थे, उसका यह फल मिला और वह मारनेवाला रिस्पोन्सिबल होगा, तब उसे उसका फल मिलेगा। उसका टाइम आएगा तब वह फल देगा।
जैसे आज आम पेड़ पर लगा, तो आज के आज ही आम लाकर उसका रस नहीं निकाल सकते। वह तो टाइम हो जाए, बड़ी हो, पके, तब रस निकलता है। उसी तरह यह गोली लगी न, उससे पहले पककर तैयार होती है, तब लगती है। यों ही नहीं लगती। और मारनेवाले ने गोली मारी, उसको आज इतना छोटा-सा आम बना है, वह बड़ा होने के बाद पकेगा, उसके बाद उसका रस निकलेगा।
कर्मबंधन, आत्मा को या देह को? प्रश्नकर्ता : तो फिर अब कर्मबंधन किसे होता है, आत्मा को या देह को?
दादाश्री : यह देह तो खुद ही कर्म है। फिर दूसरा बंधन उसे कहाँ से होगा? यह तो जिसे बंधन लगता हो, जो जेल में बैठा हो, उसे बंधन है। जेल को बंधन होता है या जेल में बैठा हो उसे बंधन है? यानी यह देह तो जेल है और उसके अंदर बैठा है न उसे बंधन है। 'मैं बंधा हुआ हूँ, मैं देह हूँ, मैं चंदूभाई हूँ', मानता है, उसे बंधन है।
प्रश्नकर्ता : यानी आप कहना चाहते हैं कि आत्मा देह के माध्यम
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
९
कर्म का विज्ञान से कर्म बांधता है और देह के माध्यम से कर्म छोड़ता है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। आत्मा तो इसमें हाथ डालता ही नहीं है। वास्तव में तो आत्मा अलग ही है, स्वतंत्र है। विशेषभाव से ही यह अहंकार खड़ा होता है और वह कर्म बांधता है और वही कर्म भुगतता है। 'आप हो शुद्धात्मा' परन्तु बोलते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ।' जहाँ खुद नहीं है, वहाँ आरोप करना कि 'मैं हूँ, वह अहंकार कहलाता है। पराये के स्थान को खुद का स्थान मानता है, वह इगोइज़म है। यह अहंकार छूटे तो खुद के स्थान में आया जा सकता है। वहाँ बंधन है ही नहीं।
कर्म अनादि से आत्मा के संग प्रश्नकर्ता : तो आत्मा की कर्म रहित स्थिति होती होगी न? वह कब होती है?
दादाश्री : जिसे एक भी संयोग की वळगणां (पाश, बंधन) नहीं हो न, उसे कर्म चिपकते ही नहीं कभी भी। जिसे किसी भी प्रकार की वळगणां नहीं होती, उसे ऐसा किसी भी प्रकार का कर्म का हिसाब नहीं है कि उसे कर्म चिपकें। अभी सिद्धगति में जो सिद्ध भगवंत हैं, उन्हें किसी प्रकार के कर्म नहीं चिपकते हैं। वळगणां खत्म हो गई कि चिपकते नहीं।
___ यह तो संसार में वळगणां खड़ी हो गई है और वह अनादि काल की कर्म की वळगणां है। और वह साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स से है सारा। सभी तत्व गतिमान होते रहते हैं और तत्वों के गतिमान होने से ही यह सब खड़ा हुआ है। यह सारी भ्रांति उत्पन्न हुई है। उससे ये सभी विशेष भाव उत्पन्न हुए हैं। भ्रांति का मतलब ही विशेषभाव। उसका मूल जो स्वभाव था, उसके बदले विशेषभाव उत्पन्न हुआ और उसके कारण यह सारा बदलाव हुआ है। यानी पहले आत्मा कर्म रहित था, ऐसा कभी हुआ ही नहीं। यानी कि वह जब ज्ञानी पुरुष के पास आता है, तब काफी कुछ कर्म का बोझ हल्का हो चुका होता है और हल्के कर्मवाला हो चुका होता है। हल्के कर्मवाला है तभी तो ज्ञानी पुरुष मिलते हैं। मिलते हैं, वह भी साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं। खुद के प्रयत्न से
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
कर्म का विज्ञान ही करने जाए तो ऐसा होगा ही नहीं। सहज प्रयत्न, सहज रूप से मिल जाए, तब काम हो जाता है। कर्म, ये संयोग हैं, और वियोगी उनका स्वभाव है।
संबंध, आत्मा और कर्म के... प्रश्नकर्ता : तो आत्मा और कर्म, इनके बीच क्या संबंध है?
दादाश्री : दोनों के बीच कर्त्तारूपी कड़ी नहीं हो तो दोनों अलग हो जाएँ। आत्मा, आत्मा की जगह पर और कर्म, कर्म की जगह पर अलग हो जाएँ।
प्रश्नकर्ता : समझ में नहीं आया ठीक से।
दादाश्री : कर्ता नहीं बने तो कर्म है नहीं। कर्ता है, तो कर्म है। कर्ता नहीं बनो न, और आप यह कार्य कर रहे हों न तो भी आपको कर्म नहीं बंधेगा। यह तो कर्त्तापद है आपको, 'मैंने किया।' इसलिए बँधा।
प्रश्नकर्ता : तो कर्म ही कर्ता है?
दादाश्री : 'कर्ता' वह कर्ता है। 'कर्म', वह कर्ता नहीं है। आप 'मैंने किया' कहते हो या 'कर्म ने किया' कहते हो?
प्रश्नकर्ता : 'मैं करता हूँ' ऐसा तो भीतर रहता ही है न! 'मैंने किया' ऐसा ही कहते हैं।
दादाश्री : हाँ, वह 'कर्ता', 'मैं करता हूँ' ऐसा कहते हो, इसलिए ही आप कर्ता बनते हो। बाक़ी 'कर्म' कर्ता नहीं है। 'आत्मा' भी कर्ता नहीं है।
प्रश्नकर्ता : कर्म एक तरफ है और आत्मा दूसरी तरफ है। तो इन दोनों को अलग किस तरह करें?
___ दादाश्री : अलग ही हैं। यह कड़ी निकल जाए न तो, परन्तु यह तो कर्त्तापद की कड़ी ही है। इस कड़ी के कारण बँधा हुआ लगता है।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
११
कर्त्तापद गया, कर्त्तापद करनेवाला गया, 'मैंने किया', ऐसा बोलनेवाला गया तो हो चुका, खतम हो गया। दोनों अलग ही हैं फिर तो ।
कर्म बँधें, वह तो अंतः क्रिया
प्रश्नकर्ता : मनुष्य को कर्म लागू होते होंगे या नहीं?
दादाश्री : निरंतर कर्म बाँधते ही रहते हैं । दूसरा कुछ करते ही नहीं । मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि खाता नहीं, पीता नहीं, संसार नहीं बसाता, व्यापार नहीं करता, फिर भी मात्र अहम्कार ही करता है कि 'मैं करता हूँ', उससे सारे कर्म बाँधते रहते हैं । वह भी आश्चर्य है न? यह प्रूव (साबित) हो सके ऐसा है ! खाता नहीं है, पीता नहीं है, यह प्रूव हो सके ऐसा है। फिर भी कर्म करता है, वह भी प्रूव हो सकता है । और सिर्फ मनुष्य ही कर्म बाँधते हैं ।
प्रश्नकर्ता : शरीर के लिए खाते-पीते हों, परन्तु फिर भी खुद कर्म नहीं भी करते हो न?
दादाश्री : ऐसा है न, कोई व्यक्ति कर्म करता हो न तो आँख से दिखता नहीं है। दिखता है आपको? यह जो आँखों से दिखता है न, उसे दुनिया के लोग कर्म कहते हैं । इन्होंने यह किया, इन्होंने यह किया, इसने इसे मारा, ऐसा कर्म बाँधा । अब जगत् के लोग ऐसा ही कहते हैं न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, जैसा दिखाई देता है ऐसा कहते हैं ।
दादाश्री : कर्म यानी उसकी प्रवृत्ति क्या हुई, उसको गाली दी तो भी कर्म बाँधा, उसको मारा तो भी कर्म बाँधा । खाया तो भी कर्म बाँधा, सो गया तो भी कर्म बाँधा, क्या प्रवृत्ति करता है, उसे लोग कर्म कहते हैं। परन्तु वास्तव में जो दिखता है वह कर्मफल है, वह कर्म नहीं है ।
कर्म बँधते हैं, तब अंतरदाह होता रहता है। छोटे बच्चे को कड़वी दवाई पिलाएँ तब क्या करता है? मुँह बिगाड़ता है न! और मीठी चीज़ खिलाए तो? खुश होता है । इस जगत् में जीव मात्र राग-द्वेष करते हैं, वे
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
१२
सभी कॉज़ेज़ हैं और उनमें से ये कर्म उत्पन्न हुए हैं। जो खुद को पसंद हैं, वे, और नहीं पसंद हैं वे, दोनों कर्म आते हैं । नापसंद काटकर जाते हैं, यानी दुःख देकर जाते हैं, और पसंद आनेवाले सुख देकर जाते हैं। यानी कि कॉज़ेज़ पिछले जन्म में हुए हैं, वे इस जन्म में फल देते हैं। कर्मबीज के नियम
प्रश्नकर्ता: कर्मबीज की ऐसी कोई समझ है कि यह बीज पड़ेगा और यह नहीं पड़ेगा?
दादाश्री : हाँ, आप कहो कि 'यह नाश्ता कितना अच्छा बना है, इसे मैंने खाया', तो बीज पड़ा। 'मैंने खाया' बोलने में हर्ज नहीं है । 'कौन खाता है' वह आपको जानना चाहिए कि 'मैं नहीं खाता हूँ, खानेवाला खाता है', पर यह तो खुद कर्त्ता बन जाता है और कर्त्ता बने तो ही बीज डलते
हैं।
गालियाँ दे तो उस पर द्वेष नहीं, फूल चढ़ाए या उठाकर घूमे तो उस पर राग नहीं, तो कर्म नहीं बँधेंगे उसे।
है?
प्रश्नकर्ता : राग
-द्वेष हों और पता नहीं चले, उसका उपाय क्या
दादाश्री : यह इनाम मिलता है वह, आनेवाले जन्म का भटकना जारी रहता है उसका ।
संबंध, देह और आत्मा का....
प्रश्नकर्ता: देह और आत्मा के बीच का संबंध अधिक विस्तार से समझाइए न!
दादाश्री : यह जो देह है, वह आत्मा की अज्ञानता से उत्पन्न हुआ परिणाम है। जो-जो 'कॉज़ेज़' किए थे, उनका यह 'इफेक्ट' है । कोई आपको फूल चढ़ाए तो आप खुश हो जाते हो, और कोई गाली दे तो आप चिढ़ जाते हो। उस चिढ़ने में और खुश होने में बाह्य दर्शन की क़ीमत
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
नहीं है। अंतर-भाव से कर्म चार्ज होता है। उसका फिर अगले जन्म में डिस्चार्ज होता है, उस समय वह 'इफेक्टिव' है। ये मन-वचन-काया तीनों इफेक्टिव हैं। इफेक्ट भोगते समय दूसरे नये कॉज़ेज़ उत्पन्न होते हैं। जो अगले जन्म में वापिस इफेक्टिव होते हैं। इस तरह कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट, इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़ ऐसा चक्र चलता ही रहता है, इसलिए फ़ॉरेन के साइन्टिस्टों को भी समझ में आता है कि भाई इस तरह पुनर्जन्म है। तब बहुत खुश हो जाते हैं कि इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़ हैं यह!
तो ये सब इफेक्ट हैं। आप वकालत करते हो, वह सब इफेक्ट है। इफेक्ट में अहंकार नहीं करना चाहिए कि 'मैंने किया।' इफेक्ट तो अपने आप ही आता है। यह पानी नीचे जाता है, वह ऐसे नहीं कहता कि, 'मैं जा रहा हूँ', वह समुद्र की तरफ चार सौ मील ऐसे-वैसे चलकर जाता ही है न! और मनुष्य तो किसीका केस (मुकदमा) जितवा दे तो 'मैंने कैसे जितवा दिया' कहता है। अब उसका उसने अहंकार किया, उससे कर्म बँधा, कॉज़ हुआ। उसका फल वापिस इफेक्ट में आएगा।
कारण-कार्य के रहस्य
इफेक्ट आप समझ गए? अपने आप होता ही रहे, वह इफेक्ट। हम परीक्षा देते हैं न, वह कॉज़ कहलाता है। फिर परिणाम की चिंता हमें नहीं करनी होती है। वह तो इफेक्ट है। यह जगत् पूरा इफेक्ट की चिंता करता है। वास्तव में तो कॉज़ के लिए चिंता करनी चाहिए!
यह विज्ञान तेरी समझ में आया? विज्ञान सैद्धांतिक होता है। अविरोधाभास होता है। तूने बिज़नेस किया और दो लाख कमाए, वह कॉज़ है या इफेक्ट?
प्रश्नकर्ता : कॉज़ेज़ हैं।
दादाश्री : किस तरह कॉज़ेज़ हैं, वह मुझे समझा? इच्छानुसार कर सकता है?
प्रश्नकर्ता : आप बिज़नेस करें और जो होनेवाला है वह होगा ही,
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
कर्म का विज्ञान वह इफेक्ट होता है। पर बिज़नेस करने के लिए कॉज़ेज़ तो करने पड़ते हैं न? तो बिज़नेस कर सकते हैं न?
दादाश्री : नहीं, कॉज़ेज़ में दूसरी कोई रिलेटिव वस्तु का उपयोग नहीं होता। बिज़नेस तो शरीर अच्छा हो, दिमाग़ अच्छा हो, सब हो, तब होता है न! सबके आधार पर जो होता है, वह इफेक्ट है और जो व्यक्ति सोते सोते 'इसका खराब होगा, ऐसा होगा', ऐसा करे वे सब कॉज़ेज़, क्योंकि उसमें आधार या किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है।
प्रश्नकर्ता : हम जो बिज़नेस करते हैं, तो वह इफेक्ट कहलाता
दादाश्री : इफेक्ट ही कहते हैं न! बिज़नेस, वह इफेक्ट ही है। परीक्षा का परिणाम आए, उसमें कुछ करना पड़ता है? परीक्षा में करना पड़ता है, वे कॉज़ेज़ कहलाते हैं। कुछ करना पड़े, वह भी परिणाम में कुछ करना पड़ता है?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : उसी तरह इसमें कुछ करना नहीं पड़ता। वह सब होता ही रहता है। अपना शरीर काम में आता है और सब होता ही रहता है। कॉज़ में तो खुद को करना पड़ता है। कर्त्ताभाव है, वह कॉज़ है, बाक़ी सब इफेक्ट है। भोक्ताभाव, वह कॉज़ है।
प्रश्नकर्ता : जो भाव हैं, वे सभी कॉज़ेज़ हैं, ठीक।
दादाश्री : हाँ, जहाँ दूसरे किसीकी हेल्प की ज़रूरत नहीं है। आप खाना बनाओ फर्स्ट क्लास, वह सब इफेक्ट ही है, और उसमें आप भाव करो कि 'मैंने कितना अच्छा खाना बनाया, कितना अच्छा बनाया।' वह भाव आपका कॉज़ है। यदि भाव नहीं करो तो सब इफेक्ट ही है। सुना जा सके, देखा जा सके, वे सब इफेक्ट्स हैं। कॉज़ेज़ देखे नहीं जा सकते।
प्रश्नकर्ता : तो पाँच इन्द्रियों से जो कुछ होता है, वह इफेक्ट है?
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
दादाश्री : हाँ, वह सब इफेक्ट है। पूरी लाइफ ही इफेक्ट है। उसके अंदर जो भाव होते हैं, वे भाव कॉज़ हैं, और भाव का कर्ता होना चाहिए। जगत् के लोग, वे तो कर्ता हैं।
कर्म बँधने से रुक गए यानी पूरा हो गया। ऐसा आपको समझ में आता है क्या? आपके कर्म बँधने से रुक जाते होंगे? किसी दिन देखा है वह? शुभ में पड़ो तो शुभ बंधता है, नहीं तो अशुभ तो होता ही है। कर्म छोडते ही नहीं! और 'खुद कौन है, यह सब कौन करता है', वह सब जान ले, फिर कर्म बंधेगे ही नहीं न!
पहला कर्म किस तरह आया?
प्रश्नकर्ता : कर्म की थ्योरी के अनुसार कर्म बंधते हैं और उन्हें भुगतना पड़ता है। अब उस तरह आपने कॉज़ और इफेक्ट बताए, तो उनमें पहले कॉज़ फिर उसका इफेक्ट, तो हम तार्किक दृष्टि से सोचें और पीछे जाते जाएँ तो सबसे प्रथम कॉज़ किस तरह आया होगा?
दादाश्री : अनादि में पहला नहीं होता न! यह माला आपने देखी है गोलाकार? ये सूर्यनारायण घूमते हैं, तो उसकी बिगिनिंग कहाँ से करते होंगे?
प्रश्नकर्ता : उन्हें बिगिनिंग होती ही नहीं।
दादाश्री : अर्थात् इस दुनिया की बिगिनिंग किसी जगह पर है नहीं। पूरी ही गोल है, राउन्ड ही है। इसमें से छुटकारा है लेकिन। बिगिनिंग नहीं है इसकी! आत्मा है, इसलिए छुटकारा हो सकता है। पर उसकी बिगिनिंग नहीं है। राउन्ड है पूरा ही, हर एक चीज़ राउन्ड। कोई चीज़ चौकोर नहीं है। चौकोर हो तो हम उसे कहें कि इस कोने से शुरू हुआ है और इस कोने पर मिल गया। राउन्ड में कोना कौन-सा? पूरा जगत् ही राउन्ड है, उसमें बुद्धि काम कर सके, ऐसा नहीं है। इसलिए बुद्धि से कहें, बैठ एक तरफ, बुद्धि पहुँच सके ऐसा नहीं है। ज्ञान से समझ में आए ऐसा है।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान अंडा पहले या मुर्गी पहले। मुए, रख न इसे एक ओर। यहाँ से उस ओर रखकर दूसरी आगे की बात कर न! नहीं तो अंडा और मुर्गी बनना पड़ेगा। बार-बार उसे छोड़ेगा नहीं मुआ। जिसका समाधान नहीं हो, वह सभी गोल है। वह अपने लोग नहीं कहते, गोल-गोल बात करते हैं ये भाई।
प्रश्नकर्ता : फिर भी यह प्रश्न होता ही रहता है कि जन्म से पहले कर्म कहाँ से? चौरासी लाख फेरे शुरू हुए। यह पाप-पुण्य कहाँ से, कब से शुरू हुए?
दादाश्री : अनादि से। प्रश्नकर्ता : उसकी शुरूआत तो कुछ होगी न?
दादाश्री : जब से बुद्धि शुरू हुई न तब से शुरूआत और बुद्धि का एन्ड हो, वहाँ पूरा हो जाता है। समझ में आया न? बाक़ी है अनादि से!
प्रश्नकर्ता : यह जो बुद्धि है, वह किसने दी?
दादाश्री : देनेवाला है ही कौन? कोई भी ऊपरी है ही नहीं न! कोई है नहीं न, दूसरा कोई। कोई देनेवाला हो, तब तो ऊपरी ठहरा। ऊपरी ठहरा, इसलिए हमेशा वह हमारे सिर पर रहेगा। फिर मोक्ष होगा ही नहीं, दुनिया में। ऊपरी हो, वहाँ मोक्ष होता होगा?
प्रश्नकर्ता : परन्तु सबसे पहला कर्म कौन-सा हुआ? जिसके कारण यह शरीर मिला?
दादाश्री : यह शरीर तो किसीने दिया नहीं है। ये सभी छह तत्वों के इकट्ठे होने से, उनके ऐसे आमने-सामने जोइन्ट होने से 'उसे' ये सारी अवस्थाएँ उत्पन्न हुई हैं। वह शरीर मिला ही नहीं। यह तो आपको दिखता है वही भूल है। भ्रांति से दिखता है। यह भ्रांति जाए न, तो कुछ भी नहीं रहे। यह आप जो 'मैं चंदूभाई हूँ', ऐसा समझते हो, उससे यह खड़ा हुआ है सारा।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
१७
कर्म एक या अनेक जन्मों के? प्रश्नकर्ता : ये सभी कर्म हैं, वे एक ही जन्म में नहीं भोगे जाते। इसलिए अनेक जन्म लेने पड़ते हैं न, उन्हें भुगतने के लिए? जब तक कर्म पूरे नहीं हों, तब तक मोक्ष कहाँ है?
दादाश्री : मोक्ष की तो बात ही कहाँ गई, उस जन्म के कर्म जब पूरे होते हैं तब देह छूटती है। और तब भीतर नये कर्म बँध ही गए होते हैं। इसलिए मोक्ष की तो बात ही कहाँ करने की रही? पुराने, दूसरे कोई पिछले कर्म नहीं आते। आप अभी भी कर्म बाँध रहे हो। अभी आप यह बात कर रहे हो न, इस घड़ी भी पुण्यकर्म बाँध रहे हो। पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म बाँध रहे हो।
करे कौन और भुगते कौन? प्रश्नकर्ता : दादा, पिछले जन्म में जो कर्म किए, वे इस जन्म में भुगतने पड़ते हैं, तो पिछले जन्म में जिस देह से भुगते थे, वह देह तो जल गया, आत्मा तो निर्विकार स्वरूप है, वह आत्मा दूसरी देह लेकर आता है, परन्तु इस देह को पिछले जन्म के देह का किया हुआ कर्म किसलिए भुगतना पड़ता है?
दादाश्री : उस देह से किए हुए कर्म तो यह देह भुगतकर ही जाती
है।
प्रश्नकर्ता : तो?
दादाश्री : यह तो चित्रित किए हुए, वे मानसिक कर्म। सूक्ष्म कर्म। अर्थात् जिसे हम कॉज़ल बॉडी कहते हैं न, कॉज़ेज़।
प्रश्नकर्ता : ठीक है, परन्तु उस देह ने भाव किए थे न? दादाश्री : देह ने भाव नहीं किए। प्रश्नकर्ता : तो?
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
कर्म का विज्ञान दादाश्री : देह ने तो खुद उसका फल भुगता न! दो धौल मारी इसलिए देह को फल मिल ही जाता है। परन्तु उसकी योजना में था, वह इस रूपक में आया।
प्रश्नकर्ता : हाँ, पर योजना की किसने? उस देह ने योजना की थी न?
दादाश्री : देह को तो लेना-देना नहीं है न! बस, अहंकार ही करता है यह सब।
इस जन्म का इसी जन्म में?
प्रश्नकर्ता : इन सभी कर्मों के फल अपने इसी जीवन में भुगतने हैं या फिर अगले जन्म में भी भुगतने पड़ते हैं?
दादाश्री : पिछले जन्म में जो कर्म किए थे, वे योजना के रूप में थे। यानी कि कागज़ पर लिखी हुई योजना। अब वे रूपक के रूप में अभी आते हैं, फल देने के लिए सम्मुख हों, तब वे प्रारब्ध कहलाते हैं। कितने काल में परिपक्व होते हैं? वे पचास, पचहत्तर या सौ वर्षों में परिपक्व होते हैं, तो फल देने के लिए सम्मुख होते हैं।
अर्थात् पिछले जन्म में कर्म बाँधे थे, वे कितने ही वर्षों में परिपक्व होते हैं, तब यहाँ फल देते हैं और वे फल देते हैं, उस समय जगत् के लोग क्या कहते हैं, कि इसने कर्म बाँधा। इसने इस आदमी को दो धौल मार दी, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं? कर्म बाँधा इसने। कौन-सा कर्म बाँधा? तब कहे, ‘दो धौल मार दी।' उसे उसका फल भोगना पड़ेगा। वह यहाँ पर वापिस मिलेगा ही। क्योंकि धौलें मारी, परन्तु आज मार खानेवाला ढीला पड़ गया, पर फिर मौका मिलेगा, तब बदला लिए बिना रहेगा नहीं न! जब कि लोग कहते हैं कि देखो कर्म का फल भुगता न आखिर! तो इसीको कहा जाता है, 'यहीं पर फल भुगतना।' परन्तु हमलोग उसे कहते हैं कि तेरी बात सच है। इसका फल भुगतना है, परन्तु वे दो धौलें क्यों मारी उसने? वह किस आधार पर? वह आधार उसे मिलता
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
नहीं है। वह तो कहेगा कि 'उसने ही मारा।' यह तो वह उदयकर्म उसे नचाता है। अर्थात् पहले जो कर्म किया है, वह नचाता है।
प्रश्नकर्ता : वह जो धौल मारी, वह कर्म का फल है, कर्म नहीं है, वह ठीक है न?
दादाश्री : हाँ, वह कर्मफल है। इसलिए उदयकर्म उससे यह करवाता है और वह दो धौलें मार देता है। फिर वह मार खानेवाला क्या कहता है, कि 'भाई, और एक-दो लगा न!' तब वह कहेगा, 'मैं क्या बिना अक्कलवाला मूर्ख हूँ?' उल्टे डाँटता है। पहले जो मारा था, उसका कारण है। दोनों का हिसाब हो न, उस हिसाब से बाहर नहीं होता है कुछ भी। यानी कि यह जगत् ऐसा है कि हिसाबी है, यानी कि एक-एक आना और पाई सहित हिसाब है। इसलिए जगत् डरने जैसा है ही नहीं, बिल्कुल ही
चैन से सो जाने जैसा है। फिर भी बिल्कुल ऐसा निडर नहीं हो जाना चाहिए कि मुझे कुछ नहीं होगा।
कर्मफल - लोकभाषा में, ज्ञानी की भाषा में
प्रश्नकर्ता : सब यहीं के यहीं भुगतना है, ऐसा कहते हैं, वह क्या गलत है?
दादाश्री : भुगतना यहीं के यहीं ही है, पर वह इस जगत् की भाषा में है। अलौकिक भाषा में उसका अर्थ क्या होता है?
पिछले जन्म में अहंकार का, मान का कर्म बँधा होता है, तो इस जन्म में उनकी सारी बिल्डींग बनती हैं, तब फिर उससे वह उसमें मानी बनता है। किसलिए मानी बनता है? कर्म के हिसाब से वह मानी बनता है। अब मानी बना, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि, 'यह कर्म बाँध रहा है, यह ऐसा मान करता है।' जगत् के लोग इसे कर्म कहते हैं। जब कि भगवान की भाषा में तो यह कर्म का फल आया है। फल अर्थात् मान नहीं करना हो तो भी करना ही पड़ता है, हो ही जाता है।
और जगत् के लोग जिसे कहते हैं कि 'यह क्रोध करता है, मान
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
कर्म का विज्ञान
करता है, अहंकार करता है', अब उसका फल यहीं के यहीं ही भुगतना पड़ता है। मान का फल यहीं के यहीं क्या आता है कि अपकीर्ति फैलती है, अपयश फैलता है, वह यहीं पर भुगतना पड़ता है। ये मान करते हैं, उस समय यदि मन में ऐसा हो कि यह गलत हो रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें मान विलय करने की ज़रूरत है, ऐसा भाव हो तो वह नया कर्म बाँधता है। उसके कारण से आनेवाले जन्म में फिर मान कम हो जाता है।
कर्म की थियरी ऐसी है। गलत होते समय भीतर भाव बदल जाएँ तो नया कर्म वैसा बँधता है। और यदि गलत करे और ऊपर से खुश हो कि, 'ऐसा ही करने जैसा है' तो उससे फिर नया कर्म मज़बूत होता जाता है, निकाचित हो जाता है। उसे फिर भुगतना ही पड़ेगा! पूरा साइन्स ही समझने जैसा है। वीतरागों का विज्ञान बहुत गुह्य है।
... या इस जन्म का अगले जन्म में? प्रश्नकर्ता : तो इस जन्म में किए हुए कर्मों का फल क्या अगले जन्म में मिल सकता है?
दादाश्री : हाँ, इस जन्म में नहीं मिलता।
प्रश्नकर्ता : तो अभी जो हम भुगत रहे हैं, वह पिछले जन्म का फल है?
दादाश्री : हाँ, पिछले जन्म का फल है और साथ-साथ नये कर्म आनेवाले जन्म के लिए बँध रहे हैं। इसलिए नये कर्म आपको अच्छे करने चाहिए। यह तो बिगड़ा है पर आनेवाला नहीं बिगड़े, इतना देखते रहना है।
प्रश्नकर्ता : अभी कलियुग चल रहा है, अभी मनुष्य अच्छे कर्म तो कर नहीं सकता, कलियुग के प्रभाव से।
दादाश्री : अच्छे कर्मों की ज़रूरत नहीं है।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
प्रश्नकर्ता : तो किसकी ज़रूरत है? ।
दादाश्री : भीतर सद्भावना की ज़रूरत है। अच्छे कर्म तो प्रारब्ध अच्छा हो तो हो सकते हैं, नहीं तो नहीं हो सकते। पर अच्छी भावना तो हो सकती है, प्रारब्ध अच्छा नहीं हो तो भी।
बुरे कर्म का फल कब? प्रश्नकर्ता : अच्छे और बुरे कर्म के फल इसी जन्म में या अगले जन्म में भुगतना पड़ता है, तो वैसे जीव मोक्षगति को किस तरह प्राप्त करें?
दादाश्री : कर्मों के फल नुकसान नहीं करते। कर्म के बीज नुकसान करते हैं। मोक्ष में जाते हए कर्म बीज गिरने बंद हो गए तो कर्मफल उसे रुकावट नहीं डालते, कर्मबीज रुकावट डालते हैं। बीज किसलिए रुकावट डालते हैं? कि तूने डाले इसलिए इनका स्वाद तू लेकर जा, उसका फल चखकर जा। उन्हें चखे बिना नहीं जा सकता। यानी वे ही रुकावट डालते हैं, बाक़ी ये कर्मफल रुकावट नहीं डालते हैं। फल तो कहते हैं, 'तू अपनी तरह से खाकर चला जा।'
प्रश्नकर्ता : परन्तु आपश्री ने कहा था कि एक प्रतिशत भी कर्म किया हो तो वह भुगतना ही पड़ता है।
दादाश्री : हाँ, भुगतना ही पड़ता है। भुगते बगैर चलेगा नहीं। कर्म के फल भोगते हुए भी मोक्ष हो सकता है, ऐसा रास्ता होता है। परन्तु कर्म बाँधते समय मोक्ष नहीं होता। क्योंकि वे कर्म बाँध रहे हों तो अभी फल खाने के लिए रहना पड़ेगा न!
प्रश्नकर्ता : जो अच्छे-बुरे कर्म हम करते हैं, वे इसी जन्म में भुगतने होते हैं या फिर अगले जन्म में?
दादाश्री : लोग देखते हैं कि, 'इसने बुरा कर्म किया, इसने चोरी की, इसने लुच्चापन (बदमाशी) किया, इसने दगा दिया, वे सभी यहीं पर भुगतने हैं और उन कर्मों से ही भीतर राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। उनका फल अगले जन्म में भुगतना पड़ता है।'
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
प्रत्येक जन्म पूर्व जन्म का सार प्रश्नकर्ता : अभी जो ये कर्म हैं, वे अनंत जन्मों के हैं?
दादाश्री : हर एक जन्म, अनंत जन्मों के सार के रूप में होता है। सभी जन्मों का एक साथ नहीं होता। क्योंकि नियम ऐसा है कि परिपाक काल होने पर फल पकना ही चाहिए, नहीं तो कितने सारे कर्म रह जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : यह सब पिछले जन्म के साथ जुड़ा हुआ है न?
दादाश्री : हाँ, ऐसा है न कि एक जन्म में दो कार्य नहीं कर सकता है, कॉज़ेज़ और इफेक्ट एक साथ नहीं कर सकता। क्योंकि कॉज़ेज़ और इफेक्ट की अवधि साथ में किस तरह हो सकती है? उनकी अवधि पूरी होने पर कॉज़ेज़ इफेक्टिव होते हैं। अवधि पूरी हुए बिना नहीं होते। जैसे कि यह आम का पेड़ होता है न, उस पर फूल आने के बाद इतना-सा आम लगता है। उनके पकने तक समय लगता है या नहीं? यदि हम दूसरे दिन मिन्नत माने कि पक जाएँ, तो पकेंगे? यानी ये कर्म जो बाँधते हैं, उन्हें परिपक्व होने के लिए सौ वर्ष चाहिए, तब फल देने के लिए सम्मुख होते हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् इस जन्म के जो कर्म हैं, वे पिछले जन्म के ही होते हैं या उससे भी पहले के अनंत जन्मों के होते हैं?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है इस कुदरत का। कुदरत तो बहुत शुद्ध है, जैसा तरीका व्यापारियों को भी नहीं आता, उतना अच्छा तरीका है! आज से दसवें जन्म के कर्म जो हुए होंगे न उनका हिसाब निकालकर, वह नफा-नुकसान आगे खींच ले जाता है, नौंवे जन्म में। अब उसमें ये सभी कर्म नहीं आते, सिर्फ हिसाब निकालकर कर्म आते हैं। नौंवें में से आठवें में, आठवें में से सातवें में। इस तरह भीतर जितने वर्षों का आयुष्य होता है, फिर उतने ही वर्षों के कर्म होते हैं। परन्तु वे फिर वैसे रूप में भीतर आते हैं, परन्तु वे एक जन्म के ही कहलाते हैं। दो जन्म के इकट्ठे नहीं कहे जा सकते।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
२३
कर्म ऐसे होते हैं कि परिपक्व होने में देर लगती है। कुछ लोगों के पाँच सौ वर्षों में हज़ार - हज़ार वर्षों में परिपक्व होते हैं, फिर भी इसमें बहीखाते में नया ही होता है।
प्रश्नकर्ता : केरी फॉरवर्ड हो जाता है?
दादाश्री : हाँ, बहीखाते की बात आपको समझ में आई? पुराने बहीखाते का नये बहीखाते में आ जाता है और अब वह भाई नए बहीखाते में आ जाएगा। कुछ भी बाक़ी रहे बगैर । यानी कॉज़ेज़ के रूप में ये कर्म बँधते हैं, वे इफेक्टिव कब होते हैं? पचास-साठ - पचहत्तर वर्ष बीत जाएँ, तब फल देने के लिए इफेक्टिव होते हैं ।
इन सबका संचालक कौन?
प्रश्नकर्ता : तो यह सब चलाता कौन है ?
दादाश्री : यह सब तो, यह कर्म का नियम ऐसा है कि आप जो कर्म करते हो, उनके परिणाम अपने आप कुदरती रूप से आते हैं।
प्रश्नकर्ता : इन कर्मों के फल हमें भुगतने पड़ते हैं, वह कौन तय करता है? कौन भुगतवाता है ?
दादाश्री : तय करने की ज़रूरत ही नहीं है। कर्म 'इटसेल्फ' करते रहते हैं। अपने आप खुद ही हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर कर्म के नियम को कौन चलाता है ?
दादाश्री : 2H और O इकट्ठे हो जाएँ तो बरसात हो जाती है, वह कर्म का नियम ।
प्रश्नकर्ता : परन्तु किसीने उसे किया होगा न, वह नियम?
दादाश्री : नियम कोई नहीं बनाता है । तब तो फिर मालिक ठहरेगा वापिस। किसीको करने की ज़रूरत नहीं है । इटसेल्फ पज़ल हो गया है और वह विज्ञान के नियम से होता है । उसे हम 'ओन्लि सायन्टिफिक
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
कर्म का विज्ञान सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' से जगत् चल रहा है, ऐसा कहते हैं। उसे गुजराती में कहा है कि 'व्यवस्थित शक्ति' जगत् चलाती है।
'व्यवस्थित शक्ति' और कर्म प्रश्नकर्ता : आप जो 'व्यवस्थित' कहते हैं, वह कर्म के अनुसार है?
दादाश्री : जगत् कहीं कर्म से नहीं चलता है। जगत् 'व्यवस्थित शक्ति' चलाती है। आपको यहाँ कौन लेकर आया? कर्म? नहीं। आपको 'व्यवस्थित' लेकर आया है। कर्म तो भीतर पड़ा हुआ था ही। वह कल क्यों नहीं लेकर आया और आज लेकर आया? 'व्यवस्थित' काल एकत्र कर देता है, भाव एकत्र कर देता है। सभी संयोग इकट्ठे हो गए, तब तू यहाँ आया। कर्म तो 'व्यवस्थित' का एक अंश है। यह तो संयोग मिल जाते हैं तब कहता है, 'मैंने किया' और संयोग नहीं मिलें तब?
फल मिलें ऑटोमेटिक प्रश्नकर्ता : कर्म का फल और कोई दे तो फिर वह कर्म ही हुआ?
दादाश्री : कर्म का फल और कोई देता ही नहीं। कर्म का फल देनेवाला कोई जन्मा ही नहीं। यहाँ पर सिर्फ खटमल मारने की दवाई पी जाए तो मर ही जाए, उसमें बीच में फल देनेवाले की कोई ज़रूरत नहीं
फल देनेवाला हो न, तब तो बहुत बड़ा ऑफिस बनाना पड़ता। यह तो साइन्टिफिक तरीके से चलता है। बीच में किसीकी ज़रूरत नहीं है! उसका कर्म परिपक्व होता है तब फल आकर खड़ा ही रहता है, खुद अपने आप ही। जैसे ये कच्चे आम अपने आप ही पक जाते हैं न! नहीं पकते?
प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ।
दादाश्री : आम के पेड़ पर नहीं पकते? हाँ, पेड़ पर पकते हैं न,, उसी तरह ये कर्म परिपक्व होते हैं। उनका टाइम आता है, तब पककर,
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
तैयार होकर फल देने लायक हो जाते हैं ।
प्रश्नकर्ता : पिछले जन्म में जो हमने कर्म किए, इस जन्म में उनका फल आया, तो इन सब कर्मों का हिसाब कौन रखता है? उनका बहीखाता कौन रखता है?
२५
दादाश्री : ठंड पड़ती है, तब पाइप के अंदर पानी होता है, उसे बर्फ कौन बना देता है? वह तो वातावरण ठंडा हुआ इसलिए ! ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ! ये सब कर्म-वर्म करते हैं, उनका फल आता है वह भी एविडेन्स हैं। तुझे भूख कौन लगवाता है? सब साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं, उनसे सब चलता है!
कर्मफल में 'ऑर्डर' का आधार
प्रश्नकर्ता : कौन-से ऑर्डर (क्रम) में कर्मों का फल आता है ? जिस ऑर्डर में उसका बँधा हुआ हो, वैसे ही ऑर्डर में उसका फल आता है? यानी पहले ये कर्म बाँधा, फिर यह कर्म बाँधा, फिर यह कर्म बांधा। एक नंबर का कर्म यह बाँधा, तो उसका डिस्चार्ज भी फिर पहले वही आता है? फिर दो नंबर का बाँधा, उसका डिस्चार्ज दूसरे नंबर पर आता है, ऐसा है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है ।
प्रश्नकर्ता : हं, तो कैसा है, वह ज़रा समझाइए ।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है । वे सभी उनके स्वभाव के अनुसार सब सेट हो जाते हैं कि ये दिन में भुगतने के कर्म, ये रात में भुगतने के कर्म, ये सभी... इस तरह सेट हो जाते हैं । ये दुःख में भुगतने के कर्म, ये सुख में भुगतने के कर्म, ऐसे सेट हो जाते हैं । वैसी सब व्यवस्था हो जाती है उनकी।
प्रश्नकर्ता : वह व्यवस्था किस आधार पर होती है ?
दादाश्री : स्वभाव के आधार पर। हम सब मिलते हैं, तो सभी
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
कर्म का विज्ञान मिलते-जुलते स्वभाववाले हों, तभी मिलते हैं। नहीं तो होता नहीं।
केवलज्ञान में ही वह दिखे प्रश्नकर्ता : यह कर्म नया है या पुराना है, वह किस तरह दिखेगा?
दादाश्री : कर्म किया या नहीं किया, यह तो किसीसे भी नहीं देखा जा सकता। वह तो भगवान, कि जिन्हें केवलज्ञान है, वे ही जान सकते हैं। इस जगत् में आपको जो कर्म दिखते हैं, उनमें एक राई जितना भी कर्म नया नहीं है। इन कर्मों के ज्ञाता-दृष्टा रहो तो नया कर्म नहीं बँधेगा
और तन्मयाकार रहो तो नये कर्म बँधते हैं। आत्मज्ञानी होने के बाद ही कर्म नहीं बँधते।
इस जगत् में आत्मा दिखता नहीं है, कर्म भी नहीं दिखते, परन्तु कर्मफल दिखते हैं।
लोगों को, कर्मफल आते हैं उनमें 'टेस्ट' आता है, तब उनमें तन्मयाकार हो जाते हैं, उससे ही भुगतना पड़ता है।
अभी मुए कहाँ से? प्रश्नकर्ता : बहुत बार ऐसा होता है कि हम अशुभ कर्म बाँध रहे हो और उस समय बाहर तो उदय शुभकर्म का होता है? ।
दादाश्री : हाँ, ऐसा होता है। अभी आपके शुभ कर्म का उदय हो पर भीतर अशुभ कर्म बाँध सकते हैं।
आप दूसरे शहर से यहाँ सिटी में आए हों और रात को देर हो गई हो तो अंदर लगता है कि अब हम कहाँ सोएँगे? तो फिर आप कहते हो कि यहाँ मेरे एक मित्र रहते हैं, वहाँ हम चलें। इसलिए चार लोग वे
और आप पाँचवे, साढ़े ग्यारह बजे उस मित्र के वहाँ जाकर दरवाज़ा खटखटाया। वे बोले 'कौन है?' तब आप कहो, 'मैं'। तब वह कहे, 'खोलता हूँ'। वह दरवाज़ा खोलकर फिर क्या कहता है हमें? पाँच व्यक्तियों को देखता है, हमें अकेले को नहीं देखता, चार-पाँच लोगों को देखता है,
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
इसलिए हमें क्या कहता है? 'वापिस जाओ' ऐसा कहता है? क्या कहता है?
'आइए, पधारिए! अपने यहाँ तो खानदानी लोग, 'आइए, पधारिए' कहकर बैठाते हैं।
प्रश्नकर्ता : वह ऐसा भी कहता है कि, 'कब आए' और 'कब जानेवाले हो?'
दादाश्री : नहीं, खानदानी ऐसा नहीं बोलते। वे 'आइए, पधारिए' करके बैठाते हैं, पर उसके मन में क्या चल रहा होता है? कि अभी कहाँ से मुए! वह कर्म। वैसा करने की ज़रूरत नहीं है। वे आए हैं, उनका हिसाब होगा तब तक रहेंगे। फिर चले जाएंगे। उसने जो यह अक्कलमंदी की कि, 'अभी कहाँ से मुए' वह कर्म बाँधा। अब वह कर्म बाँधा तब मुझे पूछना था कि “ऐसा हो जाता है मुझसे, तब क्या करूँ? तब मैं कहूँ कि, उस घड़ी कृष्ण भगवान को मानता हो, चाहे जिन्हें मानता हो, उनका नाम लेकर 'हे भगवान! मेरी भूल हो गई। ऐसा फिर नहीं करूँगा।' इस तरह माफ़ी माँगे तो मिट जाएगा।" बाँधा हुआ कर्म तुरन्त ही मिट जाएगा। जब तक चिट्ठी पोस्ट में नहीं डालें, तब तक उसे बदल सकते हैं। पोस्ट में चला गया यानी कि यह देह छूट गई, फिर बंध गया। देह छुटे उससे पहले हम वह सब मिटा दें तो मिट जाएगा। अब उसने एक कर्म तो बाँधा न?
अब वापिस फिर तुझे क्या कहता है? 'चंदूभाई इतनी इतनी...' क्या बोले 'इतनी' वे? यानी कॉफी या चाय कुछ नहीं बोलते, पर हम समझ जाते हैं कि चाय के लिए कह रहे हैं। पर वे 'इतनी थोड़ी-थोड़ी...' तब आप कहते हो, 'अभी रहने दो न चाय-वाय, अभी खिचड़ी-कढ़ी होगी तो चलेगा।' तब फिर अंदर उनकी पत्नी चिढ़ जाती है। उससे कर्म बँधते हैं सारे। अब उस घड़ी यह कुदरत का नियम है। वह हिसाब में आया है, तो उसके लिए भाव मत बिगाडना। इस प्रकार नियम में रहे और भले खिचड़ी और कढ़ी जो अपने पास हो, वह दे देना। मेहमान ऐसा नहीं कहते कि आप मिठाई खिलाइए। खिचड़ी-कढ़ी, सब्जी, जो हो वह परोसो। यह
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
कर्म का विज्ञान तो फिर इज़्जत चली जाएगी, उसके लिए यह वापिस खिचड़ी-कढ़ी नहीं परोसता, दूसरा हलवा आदि परोसता है। पर अंदर मन में फिर गालियाँ देता है। अभी कहाँ से मुए! वह उसका कर्म। यानी ऐसा नहीं होना चाहिए।
इसीलिए मत बिगाड़ो भाव कभी प्रश्नकर्ता : पुण्यकर्म और पापकर्म किस तरह बँधते हैं?
दादाश्री : दूसरों को सुख देने का भाव किया, उससे पुण्य बँधता है और दूसरों को दुःख देने का भाव किया, उससे पाप बँधता है। मात्र भाव से ही कर्म बँधते हैं, क्रिया से नहीं। क्रिया में वैसा हो या नहीं भी हो, परन्तु भाव में जैसा हो वैसा कर्म बँधता है। इसलिए भाव को बिगाड़ना मत।
कोई भी कार्य स्वार्थ भाव से करें तब पाप कर्म बँधता है और नि:स्वार्थ भाव से करें तब पुण्यकर्म बँधता है। परन्तु दोनों ही कर्म हैं न! जो पुण्यकर्म का फल है, वह सोने की बेड़ी, और पाप कर्म का फल, लोहे की बेड़ी। पर दोनों बेड़ियाँ ही हैं न?
स्थूल कर्म : सूक्ष्म कर्म एक सेठ ने पचास हज़ार रुपये दान में दिए। तो उसके मित्र ने उनसे पूछा, 'इतने सारे रुपये दे दिए?' तब सेठ बोले, 'मैं तो एक पैसा भी हूँ, वैसा नहीं हूँ। ये तो इस मेयर के दबाव के कारण देने पड़े।' अब इसका फल वहाँ क्या मिलेगा? पचास हज़ार का दान दिया, वह स्थूल कर्म, उसका फल यहीं का यहीं सेठ को मिल जाता है। लोग 'वाह-वाह' करते हैं। कीर्तिगान करते हैं और सेठ ने भीतर सूक्ष्म कर्म में क्या चार्ज किया? तब कहें, ‘एक पैसा भी , वैसा नहीं हूँ।' उसका फल आनेवाले जन्म में मिलेगा। तब अगले जन्म में सेठ एक पैसा भी दान में नहीं दे सकेगा। अब इतनी सूक्ष्म बात किसे समझ में आए?
वहीं पर दूसरा कोई गरीब हो, उसके पास भी वे ही लोग गए हों दान लेने, तब वह गरीब आदमी क्या कहता है कि, 'मेरे पास तो अभी
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
२९
पाँच ही रुपये हैं, वे सभी ले लो, पर अभी यदि मेरे पास पाँच लाख होते तो वे सभी दे देता।' ऐसा दिल से कहता है। अब उसने पाँच ही रुपये दिए, वह डिस्चार्ज में कर्मफल आया था, पर भीतर सूक्ष्म में क्या चार्ज किया? पाँच लाख रुपये देने का, तो अगले जन्म में पाँच लाख दे सकेगा, डिस्चार्ज होगा तब।
एक आदमी दान देता रहता हो, धर्म की भक्ति करता हो, मंदिरों में पैसे देता हो, पूरे दिन और सब धर्मकार्य करता रहता हो, उसे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि 'ये धर्मिष्ठ हैं।' अब उस व्यक्ति के भीतर में क्या विचार होते हैं कि किस तरह इकट्ठा करूँ और किस तरह भोग लूँ!' अंदर तो उसे अणहक्क (बिना हक़ का) की लक्ष्मी छीन लेने की बहुत इच्छा होती है। अणहक्क के विषय भोग लेने के लिए ही तैयार होता
इसलिए भगवान उसका एक भी पैसा जमा नहीं करते हैं। उसका क्या कारण है? क्योंकि दान-धर्म-क्रिया वे सभी स्थूल कर्म हैं। उन स्थूल कर्मों का फल यहीं पर ही मिल जाता है। लोग उस स्थूल कर्म को ही अगले जन्म का कर्म मानते हैं। पर उसका फल तो यहीं पर मिल जाता है और सूक्ष्म कर्म, जो कि अंदर बँध रहा है, जिसकी लोगों को खबर ही नहीं है। उसका फल अगले जन्म में मिलता है।
__आज किसी मनुष्य ने चोरी की, वह चोरी स्थूल कर्म है। उसका फल इसी जन्म में मिल जाता है। जैसे कि उसे अपयश मिलता है, पुलिसवाला मारता है, वह सारा फल उसे यहीं पर मिल जाता है। ___अर्थात् यह जो स्थूलकर्म दिखते हैं, स्थूल आचार दिखते हैं, वे 'वहाँ' काम में नहीं आते। वहाँ' तो सूक्ष्मभाव क्या है? सूक्ष्मकर्म क्या है? उतना ही 'वहाँ' काम आता है। अब जगत् पूरा स्थूल कर्म पर ही एडजस्ट हो गया है।
ये साधु-संन्यासी सब त्याग करते हैं, तप करते हैं, जप करते हैं, पर वे तो सारे स्थूल कर्म हैं। उनमें सूक्ष्म कर्म कहाँ हैं? ये दिखते हैं उनमें
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
कर्म का विज्ञान
अगले जन्म का सूक्ष्म कर्म नहीं है। यह जो करता है, उस स्थूल कर्म का यश उसे यहीं पर मिल जाता है।
क्रिया नहीं पर ध्यान से चार्जिंग आचार्य महाराज प्रतिक्रमण करते हैं, सामायिक करते हैं, व्याख्यान देते हैं, प्रवचन देते हैं, पर वह तो उनका आचार है, वह स्थूल कर्म है। पर भीतर क्या है, वह देखना है। भीतर जो चार्ज होता है, वह 'वहाँ' पर काम आएगा। अभी जिस आचार का पालन करते हैं, वह डिस्चार्ज है। पूरा बाह्याचार ही डिस्चार्ज स्वरूप है। वहाँ ये लोग कहते हैं कि, 'मैंने सामायिक की, ध्यान किया, दान दिया।' तो उसका यश तुझे यहीं पर मिल जाएगा। उसमें आनेवाले जन्म का क्या लेना-देना? भगवान ऐसी कोई कच्ची माया नहीं हैं कि तेरे ऐसे घोटाले को चलने दें। बाहर सामायिक करता है और भीतर न जाने क्या करता है।
एक सेठ सामायिक करने बैठे थे, तब बाहर किसीने दरवाज़ा खटखटाया, सेठानी ने जाकर दरवाज़ा खोला। एक भाई आए थे, उन्होंने पूछा, 'सेठ कहाँ गए हैं?' तब सेठानी ने जवाब दिया, 'उकरडे (कूड़ाकरकट फेंकने का स्थान)। सेठ ने अंदर बैठे-बैठे यह सुना और अंदर जाँच की तो वास्तव में वे उकरडे में ही गया हुआ था! अंदर तो खराब विचार ही चल रहे थे, वे सूक्ष्म कर्म और बाहर सामायिक कर रहे थे, वह स्थूल कर्म। भगवान ऐसी पोल (घोटाला, ग़फलत, अंधेर) नहीं चलने देते। अंदर सामायिक रहता हो और बाहर समायिक न भी हो तो उसका 'वहाँ' पर चलेगा। ये बाहर के दिखावे 'वहाँ' चलें ऐसे नहीं हैं।
भीतर बदलो भाव इस तरह स्थूलकर्म यानी तुझे एकदम गुस्सा आया, तब गुस्सा नहीं लाना फिर भी वह आ जाता है। ऐसा होता है या नहीं होता?
प्रश्नकर्ता : होता है। दादाश्री : वह गुस्सा आया, उसका फल यहीं पर तुरन्त मिल जाता
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
३१
है। लोग कहते हैं कि 'जाने दो न इसे, यह तो है ही बहुत क्रोधी।' अरे कोई तो उसे सामने धौल भी मार देता है। यानी अपयश या और किसी तरह से उसे यहीं पर फल मिल जाता है। यानी गुस्सा होना वह स्थूल कर्म है, और गुस्सा आया उसके भीतर आज का तेरा भाव क्या है कि गुस्सा करना ही चाहिए। वह आनेवाले जन्म का फिर से गुस्से का हिसाब है,
और तेरा आज का भाव है कि गुस्सा नहीं करना चाहिए। तेरे मन में निश्चित किया हो कि गुस्सा नहीं ही करना है, फिर भी गुस्सा हो जाता है, तो तुझे अगले जन्म के लिए बंधन नहीं रहा।
इस स्थूलकर्म में तुझे गुस्सा आया, तो उसकी तुझे इस जन्म में मार खानी पड़ेगी। फिर भी तुझे बंधन नहीं होगा। क्योंकि सूक्ष्मकर्म में तेरा निश्चय है कि गुस्सा करना ही नहीं चाहिए और कोई व्यक्ति किसीके ऊपर गुस्सा नहीं होता, फिर भी मन में कहे कि इन लोगों के ऊपर गुस्सा करें तो ही ये सीधे होंगे, ऐसे हैं। तो उससे वह अगले जन्म में गुस्सेवाला हो जाता है। यानी बाहर जो गुस्सा होता है, वह स्थूल कर्म है, और उस समय भीतर जो भाव होता है, वह सूक्ष्मकर्म है। स्थूल कर्म से बिल्कुल बंधन नहीं है, यदि इसे समझें तो! इसलिए यह साइन्स मैंने नई तरह से रखा है। अभी तक, स्थूल कर्म से बंधन है, ऐसी मान्यता दुनिया में दृढ़ कर दी है और इसीलिए लोग डरते रहते हैं।
इस ज्ञान से संसार सहित मोक्ष । ___ अब घर में स्त्री हो, शादी की हो और मोक्ष में जाना है, तो मन में होता रहता है कि मैंने तो शादी की है, तो अब किस तरह मोक्ष में जा सकूँगा? अरे, स्त्री बाधक नहीं है, तेरे सूक्ष्म कर्म बाधक हैं। ये तेरे स्थूल कर्म कुछ बाधक नहीं हैं। वह मैंने ओपन किया है और यह साइन्स ओपन नहीं करूँ तो भीतर घबराहट-घबराहट और घबराहट रहती है। भीतर अजंपा, अजंपा, अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) रहता है। वे साधु कहते हैं कि हम मोक्ष में जाएँगे। अरे, आप किस तरह मोक्ष में जाओगे? क्या छोड़ना है, वह तो आप जानते नहीं। आपने तो स्थूल को छोड़ा है, आँखों से दिखे, कान से सुनाई दे, वह छोड़ा है। उसका फल तो इस जन्म में
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
कर्म का विज्ञान
ही मिल जाएगा। यह साइन्स नये ही प्रकार का है। यह तो अक्रम विज्ञान है। जिससे इन लोगों को हर प्रकार से फेसीलिटी (सहूलियत) हो गई है, बीवी को छोड़कर थोड़े ही भाग सकते हैं? अरे बीवी को छोड़कर भाग जाएँ और अपना मोक्ष हो, ऐसा हो सकता है क्या? किसीको दुःख देकर अपना मोक्ष हो, ऐसा संभव है क्या?
___ इसलिए बीवी-बच्चों के प्रति सभी फर्ज निभाना और पत्नी जो भी ‘भोजन' दे वह चैन से खाओ, वह सब स्थूल है। यह समझ जाना। स्थूल के पीछे आपका अभिप्राय ऐसा नहीं रहना चाहिए कि जिससे सूक्ष्म में चार्ज हो। इसलिए मैंने पाँच वाक्य आपको आज्ञा के रूप में दिए हैं। भीतर ऐसा अभिप्राय नहीं रहना चाहिए कि यह करेक्ट है, मैं जो करता हूँ, जो भोगता हूँ, वह करेक्ट है। ऐसा अभिप्राय नहीं होना चाहिए। बस इतना ही आपका अभिप्राय बदला कि सबकुछ बदल गया।
इस तरह मोड़ो बच्चों को बच्चे में खराब गुण हों तो माँ-बाप उन्हें डाँटते हैं और कहते फिरते हैं कि, 'मेरा बेटा तो ऐसा है, नालायक है, चोर है।' अरे, वह ऐसा करता है, उस करे हुए को रख न एक तरफ। पर अभी उसके भाव बदल न! उसके भीतर के अभिप्राय बदल न! उसके भाव कैसे बदलने, वह माँबाप को आता नहीं है। क्योंकि सर्टिफाइड माँ-बाप नहीं हैं, और माँ-बाप बन बैठे हैं! बच्चे को चोरी की बुरी आदत पड़ गई हो तो माँ-बाप उसे डाँटते रहते हैं, मारते रहते हैं। इस तरह माँ-बाप एक्सेस (ज़रूरत से ज़्यादा) बोलते हैं हमेशा, एक्सेस बोला हुआ हेल्प नहीं करता। इसलिए बेटा क्या करता है? मन में पक्का करता है कि, 'भले ही बोलते रहें। मैं तो ऐसा करूँगा ही।' यानी इस बेटे को माँ-बाप और अधिक चोर बनाते हैं। द्वापर
और त्रेता और सत्युग में जो हथियार थे, उनका आज कलियुग में लोग उपयोग करने लगे हैं। बेटे को बदलने का तरीका अलग है। उसके भाव बदलने हैं। उस पर प्रेम से हाथ फेरकर प्यार से कहना कि, 'आ बेटे, भले ही तेरी माँ चिल्लाए, वह चिल्लाए, पर तूने इस तरह किसीकी चोरी की, वैसे कोई तेरी जेब में से चोरी करे तो तुझे सुख लगेगा? उस समय
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
३३
तुझे अंदर कैसा दुःख होगा? वैसे ही सामनेवाले को भी दुःख नहीं होगा? इस तरह पूरी थियरी बेटे को समझानी पड़ेगी। एक बार उसके अंदर बैठ जाना चाहिए कि यह गलत है । आप उसे मारते रहते हो, उससे तो बच्चे ढीठ होते जाते हैं। सिर्फ तरीका ही बदलना है। पूरी दुनिया ने स्थूल कर्म को ही समझा है, सूक्ष्म कर्म को समझा ही नहीं है। सूक्ष्म को समझा होता तो यह दशा नहीं होती।
चार्ज और डिस्चार्ज कर्म
प्रश्नकर्ता : स्थूलकर्म और सूक्ष्मकर्म के कर्त्ता अलग-अलग हैं?
दादाश्री : दोनों के कर्त्ता अलग हैं। ये जो स्थूलकर्म हैं, वे डिस्चार्ज कर्म हैं। ये बेटरियाँ होती हैं न, वे चार्ज करने के बाद डिस्चार्ज होती रहती हैं न? हमें डिस्चार्ज नहीं करनी हो, फिर भी वे होती ही रहती हैं न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : वैसे ही ये स्थूलकर्म, वे डिस्चार्ज कर्म हैं । और दूसरे भीतर नये चार्ज हो रहे हैं, वे सूक्ष्म कर्म हैं । इस जन्म में जो चार्ज हो रहे हैं, वे अगले जन्म में डिस्चार्ज होते रहेंगे । और इस जन्म में पिछले जन्म की बेटरियाँ डिस्चार्ज होती रहती हैं, एक मन की बेटरी, एक वाणी की बेटरी और एक देह की बेटरी - ये तीनों बेटरियाँ वर्तमान में डिस्चार्ज होती ही रहती हैं, और भीतर नई तीन बेटरियाँ चार्ज हो रही हैं । यह बोलता हूँ, तो तुझे ऐसा लगता होगा कि 'मैं' ही बोल रहा हूँ। पर नहीं, यह तो रिकॉर्ड बोल रहा है। यह तो वाणी की बेटरी डिस्चार्ज हो रही है । मैं बोलता ही नहीं हूँ और ये सारे जगत् के लोग क्या कहते हैं कि 'मैंने कैसी बात की, मैंने कैसा बोला!' वे सभी कल्पित भाव हैं, इगोइज़म है । सिर्फ वह इगोइज़म (अहंकार) चला जाए तो फिर दूसरा कुछ रहा? यह इगोइज़म, यही अज्ञानता है और यही भगवान की माया है। क्योंकि करता है कोई और, और खुद को ऐसा एडजस्टमेन्ट हो जाता है कि 'मैं ही कर रहा हूँ।'
ये सूक्ष्मकर्म जो अंदर चार्ज होते हैं, वे फिर कम्प्यूटर में जाते हैं
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
कर्म का विज्ञान
एक व्यष्टि कम्प्यूटर है और दूसरा समष्टि कम्प्यूटर है। व्यष्टि में पहले सूक्ष्मकर्म जाते हैं और वहाँ से फिर समष्टि कम्प्यूटर में जाते हैं । फिर समष्टि कार्य करता रहता है। ‘मैं चंदूभाई हूँ', ऐसे रियली स्पिकिंग बोलना उसीसे कर्म बँधते हैं। ‘मैं कौन हूँ', इतना ही यदि समझ गया तो तब से ही सारे कर्मों से छूट गया। अर्थात् यह विज्ञान सरल और सीधा रखा है, नहीं तो करोड़ों उपायों से भी एब्सोल्यूट हुआ जा सके, वैसा नहीं है और यह तो बिल्कुल एब्सोल्यूट थियरम है।
कर्म - कर्मफल - कर्मफल परिणाम
प्रश्नकर्ता : पिछले जन्म के जो चार्ज हो चुके कर्म हैं, वे डिस्चार्ज रूप में इस जन्म में आते हैं। तो इस जन्म के जो कर्म हैं, वे इसी जन्म में डिस्चार्ज के रूप में आते हैं या नहीं?
दादाश्री : नहीं ।
प्रश्नकर्ता : तो कब आएँगे?
दादाश्री : पिछले जन्म के कॉज़ेज़ हैं न, वे इस जन्म के इफेक्ट हैं। इस जन्म के कॉज़ेज़ अगले जन्म के इफेक्ट हैं ।
प्रश्नकर्ता : लेकिन कुछ कर्म ऐसे होते हैं कि यहाँ पर ही भुगतने पड़ते हैं न, आपने ऐसा कहा है, एक बार ।
दादाश्री : वह तो इस जगत् के लोगों को ऐसा लगता है । जगत् के लोगों को क्या लगता है? हं... देख, होटल में बहुत खाता था और उससे मरोड़ हो गए।‘होटल में खाता था, वह कर्म बाँधा, उससे ये मरोड़ हो गए' कहेंगे। जब कि ज्ञानी क्या कहते हैं, वह होटल में किसलिए खाता था? ऐसा किसने सिखाया उसे, होटल में खाना ? किस तरह हुआ ? संयोग खड़े हो गए। पहले जो योजना की हुई थी, वह योजना परिणाम में आई, इसलिए वह होटल में गया। वे जाने के संयोग सारे मिल आते हैं। इसलिए अब छूटना हो तो छूटा नहीं जा सकता। उसके मन में ऐसा होता है कि अरे ऐसा क्यों होता होगा ?
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
तब यहाँ के भ्रांतिवाले को ऐसा लगता है कि यह काम किया इसलिए ऐसा हुआ। भ्रांतिवाले ऐसा समझते हैं कि यहाँ कर्म बाँधते हैं और यहीं भोगते हैं। ऐसा समझते हैं। परन्तु यह खोजबीन नहीं करते कि खुद को नहीं जाना हो, फिर भी किस तरह जाता है? उसे नहीं जाना है फिर भी किस प्रकार, किस नियम से वह जाता है, वह हिसाब है।
तब हम और अधिक सिखाते हैं कि इन बच्चों को मारना मत बिना बात के, लेकिन फिर से ऐसा भाव नहीं करे, वैसा करो। फिर से योजना नहीं करे, वैसा करो। चोरी खराब है, होटल में खाना खराब है.... ऐसा उसे ज्ञान उत्पन्न हो, ऐसा करो, ताकि फिर से अगले जन्म में ऐसा नहीं हो। यह तो मारते रहते हैं और बेटे से कहेंगे, 'देख! नहीं जाना है तुझे', तो उसका मन उल्टा चलता है, 'भले ही ये कहें, हम तो जाएँगे, बस।' बल्कि हठ पकड़ता है और उससे ही ये कर्म उल्टे होते हैं न! माँ-बाप उल्टा करवाते हैं।
प्रश्नकर्ता : पहले जो भाव किए थे, इसलिए होटल में गया, अब होटल में गया, फिर वहाँ पर खाया और फिर मरोड़ हो गए, यह सब डिस्चार्ज है?
दादाश्री : वह होटल में गया, वह डिस्चार्ज है और वे मरोड़ हो गए, वह भी डिस्चार्ज है। डिस्चार्ज खुद के बस में नहीं रहते, कंट्रोल नहीं रहता, आउट ऑफ कंट्रोल हो जाते हैं।
अब एक्ज़ेक्ट कर्म की थियरी किसे कहते हैं, ऐसा यदि समझे, तो वह मनुष्य पुरुषार्थ धर्म को समझ सकेगा। इस जगत् के लोग जिसे कर्म कहते हैं, उसे कर्म की थ्योरी कर्मफल कहती है। होटल में खाने का भाव होता है, पूर्वजन्म में कर्म बाँधा था, उसके आधार पर खाता है। वहाँ यह कर्म कहलाता है। उस कर्म के आधार पर इस जन्म में वह बार-बार होटल में खाता रहता है। वह कर्मफल आया कहलाता है, और ये मरोड़ हुए, उसे जगत् के लोग कर्मफल आया ऐसा मानते हैं, जब कि कर्म की थ्योरी क्या कहती है, ये मरोड़ हुए, वह कर्मफल का परिणाम आया।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान वेदांत की भाषा में, होटल में खाने के लिए आकर्षित होता है वह पूर्व में बाँधे हुए संचित कर्म के आधार पर है, अभी भीतर बिल्कुल ना है फिर भी होटल में जाकर खा आता है, वह प्रारब्ध कर्म और उसका फिर वापिस इस जन्म में ही परिणाम आता है और मरोड़ हो जाते हैं वह क्रियमाण कर्म।
होटल में खाता है तब मज़ा आए, उस समय भी बीज डालता है और मरोड़ होते हैं, तब भोगते समय भी फिर से बीज डालता है। इस तरह कर्मफल के समय और कर्मफल परिणाम के समय दो बीज डालता
संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म प्रश्नकर्ता : वह सब पूर्वजन्म के संचितकर्म पर आधारित है?
दादाश्री : ऐसा है न, संचित कर्म वगैरह सारे शब्द समझने की ज़रूरत है। यानी संचितकर्म, कॉज़ेज़ हैं और प्रारब्ध कर्म इन संचित कर्मों का इफेक्ट है और इफेक्ट का फल तुरन्त ही मिल जाता है, वह क्रियमाण कर्म। संचित कर्म का फल पचास-साठ-सौ वर्ष के बाद उसका काल परिपक्व हो तब मिलता है।
संचित कर्म का यह फल है। संचितकर्म फल देते समय संचित नहीं कहलाता। फल देते समय प्रारब्धकर्म कहलाता है। वही के वही संचित कर्म जब फल देने के लिए तैयार होते हैं, तब वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। संचित अर्थात् पेटी (संदूक) में रखी हुई गड्डियाँ । वे गड्डियाँ यदि थोड़ा बाहर निकालें, वह प्रारब्ध। यानी प्रारब्ध का अर्थ क्या है कि जो फल देने को सम्मुख हुआ वह प्रारब्ध। और फल देने के लिए सम्मुख नहीं हुआ, अभी तो कितने ही काल के बाद फल देगा, तब तक वे संचित हैं सारे। संचित पड़े रहते हैं सारे। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे हल आता जाता है, वैसेवैसे फल देते हैं।
और क्रियमाण तो आँखों से दिखते हैं। पाँच इन्द्रियों से अनुभव में
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
३७
आते हैं, वे क्रियमाण कर्म । इस तरह ये कर्म तीन प्रकार से पहचाने जाते हैं। लोग कहते हैं देखो न, इसने दो धौल मार दी । धौल मारनेवाले को देखते हैं, धौल खानेवाले को देखते हैं, वह क्रियमाण कर्म है । अब क्रियमाण कर्म अर्थात् क्या? फल देने के लिए जो सम्मुख हुआ, वह यह फल। उसे फल ऐसा आया कि दो धौल दे दीं। और मार खानेवाले को फल ऐसा आया, उसने दो धौल खा लीं। अब उस क्रियमाण का वापिस फल आता है । तो जो धौल मारी थी, उससे फिर मन में बदले की भावना रखता है कि मेरी पकड़ में आए, उस घड़ी देख लूँगा। इसलिए फिर वापिस वह उसका बदला लेता है । और फिर वापिस नये बीज डलते ही जाते हैं । नये बीज तो डालता ही जाता है भीतर । बाक़ी सिर्फ संचित तो ऐसे ही पड़ा हुआ, स्टोक में रखा हुआ माल । पुरुषार्थ वह वस्तु अलग है। क्रियमाण तो प्रारब्ध का रिजल्ट है, प्रारब्ध का फल है।
प्रश्नकर्ता : इस पुरुषार्थ को आप कर्मयोग कहते हैं?
दादाश्री : कर्मयोग समझना चाहिए। कर्मयोग भगवान ने जो लिखा है और लोग जिसे कर्मयोग कहते हैं, उन दोनों में आकाश-पाताल जितना फर्क है।
पुरुषार्थ अर्थात् कर्मयोग है, लेकिन कर्मयोग कैसा? ऑन पेपर। योजना, वह कर्मयोग कहलाता है । वह कर्मयोग जो हुआ, वह फिर हिसाब बँधा, उसका फल संचित कहलाता है और संचित भी जो है वह योजना में ही है, परन्तु जब फल देने को सम्मुख होता है तब प्रारब्ध कहलाता है, और प्रारब्ध फल दे तब क्रियमाण खड़ा होता है । पुण्य हो तब क्रियमाण अच्छे होते हैं, पाप आएँ तब क्रियमाण उल्टे होते हैं।
अनजाने में किए हुए कर्मों का फल मिलता है क्या ?
प्रश्नकर्ता : जान-बूझकर किए हुए गुनाहों का दोष कितना लगता है? और अनजाने में की हुई भूलों का दोष कितना लगता होगा? अनजाने में की हुई भूलों के लिए माफ़ी मिलती होगी न ?
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
दादाश्री : कोई कुछ ऐसे पागल नहीं हैं कि यों ही माफ़ कर दे। आपसे अनजाने में कोई व्यक्ति मर गया । कोई कुछ बेकार नहीं बैठा कि माफ़ करने आए। अब अनजाने में अँगारों में हाथ पड़े तो क्या होगा ? प्रश्नकर्ता : जल जाएँगे ।
३८
T
दादाश्री : तुरन्त फल ! अनजाने में करो या जान- -बूझकर करो प्रश्नकर्ता : अनजाने में की गई भूलों को इस तरह भुगतना पड़ता है, तो जानने के बाद कितना भुगतना पड़ेगा ?
दादाश्री : हाँ, इसलिए वही मैं आपको समझाता हूँ कि अनजाने में किए गए कर्म किस तरह भुगतते हैं? तब कहे, एक आदमी ने बहुत पुण्यकर्म किए हों, राजा बनने के पुण्यकर्म किए हों, पर अनजाने में किए हों, समझकर नहीं। लोगों को देख-देखकर वैसे कर्म खुद ने भी किए। वह फिर समझे बिना राजा बनता है, उस तरह के कर्म बाँधता है। अब वह पाँच वर्ष की उम्र में राजगद्दी पर आता है, फादर ऑफ हो गए इसलिए । और ग्यारह वर्ष की उम्र तक, यानी उसे छह वर्ष तक राज्य करना था, इसलिए ग्यारहवें वर्ष में गद्दी पर से उतर गया । अब दूसरे व्यक्ति को जो २८ वर्ष में राजा बना और ३४ में वर्ष में राज्य छूट गया । उनमें से किसने अधिक सुख भोगा? छह वर्ष दोनों को राज्य मिला।
प्रश्नकर्ता : जो २८वें वर्ष में आया और ३४वें वर्ष में गया उसने।
दादाश्री : उसने जानते हुए पुण्य बाँधा था, इसलिए यह जानते हुए भोगा। और उस बच्चे ने अनजाने में पुण्य किया था, वह अनजाने में भोगा । इस तरह अनजाने में पाप बाँधो तो अनजाने में भुगत लिया जाता है और अनजाने में पुण्य करो तो अनजाने में भुगत लिया जाता है। मज़ा नहीं आता । समझ में आता है न?
अनजाने में किए हुए पाप के बारे में मैं आपको समझाऊँ। इस तरफ दो तिलचिट्टे जा रहे थे, बड़े-बड़े तिलचट्टे और इस तरफ दो मित्र जा रहे थे। तब एक मित्र का पैर तिलचट्टे पर पड़ा, और वह कुचला
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
३९
गया और दूसरे मित्र ने तिलचिट्टा देखा और उसे मसलकर मार दिया । दोनों ने क्या काम किया?
प्रश्नकर्ता : तिलचट्टे को मारा ।
दादाश्री : दोनों खूनी माने जाएँगे, कुदरत के वहाँ । उन तिलचिट्टों के परिवारवालों ने शिकायत की कि हम दोनों के पति को इन लड़कों ने मार दिया है। दोनों का गुनाह एक-सा है। दोनों गुनहगार, खूनी की तरह ही पकड़े गए। खून करने का तरीका अलग-अलग है, पर अब उसका फल देते समय दोनों को क्या फल मिलता है? तब कहें, दोनों को दो धौल और चार गालियाँ, ऐसी सजा हुई। अब वह जिसने यह सब अनजाने में किया था, वह व्यक्ति दूसरे जन्म में मज़दूर बनता है, तो उसे किसीने दो धौल मार दीं और चार गालियाँ दे दीं तो थोड़ी ही दूर जाकर वे उसने झाड़ दीं और दूसरा, अगले जन्म में गाँव का मुखिया था, बहुत बड़ा, अच्छे से अच्छा आदमी। उसे किसीने दो धौल मारीं और चार गालियाँ दीं, तो कितने ही दिनों तक वह सोया नहीं । कितने दिन भोगा ! इसने तो जानबूझकर मारा था, मज़दूर ने अनजाने में किया था । इसीलिए सोच-समझकर करना यह सब। जो करोगे न, वह ज़िम्मेदारी खुद की ही है। यू आर होल एन्ड सोल रिस्पोन्सिबल । गॉड इज़ नोट रिस्पोन्सिबल एट ऑल। (आप ही संपूर्ण जिम्मेदार हो, भगवान बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं हैं ।)
प्रारब्ध भुगतने पर ही छुटकारा
प्रश्नकर्ता : मुख्य तो अपने ही कर्म बाधक है?
दादाश्री : और कौन तब ! और कोई करता नहीं है। बाहरवाला कोई करता नहीं है। आपके ही कर्म परेशान करते हैं आपको । समझदार वाइफ लाए और फिर पागल हो जाती है । तो वह किसीने कर दी ? पति केही कर्म के उदय से पागल हो जाती है । इसलिए हमें मन में यह समझ जाना चाहिए कि मेरी ही गलती हैं, मेरे ही हिसाब हैं, और मुझे चुका देने हैं हर किसीको। आ फँसे भाई, आ फँसे हैं ।
खुद को भुगते बिना छुटकारा नहीं है। प्रारब्ध हमें भी भुगतना पड़ता
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
कर्म का विज्ञान है, सभी को, महावीर प्रभु भी भुगतते थे। भगवान महावीर को तो देवलोग परेशान करते थे, वे भी भुगतते थे। बड़े-बड़े देवलोग खटमल डालते थे।
प्रश्नकर्ता : वह उन्हें प्रारब्ध भुगतना पड़ा न?
दादाश्री : कोई चारा ही नहीं न! वे खुद समझते थे कि ये देवलोग कर रहे हैं, फिर भी प्रारब्ध मेरा है।
कौन-से कर्म से देह को दुःख? प्रश्नकर्ता : कौन-से कर्मों के आधार पर शरीर के रोग होते हैं?
दादाश्री : लूला-लँगड़ा हो जाता है न! हाँ, वह सब क्या हुआ है? वह किसका फल है? वह हम कान का दुरुपयोग करें तो कान का नुकसान हो जाता है। आँखों का दुरुपयोग करें तो आँखें चली जाती है, नाक का दुरुपयोग करें तो नाक चली जाती है, जीभ का दुरुपयोग करें तो जीभ खराब हो जाती है, दिमाग़ का दुरुपयोग करें तो दिमाग़ खराब हो जाता है, पैर का दुरुपयोग करें तो पैर टूट जाता है, हाथ का दुरुपयोग करें तो हाथ टूट जाता है। यानी जिसका दुरुपयोग करें, वैसा फल भुगतना पड़ता है, यहाँ पर।
निर्दोष बच्चों को भुगतना क्यों? प्रश्नकर्ता : कईबार ऐसा देखने में आया है कि छोटे बच्चे जन्म लेते हैं, तब से ही अपंग और ऐसे होते हैं। अपंग होते हैं। कुछ छोटे बच्चे कुतुबमीनार और हिमालय-दर्शन की दुर्घटना में मर जाते हैं। तो इन छोटेछोटे बच्चों ने क्या पाप किया होगा, कि उन्हें ऐसा होता है?
दादाश्री : पाप किया हुआ ही था, उसका हिसाब चुक गया। इसलिए डेढ़ वर्ष का हुआ, माँ-बाप के साथ का सारा हिसाब पूरा हुआ, इसलिए चला गया। हिसाब चुका देना चाहिए। यह हिसाब चुकाने के लिए आते हैं।
प्रश्नकर्ता : माँ-बाप के किए हुए दुष्कृत्य का फल देने के लिए
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान वह बालक आया था?
दादाश्री : माँ-बाप के साथ का जो हिसाब नियोजित है, जितना दुःख देनी हो तो दुःख देकर जाता है और सुख देना हो तो सुख देकर जाता है और एक-दो वर्ष का होकर मर जाता है, तो थोड़ा ही दुःख देकर जाता है और एक बाईस वर्ष का शादी के बाद मर जाता है तो अधिक दुःख देता है। ऐसा होता है या नहीं होता है?
प्रश्नकर्ता : ऐसा तो होता है, ठीक है।
दादाश्री : यानी ये दु:ख देने के लिए होते हैं और कुछ हैं वे बडी उम्र के होकर सुख देते हैं। ठेठ तक, पूरी ज़िन्दगी सुख देते हैं। ये सुख और दुःख देने के लिए ही आमने-सामने सारे संबंध हैं। ये रिलेटिव संबंध
ह
आज के कुकर्मों का फल इसी जन्म में? प्रश्नकर्ता : यह जो कर्म का फल आता है, तो मानो कि उदाहरण के तौर पर हमने किसीके विवाह होने में रुकावट डाली, तो फिर वापिस वैसा ही फल हमें अगले जन्म में मिलेगा? अपने विवाह होने में क्या वही मनुष्य रुकावट डालेगा? इस तरह से होता है क्या, कर्म का फल? उसी प्रकार से और उसी डिग्री का?
दादाश्री : नहीं, इसी जन्म में मिलता है, विवाह होने में दरार डालो, वह तो प्रत्यक्ष जैसा ही कहलाता है और प्रत्यक्ष का फल यहीं पर मिल जाता है।
प्रश्नकर्ता : हमने किसीके विवाह होने में रुकावट डाली, उससे पहले हमने विवाह कर लिया हो, तो कहाँ से मिलेगा?
दादाश्री : नहीं, यह उसी तरह का ही फल मिले, ऐसा नहीं है। आपने उसका जो मन दुखाया, वैसा आपका मन दुखने का रास्ता मिलेगा। ये तो किसीको बेटियाँ नहीं हों, वह किस तरह फल पाएगा? दूसरे लोगों की लड़कियों के विवाह होने में बाधा डाले और खुद की लड़कियाँ होती
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
कर्म का विज्ञान
नहीं और इस जन्म में ही कर्म का फल मिल जाता है । इस जन्म में ही फल मिले बगैर रहता नहीं है । ऐसा है न, परोक्ष कर्म का फल अगले जन्म में मिलता है और प्रत्यक्ष का फल इस जन्म में मिलता है।
प्रश्नकर्ता : परोक्ष शब्द का अर्थ क्या है?
दादाश्री : जिसका हमें पता नहीं चलता वह कर्म ।
प्रश्नकर्ता : किसी व्यक्ति का दस लाख रुपये का नुकसान करने का भाव मैंने किया हो तो फिर मुझे वापिस वैसा ही नुकसान मिलेगा?
दादाश्री : नहीं, नुकसान नहीं । वह तो दूसरे रूप में, आपको उतना ही दुःख होगा। जितना दुःख उसे आपने दिया उतना ही दुःख आपको होगा । फिर बेटा पैसे खर्च कर दे और दुःखी करे। या और किसी भी तरह से, परन्तु उतना ही दुःख होगा आपको | वह सारा यह हिसाब नहीं है, बाहर का हिसाब नहीं है। इसलिए यहाँ ये सब भिखारी बोलते हैं न, रास्ते में एक आदमी बोल रहा था, 'यह जो हम भीख माँग रहे हैं, वह हमने दिया है, वही आप हमें वापिस देते हो' खुला बोलता है वह तो । 'आप देते हो, वह हमने दिया हुआ है वही देते हो और नहीं तो हम आपको देंगे' कहता है। दोनों में से एक तो होगा ! नहीं, ऐसा नहीं है । आपने किसीके दिल को ठंडक पहुँचाई तो आपके दिल को ठंडक पहुँचेगी। आपने उसका दिल दुःखाया तो आपका दुःखेगा, बस । ये सभी कर्म अंत में राग-द्वेष में जाते हैं। राग-द्वेष का फल मिलता है । राग का फल सुख और द्वेष का फल दुःख मिलेगा।
प्रश्नकर्ता : यह जो आपने कहा न कि राग का फल सुख और द्वेष का फल दुःख तो यह परोक्ष फल की बात है या प्रत्यक्ष फल की ? दादाश्री : प्रत्यक्ष ही है सिर्फ । ऐसा है न, राग से पुण्य बँधता है और पुण्य से लक्ष्मी मिली। अब लक्ष्मी मिली परन्तु खर्च होते समय वापिस दुःख देकर जाती है, इसलिए ये सभी सुख जो आप लेते हो, वे लोन पर लिए हुए सुख हैं । इसलिए यदि फिर पेमेन्ट करना हो तो ही लेना यह सुख। हाँ, तो ही सुख चखना, नहीं तो चखना मत। अब आपमें चुकाने
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
४३
की शक्ति नहीं है, अब वापिस पेमेन्ट करने की, तो वह चखना बंद कर दो। बाक़ी, ये लोनवाले सुख हैं सारे। किसी भी प्रकार का सुख वह लोन पर लिया हुआ है।
पुण्य का फल सुख, परन्तु सुख भी लोनवाला और पाप का फल दुःख, दुःख भी लोनवाला। अर्थात् यह सारा लोनवाला है। इसलिए सौदा नहीं करना हो तो मत करना। इसलिए पुण्य और पाप हेय (त्याज्य) माने गए हैं।
प्रश्नकर्ता : यह पहले दिया हआ हो और अभी वापिस लेते हैं. इसलिए हिसाब चुक गया। यानी उसे तो लोन पर लिया हुआ नहीं कहा जाएगा न?
दादाश्री : अभी जो सुख चखते हो वे सारे वापिस आए हुए नहीं हैं, परन्तु यदि ये सभी चखते हो, तो पेमेन्ट करना पड़ेगा। अब पेमेन्ट किस तरह करना पड़ेगा? अच्छा आम खाया, तो उस दिन खुश हो गया और सुख उत्पन्न हुआ हमें। आनंद में दिन गुज़रा। परन्तु दूसरी बार आम खराब आएगा, तो उतना ही दुःख आएगा। परन्तु यदि इसमें सुख नहीं लो, तो वह दु:ख नहीं आएगा।
प्रश्नकर्ता : उसमें मूर्छा नहीं हो तो? दादाश्री : तो फिर आम खाने में हर्ज नहीं है।
साधो सास के साथ सुमेल प्रश्नकर्ता : सास के साथ मेरा बहुत टकराव होता है, उससे किस तरह छूढूँ?
दादाश्री : एक-एक कर्म से मुक्ति होनी चाहिए। सास परेशान करे तब हर एक बार कर्म से मुक्ति मिलनी चाहिए। तो उसके लिए हमें क्या करना चाहिए? सास को निर्दोष देखना चाहिए, कि सास का तो क्या दोष? मेरे कर्म का उदय है, इसलिए वे मिले हैं। वे तो बेचारे निमित्त हैं। तो उस कर्म से मुक्ति हुई और यदि सास का दोष देखा तो कर्म बढ़े, फिर
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
कर्म का विज्ञान उसका तो कोई क्या करे? सामनेवाले के दोष दिखें, तो कर्म बँधते हैं और खुद के दोष दिखें तो कर्म छूटते हैं।
अपना कर्म बँधे नहीं उस तरह हमें रहना चाहिए, इस दुनिया से दूर रहना चाहिए। ये कर्म बाँधे थे, इसलिए तो ये मिले हैं। ये अपने घर में कौन इकट्ठे हुए हैं? कर्म के हिसाब बँधे हुए हैं, वे ही सब इकट्ठे हुए हैं और फिर हमें बाँधकर मारते भी हैं! हमने निश्चित किया हो कि मुझे इसके साथ बोलना नहीं है, फिर भी सामनेवाला मुँह में उँगलियाँ डालकर बुलवाता रहता है। अरे, उँगली डालकर किसलिए बुलवाता है? उसका नाम बैर! सारे पूर्व के बैर! किसी जगह पर देखा है ऐसा?
प्रश्नकर्ता : सब ओर वही दिखता है न!
दादाश्री : इसीलिए मैं कहता हूँ न, कि वहाँ से हट जाओ और मेरे पास आ जाओ। यह जो मैंने पाया है वह आपको दे दूँ, आपका काम हो जाएगा और छुटकारा हो जाएगा। बाक़ी, छुटकारा होगा नहीं।
हम किसीके दोष नहीं निकालते, परन्तु ध्यान में रखते हैं कि देखो यह दुनिया क्या है? सभी तरह से इस दुनिया को मैंने देखा है। बहुत तरह से देखा है। कोई दोषित दिखता है, वह अभी तक अपनी भूल है। कभी न कभी निर्दोष तो देखना ही पड़ेगा न? अपने हिसाब के कारण ही है यह सब। इतना थोड़ा-सा समझ जाओ न, तो भी बहुत काम आएगा।
जहाँ अपना प्रगाढ़ हो वहाँ, हमारे प्रगाढ़ कर्मों का उदय आता है और वह अपनी चिपकन छुड़वाने आते हैं। सारा अपना ही हिसाब है। किसीने गाली दी तो वह क्या अव्यवहार है? व्यवहार है। 'ज्ञानी' तो कोई गालियाँ दे तो खुद खुश होते हैं कि बंधन से मुक्त हुए। जब कि अज्ञानी धक्के मारता है और नया कर्म बाँधता है। सामनेवाला गालियाँ देता है, वह तो अपने ही कर्मों का उदय है। सामनेवाला तो निमित्त मात्र है, वैसी जागृति रहे तो नया कर्म नहीं बँधता। हर एक कर्म उसकी निर्जरा का निमित्त लेकर आया हुआ होता है। किस-किसके निमित्त से निर्जरा होगी, वह निश्चित होता है। उदयकर्म में राग-द्वेष नहीं करें, उसका नाम धर्म।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
खुद ने ही डाले अंतराय? प्रश्नकर्ता : हम सत्संग में आते हैं, तब वहाँ कोई व्यक्ति अवरोध करता है। वह अवरोध अपने कर्म के कारण है?
दादाश्री : हाँ। आपकी भूल नहीं हो तो कोई आपका नाम नहीं लेगा। आपकी भूलों का ही परिणाम है। खुद के ही बाँधे हुए अंतराय कर्म हैं। किए हुए कर्मों के सारे हिसाब भुगतने हैं।
प्रश्नकर्ता : वह भूल हमने पिछले जन्म में की थी? दादाश्री : हाँ, पिछले जन्म में।
प्रश्नकर्ता : वर्तमान में मेरा वर्तन उनके प्रति अच्छा है, फिर भी वे बोलते हैं, खराब व्यवहार करते हैं, वह पिछले जन्म का है?
दादाश्री : पिछले जन्म के कर्म यानी क्या? योजना के रूप में किए हुए होते हैं। यानी मन के विचार से कर्म किए होते हैं, वे अभी रूपक में आते हैं और हमें वह कार्य करना पड़ता है। नहीं करना हो तो भी करना ही पड़ता है। हमारे पास कोई चारा ही नहीं रहता। वैसे कार्य करते हैं। वह पिछली योजना के आधार पर करते हैं और फिर उसका फल वापिस भुगतना पड़ता है।
पति-पत्नी के टकराव
खटमल काटते हैं, वे तो बेचारे बहुत अच्छे हैं, परन्तु यह पति पत्नी को काटता है, पत्नी पति को काटती है, वह बहुत पीड़ाकारी होता है। काटते हैं या नहीं काटते?
प्रश्नकर्ता : काटते हैं।
दादाश्री : तो वह काटना बंद करना है। खटमल काटते हैं, वे तो काटकर चले जाते हैं। बेचारा वह भीतर तृप्त हुआ कि चला जाता है। पर पत्नी तो हमेशा काटती रहती है। एक व्यक्ति तो मुझे कहता है, 'मेरी वाइफ मुझे साँपिन की तरह काटती है।' तब फिर मुए, शादी किसलिए की थी
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
कर्म का विज्ञान उस साँपिन के साथ! तो वह खुद साँप नहीं है मुआ? ऐसे ही साँपिन आती है कोई? साँप हो तभी साँपिन आती है न?
प्रश्नकर्ता : उसके कर्म में लिखा होगा इसलिए उसे भुगतना ही पड़ा, इसलिए वह काटती है, उसमें पत्नी की भूल नहीं है!
दादाश्री : बस । यानी कि ये कर्म के भुगतान हैं सारे। इसलिए ऐसी वाइफ मिल जाती है, ऐसा पति मिल जाता है। सास ऐसी मिल जाती हैं। नहीं तो इस दुनिया में कितनी अच्छी सास होती है। पति कैसे अच्छे होते हैं! कितनी अच्छी पत्नियाँ होती हैं, और हमें ही ऐसे टेढ़े क्यों मिले?
यह तो पत्नी के साथ झगड़ा करता रहता है। अरे, तेरे कर्म का दोष है। अर्थात् हमारे लोग निमित्त को काटने दौड़ते हैं। पत्नी, वह निमित्त है। निमित्त को किसलिए काटते हो? निमित्त को काटने दौड़ता है, उसमें भला होता है कभी? उल्टी गतियों में जाता है फिर। यह तो लोगों की क्या गति होनेवाली है वह कहते नहीं है इसलएि डरते नहीं। यदि कह दें न कि चार पैर और ऊपर से पूँछ मिलेगी, तो अभी सीधे हो जाएंगे।
प्रश्नकर्ता : उसमें किसका कर्म खराब समझें? दोनों पति-पत्नी लड़ते-झगड़ते हों, उसमें?
दादाश्री : दोनों में से जो उकता जाए, उसका।
प्रश्नकर्ता : तब उनमें से तो कोई ऊबता ही नहीं, वे तो लड़ते ही रहते हैं।
दादाश्री : तो दोनों का एक सा। नासमझी से सब होता है। प्रश्नकर्ता : और वह समझ में आ जाए तो दुःख ही नहीं है न
कुछ!
दादाश्री : उसे समझें तो कोई दुःख ही नहीं है। यह तो ऐसा है, एक लड़का कंकड़ मारता है तो फिर उसे मारने दौड़ता है और गुस्सा हो जाता है एकदम। गुस्सा हो जाता है या नहीं? और पहाड़ पर से कंकड़
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
सिर पर गिरे और खून निकले तो ? किस पर गुस्सा करेगा?
प्रश्नकर्ता : किसीके ऊपर नहीं ।
४७
दादाश्री : उसी तरह यह है । हमेशा ही जो मारनेवाला है न वह निमित्त ही है, यह तो भान नहीं है इसलिए गुस्सा करता है! इस तरह उसे निमित्त समझे तो दुःख ही नहीं है !
सुख देकर सुख लो
जैसे हम बबूल उगाएँ और फिर उसमें से आम की आशा रखें तो नहीं चलेगा न? जैसा बोते हैं, वैसा फल मिलता है । जैसे-जैसे कर्म किए हैं, वैसा फल हमें भुगतना है । अभी किसीको गालियाँ दीं, उस दिन से गाली देनेवाला इस ताक में ही रहता है कि कब मिले और वापिस दे दूँ। लोग बदला लेते हैं, इसलिए ऐसे कर्म मत करना कि लोग दुःखी हों। आपको यदि सुख चाहिए तो सुख दो।
I
कोई दो गालियाँ दे जाए तो क्या करना चाहिए? जमा कर लेना पहले दी हैं, वे वापिस दे गया है और यदि पसंद हों तो दूसरी दो-पाँच गालियाँ देना, और नहीं पसंद हों तो उधार मत देना । नहीं तो वह वापिस देगा तब सहन नहीं होगा । इसलिए जो-जो दे, उसे जमा करना।
इस दुनिया में अन्याय नहीं है । बिल्कुल एक सेकन्ड भी न्याय से बाहर नहीं गई है यह दुनिया । इसलिए आप यदि ठीक ढंग से रहोगे तो आपका कोई नाम लेनेवाला नहीं है । हाँ, दो गालियाँ देने आए, तो ले लो। लेकर जमा कर लो और कह दो कि यह हिसाब पूरा हो गया ।
क्लेश, वह नहीं है उदयकर्म
'समझ लिया' तो किसे कहते हैं, कि घर में मतभेद नहीं हों, मनभेद नहीं हों, क्लेश-झगड़े नहीं हों। यह तो महीने में एकाध दिन क्लेश हो जाता है या नहीं हो जाता घर में? फिर यह जीवन कैसे कहलाए ? इससे तो आदिवासी अच्छी तरह जीते हैं ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान प्रश्नकर्ता : पर उदयकर्म के अधीन होगा, तो क्लेश-कंकास होगा ही?
दादाश्री : नहीं, क्लेश उदयकर्म के अधीन नहीं है, परन्तु अज्ञान से खडे होते हैं। क्लेश खड़े होते हैं और उससे नये कर्मबीज पड़ते हैं। उदयकर्म क्लेशवाला नहीं होता। अज्ञानता के कारण खुद यहाँ किस तरह से रहे, वह जानता नहीं है, इसलिए क्लेश हो जाता है।
अभी मेरा एक खास फ्रेन्ड हो, वह ऑफ हो गया, वैसी खबर मुझे यहाँ लाकर दो, यानी तुरन्त ही यह क्या हुआ, ज्ञान से मुझे उसका पृथ्थकरण हो जाता है, इसलिए मुझे फिर क्लेश होने का कोई कारण ही नहीं है न! यह तो अज्ञान उलझा देता है कि मेरा दोस्त मर गया, और वही सब क्लेश करवाता है!
यानी क्लेश मतलब अज्ञानता। अज्ञानता से सारे क्लेश खड़े होते हैं। अज्ञानता जाए तो क्लेश दूर हो जाए।
___ यह सब क्या है, वह जान लेना चाहिए। साधारण रूप से अपने घर में एक मटकी हो, उसे बच्चा फोड़ डाले तो कोई क्लेश नहीं करता और काँच का ऐसा बर्तन हो, वह फोड़ डाले तो? पति क्या कहता है पत्नी को? तू सँभालती नहीं है इस बच्चे को, तो मुए मटकी के लिए क्यों नहीं बोला? तब कहे, वह तो डी-वेल्यु थी। उसकी क़ीमत ही नहीं थी। क़ीमत नहीं हो तो हम क्लेश नहीं करते, और क़ीमतवाले में क्लेश करते हैं न! चीजें तो दोनों ही उदयकर्म के अधीन फूटती हैं न! पर देखो हम मटकी के लिए क्लेश नहीं करते!
एक व्यक्ति के दो हज़ार रुपये खो जाएँ, तब उसे मानसिक चिंताउपाधि (बाहर से आनेवाले दुःख) होती है। दूसरे व्यक्ति के खो जाएँ तो वह कहेगा, 'यह कर्म का उदय होगा तो हुआ अब।' इसलिए ऐसी समझ हो तो हल लाता है, नहीं तो क्लेश हो जाता है। पूर्वजन्म के कर्मों में क्लेश नहीं होता। क्लेश तो अभी की अज्ञानता का फल है।
कुछ लोगों के दो हज़ार चले जाएँ तो भी कुछ असर नहीं होता,
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
४२
ऐसा होता है या नहीं होता? कोई दुःख उदयकर्म के अधीन नहीं होता। सभी दुःख अपनी अज्ञानता से हैं।
कुछ लोग, बीमा नहीं करवाया हो और गोडाउन जल जाए, उस घड़ी वे शांत रह सकते हैं, अंदर भी शांति रह सकती है, बाहर और अंदर दोनों तरह से, और कुछ लोग तो अंदर दुःख और बाहर भी दुःख दिखाते हैं। वह सारी अज्ञानता, नासमझी है। वह गोडाउन तो जलनेवाला ही था। इसमें नया है ही नहीं। फिर तू सिर फोड़कर मर जाए, फिर भी उसमें बदलाव होनेवाला नहीं है।
प्रश्नकर्ता : ये किसी भी वस्तु के परिणाम को अच्छी तरह स्वीकारना चाहिए?
दादाश्री : हाँ, पोज़िटिव लेना, पर वह ज्ञान हो तो पोज़िटिव लेता है। नहीं तो फिर बुद्धि तो नेगेटिव ही देखती है। यह पूरा जगत् दुःखी है। मछली छटपटाए उस तरह छटपटा रहे हैं। इसे जीवन कैसे कहा जाए फिर? समझने की ज़रूरत है, जीवन जीने की कला जानने की ज़रूरत है। सभी के लिए कहीं मोक्ष नहीं है, जीवन जीने की कला, वह तो होनी चाहिए
न
.
अमंगल पत्र, पोस्टमेन का क्या गुनाह? सारा दुःख नासमझी का ही है, इस जगत् में! खुद ने ही खड़ा किया हुआ है सारा, नहीं दिखने से! जले तब कहे न कि भाई, आप क्यों जल गए? तब कहता है, 'भूल से जल गया, क्या जान-बूझकर जलूँगा?' वैसे ही ये सारे दुःख भूल के कारण हैं। सारे दुःख अपनी भूल का परिणाम हैं। भूल चली जाएगी तो हो चुका।
___ प्रश्नकर्ता : प्रगाढ़ कर्म होते हैं, उसीके कारण हमें दुःख भुगतना पड़ता है?
दादाश्री : अपने ही किए हुए कर्म हैं, इसलिए अपनी ही भूल है। किसी अन्य का दोष इस जगत् में है ही नहीं। दूसरे तो निमित्त मात्र हैं।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
कर्म का विज्ञान
दुःख आपका है और सामनेवाले निमित्त के हाथों से दिया जा रहा है। पिताजी मर गए और चिट्ठी पोस्टमेन देकर जाता है, उसमें पोस्टमेन का क्या दोष?
पूर्वजन्म के ऋणानुबंधी
प्रश्नकर्ता : अपने जो रिश्तेदार होते हैं, अथवा तो वाइफ हो, बच्चे हों, आज अपने जो रिश्तेदार, ऋणानुबंधी हैं, उनके साथ अपना कुछ पूर्वजन्म का कोई संबंध होता है, इसलिए मिलते हैं?
दादाश्री : सही है। ऋणानुबंध के बिना तो कुछ भी होता ही नहीं न! सब हिसाब हैं। या तो हमने उन्हें दुःख दिया है या उन्होंने हमें दुःख दिया है। उपकार किए होंगे, तो उसका फल अभी मीठा आएगा । दुःख दिया होगा, उसका कड़वा फल आएगा।
प्रश्नकर्ता : मान लो कि अभी मुझे कोई आदमी परेशान करता है और मुझे दुःख होता है, तो यह जो दुःख मुझे होता है वह तो मेरे ही कर्म का फल है। पर वही व्यक्ति मुझे परेशान करता है इसलिए उसका पिछले जन्म में मेरे साथ कुछ ऐसा हिसाब बँधा होगा इसलिए वही मुझे परेशान करता है, वैसा कुछ है क्या?
दादाश्री : है न । सारा हिसाब है । जितना हिसाब होगा उतने समय तक दुःख देगा। दो का हिसाब हो तो दो बार देगा, तीन का हिसाब हो तो तीन बार देगा। यह मिर्ची दु:ख नहीं देती?
प्रश्नकर्ता: देती है ।
दादाश्री : मुँह में जलन होती है, नहीं? ऐसा है यह सब। खुद परेशान नहीं करता, पुद्गल करता है और हम समझते हैं कि यह वह कर रहा है। वह गुनाह है वापिस । पुद्गल दुःख देता है। मिर्ची दु:ख देती है, तब फिर कहाँ डाल देता है उसे? !
मिरची किसी दिन दुःख दे उससे हमें समझ जाना है कि भाई इसमें दु:खी होनेवाले का दोष है। मिर्ची तो अपने स्वभाव में ही है।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
प्रश्नकर्ता : हम भी किसीको परेशान करें और उसे दुःख हो, तो क्या करें?
दादाश्री : हमें प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। कपड़े तो साफ रखने पड़ेंगे न! मैले कैसे किए जाएँ वे!
उत्तम प्रकार का वर्तन, किसीको किंचित् मात्र भी दःख नहीं हो ऐसा होना चाहिए। तो अभी दुःख होता है, उसका प्रतिक्रमण करें तो अंतिम दशा आएगी।
कोई किसीका दुःख ले सकता है? प्रश्नकर्ता : एक महान संत दो वर्ष पहले एक होस्पिटल में बहुत पीडा भुगत रहे थे। तब मैंने उनसे प्रश्न पूछा था कि आपको ऐसा क्यों हो रहा है? तो ऐसा कहा कि मैंने बहुत लोगों के दुःख ले लिए हैं। इसलिए यह सब मुझे हो रहा है। ऐसा कोई कर सकता है?
दादाश्री : किसीका दुःख कोई ले नहीं सकता। ये तो बहाने बनाए, संत के रूप में पूजनीय बनकर। खुद के ही कॉज़ेज़ के ये परिणाम हैं। यह तो बहाने बनाते हैं, खुद की आबरू रहे, इसके लिए। बड़े दुःख लेनेवाले पैदा हुए! संडास जाने की शक्ति नहीं, वे क्या दु:ख लेनेवाले थे! कोई किसीका ले ही किस तरह सकता है?
प्रश्नकर्ता : मैं भी नहीं मानता। दुःख लिया ही नहीं जा सकता।
दादाश्री : ना, ना! ये तो लोगों को मूर्ख बनाते हैं। कोई ले ही नहीं सकता। यानी ये सब तो बहाने बनाएँगे। फिर पूजे जाते हैं ! मैं तो मुँह पर कह दूँ कि आपके दुःख आप भुगत रहे हैं। क्या देखकर ऐसा बोलते हैं? बड़े आए दुःख लेनेवाले।
प्रश्नकर्ता : दुःख दे तो सकते हैं न?
दादाश्री : वह दुःख ले नहीं सकता और जो कोई हमें दु:ख दे सकता है, वह तो अपना इफेक्ट है। दे सकता है वह भी इफेक्ट है और
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२
कर्म का विज्ञान ले सकता है वह भी इफेक्ट है। इफेक्ट यानी इट हेपन्स यानी कोई कर्ता नहीं है!
भयानक दर्द, पापकर्म से प्रश्नकर्ता : किसी भी रोग के होने के कारण मृत्यु हो, तब लोग ऐसा कहते हैं कि पूर्वजन्म के कोई पाप बाधक हैं। यह बात सच है?
दादाश्री : हाँ, पाप से रोग होते हैं और पाप नहीं हों, तो रोग नहीं होते। तुमने किसी रोगवाले को देखा है?
प्रश्नकर्ता : मेरी माताजी अभी ही दो महीने पहले केन्सर के कारण गुज़र गई।
दादाश्री : वह तो सारा पापकर्म के उदय से होता है। पापकर्म का उदय हो तब केन्सर होता है। यह सारा हार्ट अटेक वगैरह पापकर्म से होते हैं। निरे पाप ही बाँधे हैं, इस काल के जीवों का धंधा ही वह, पूरा दिन पापकर्म ही करते रहते हैं। भान नहीं है इसलिए। यदि भान होता तो ऐसा नहीं करते!
प्रश्नकर्ता : उन्होंने पूरी ज़िन्दगी भक्ति की थी, तो उन्हें क्यों केन्सर
हुआ?
दादाश्री : भक्ति की, उसका फल तो अभी बाद में आएगा। अगले जन्म में मिलेगा। यह पिछले जन्म का फल आज मिला और आज आप अच्छे गेहूँ बो रहे हो, तो अगले जन्म में आपको गेहूँ मिलेंगे।
प्रश्नकर्ता : कर्म के कारण रोग होते हैं, तो दवाई से कैसे मिटते
दादाश्री : हाँ। उन रोगों में वे पाप ही किए हुए हैं न, वे पाप नासमझी से किए थे, इसलिए दवाईयों से मदद मिल जाती है और हेल्प हो जाती है। जान-बूझकर किए हों, उनकी दवाई-ववाई कुछ मिलती नहीं। दवाई मिलती ही नहीं है। नासमझी से करनेवाले लोग हैं बेचारे! नासमझी
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
५३ से किया हुआ पाप छोड़ता नहीं है और जान-बूझकर करनेवाले को भी छोड़ता नहीं है। परन्तु नासमझीवाले को कुछ मदद मिल जाती है और जानबूझकर करनेवाले को नहीं मिलती।
वह है औरों को परेशान करने का परिणाम प्रश्नकर्ता : शरीर के सुख-दुःख हम भुगतते हैं, वह व्याधि हो या चाहे कुछ भी आए, वह पूर्व के किस प्रकार के कर्मों के परिणाम होते हैं?
दादाश्री : इसमें तो ऐसा है, कितने ही लोग नासमझी में बिल्ली को मार देते हैं, कुत्ते को मार देते हैं, उन्हें दुःख देते हैं, परेशान करते हैं। वे तो दुःख देते हैं, उस घड़ी खुद को भान नहीं होता कि इसकी क्या ज़िम्मेदारी आएगी? छोटी उम्र में बिल्ली के बच्चे मार देते हैं, कुत्ते के बच्चे मार देते हैं और दूसरा ये डॉक्टर मेढक काटते हैं, तो उसके प्रतिस्पंदन उनके शरीर पर पड़ेंगे। जो आप कर रहे हो, उसका ही प्रतिस्पंदन आएंगे। प्रतिस्पंदन हैं ये सारे।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् किसीके शरीर के साथ की गई छेड़खानी के प्रतिघोष आते हैं?
दादाश्री : हाँ, वही। किसी जीव को किंचित् मात्र दुःख देना, वह आपके ही शरीर पर आएगा।
प्रश्नकर्ता : यानी उसने यह सब जब किया होगा, जीवों को चीरा होगा तो उस समय वह अज्ञान दशा में होता है न! उसे ऐसा बैरभाव भी नहीं होता, तो भी उसे भुगतना पड़ेगा?
दादाश्री : भूल से अज्ञान दशा में अंगारों पर हाथ पड़ता है न, तो अंगारे फल देते ही हैं। यानी कोई छोड़ता नहीं। अज्ञान या सज्ञान, अनजाने में या जान-बूझकर, भुगतने का तरीका अलग होता है, परन्तु कुछ छोड़ नहीं देते! ये सभी लोग दुःख भुगत रहे हैं, वह उनका खुद का ही हिसाब है सारा। इसलिए भगवान ने कहा है कि मन-वचन-काया से अहिंसा का
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
कर्म का विज्ञान पालन कर। किसी जीव को किंचित् मात्र दु:ख नहीं हो, वैसा कर। यदि तुझे सुखी होना हो तो!
प्रश्नकर्ता : कोई महात्मा हो उन्हें डॉक्टर नहीं बनना चाहिए?
दादाश्री : बनना चाहिए या नहीं बनना चाहिए, वह डिफरन्ट मेटर है। वह तो उसकी प्रकृति के अनुसार होता ही रहेगा। बाक़ी, मन में भाव ऐसा होना चाहिए। यानी डॉक्टर की लाइन में जा ही नहीं पाएगा फिर। किसीको किंचित् मात्र दुःख नहीं हो ऐसा भाव जिसका है, वह वहाँ क्यों मेढक मारेगा?
प्रश्नकर्ता : दूसरी तरफ डॉक्टरी सीखकर हज़ारों लोगों के दर्द मिटाकर फायदा भी करता है न?
दादाश्री : वह दुनिया का व्यवहार है। उसे फ़ायदा नहीं कहते।
मंदबुद्धिवाले को कर्मबंधन किस तरह का?
प्रश्नकर्ता : जो अच्छा व्यक्ति हो, तो उसे तरह-तरह के विचार आते हैं, एक मिनट में कितने ही विचार कर देता है। कर्म बाँध देता है और मंदबुद्धिवाले को तो समझ ही नहीं होती कुछ इसलिए उसे कुछ होता ही नहीं, निर्दोष होता है न!
दादाश्री : वह समझदार समझदारी के कर्म बाँधता है और नहीं समझनेवाला नासमझी का कर्म बाँधता है। पर नासमझीवालों के कर्म बहुत मोटे होते हैं और समझदारीवाले तो विवेक सहित ऐसे बाँधते हैं। इसलिए नासमझीवाले के कर्म सारे जंगली जैसे होते हैं, जानवर जैसे, उसे समझ ही नहीं है, भान ही नहीं फिर, वह तो किसीको देखे और पत्थर मारने को तैयार हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : हमें ऐसे लोगों पर दया नहीं रखनी चाहिए?
दादाश्री : रखनी ही चाहिए। जिसे समझ नहीं हो, उसकी तरफ दयाभाव रखना चाहिए। उसकी हेल्प करनी चाहिए कुछ। दिमाग की
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
खराबी, उसे लेकर बेचारा ऐसा होता है, उसमें फिर उसका क्या दोष? वह पत्थर मार जाए, फिर भी हम उसके साथ बैर नहीं रखते, उस पर करुणा रखनी चाहिए।
गरीब-अमीर कौन से कर्म से? जो हो रहा है, उसे ही न्याय माना जाए तो कल्याण हो जाए।
प्रश्नकर्ता : तो दादा, आपको नहीं लगता कि, दो लोग हों, उनमें से एक देखता हो कि यह आदमी इतना बुरा है, फिर भी इतनी अच्छी स्थिति में है और मैं इतना धर्मपरायण हूँ, फिर भी ऐसा दुःखी हूँ। तो उसका मन धर्म में से नहीं हट जाएगा?
दादाश्री : ऐसा है न, यह जो दुःखी है वैसे कोई सारे ही धर्मपरायणवाले दुःखी नहीं होते। सौ में से पाँच प्रतिशत सुखी भी होते
हैं।
आज जो दुःख आया है, वह अपने ही कर्मों का परिणाम है। आज वह जो सुखी हुआ है, आज उसके पास पैसा है और वह सुख भोग रहा है, वह उसके कर्म का परिणाम है। और अब जो खराब कर रहा है उसका परिणाम आएगा, तब वह भुगतेगा। हम अभी जो अच्छा कर रहे हैं, उसका परिणाम हमें आएगा तब भुगतेंगे।
प्रश्नकर्ता : दादा, आपकी यह बात सत्य है। पर यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो एक व्यक्ति झोंपड़पट्टी में रहता है, भूखा होता है, प्यासा होता है। सामने महल में एक आदमी रहता हो। झोंपड़ीवाला देखता है कि मेरी ऐसी कैसी दशा है। मैं तो इतना अधिक प्रमाणिक हूँ। नौकरी करता हूँ, फिर भी मेरे बच्चों को खाने को नहीं मिलता। जब कि यह आदमी तो इतना अधिक उल्टा करता है, फिर भी वह महल में रहता है। तो उसे गुस्सा नहीं आएगा? वह किस तरह स्थिरता रख सकेगा?
दादाश्री : अभी जो दुःख भोग रहा है, वह पहले की परीक्षा दी है, उसका परिणाम आ रहा है और उस महलवाले ने भी यह परीक्षा दी
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
कर्म का विज्ञान
है, उसका यह परिणाम आया है, पास हुआ है और अब वापिस नापास होने के लक्षण खड़े हो रहे हैं उसके । और इस गरीब को पास होने के लक्षण खड़े हो रहे हैं ।
प्रश्नकर्ता : पर वह गरीब आदमी, उसकी खुद की मानसिक स्थिति जब तक परिपक्व नहीं हो, तब तक कैसे समझेगा वह ?
दादाश्री : यह मानने में ही नहीं आता। इसलिए इसमें बल्कि अधिक पाप बाँधता है । उसे यह समझना ही चाहिए कि मेरे ही कर्म का परिणाम है।
करें अच्छा और फल खराब
प्रश्नकर्ता : हम अच्छा करते हैं पर उसका फल अच्छा नहीं मिलता। उसका अर्थ ऐसा हुआ कि पूर्वजन्म के कुछ खराब कर्म होंगे, वे उसे केन्सल कर देते हैं?
दादाश्री : हाँ, कर देते हैं । हमने ज्वार तो बोया और वे बड़े हो गए, और पूर्वजन्म का अपने खराब कर्म का उदय हो तो आखिरी वर्षा नहीं होती, तब सारी ही फसल सूख जाती है, और पुण्य ज़ोर करे तो तैयार हो जाती है, वर्ना हाथ में आया हुआ भी छिन जाता है। इसलिए अच्छे कर्म करो, वर्ना मुक्ति ढूंढो । दोनों में से एक रास्ता लो! इस दुनिया में से छूट जाने का रास्ता ढूंढो, या फिर अच्छे कर्म करो हमेशा के लिए। पर हमेशा के लिए अच्छे कर्म हो नहीं सकते मनुष्य से, उल्टे रास्ते चढ़ ही जाएगा। कुसंग मिलता ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : शुभ कर्म और अशुभ कर्म पहचानने का थर्मामीटर कौन-सा?
दादाश्री : शुभ कर्म आएँ तब हमें मिठास लगती है, शांति लगती है, वातावरण शांत लगता है और अशुभ कर्म आएँ तब कड़वाहट उत्पन्न होती है, मन को चैन नहीं पड़ता । अयुक्त कर्म तपाता है और युक्त कर्म हृदय को आनंद देता है ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
___५७
मृत्यु के बाद साथ में क्या जाता है? प्रश्नकर्ता : शुभ और अशुभ जो कर्म हैं, उनका जो परिणाम है वह अब दूसरी जिस किसी योनि में जाए, वहाँ उसे भुगतना पड़ता है न?
दादाश्री : वहाँ भुगतना ही पड़ता है। इसलिए यहाँ से मृत्यु हो, तब मूल शुद्धात्मा जाता है। साथ में सारी ज़िन्दगी जो शुभाशुभ कर्म किए वे योजना के रूप में जिसे कारण शरीर अर्थात् कॉज़ल बॉडी कहा जाता है, फिर सूक्ष्म बॉडी यानी इलेक्ट्रिकल बॉडी। यह सब साथ जाएगा। और कुछ नहीं जाता।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य जन्म जो मिलता है, वह बार-बार मिलता है या फिर अमुक समय के लिए मनुष्य में आकर वापस दूसरी योनि में उसे जाना पड़ता है?
दादाश्री : यहीं से सभी योनियों में जाते हैं। अभी लगभग सत्तर प्रतिशत लोग चार पैरों में (जानवरगति) जाएँगे। यहाँ से सत्तर प्रतिशत! और जनसंख्या तीव्रता से खतम हो जाएगी।
अर्थात मनष्य में से जानवर भी बन सकता है, देवता बन सकता है, नर्कगति हो सकती है और फिर से मनुष्य भी बन सकता है। जिसजिस तरह के कर्म किए हों, उस तरह के बनते हैं। क्या लोग पाशवता के लायक कर्म करते हैं अभी?
प्रश्नकर्ता : अभी तो बहुत लोग पाशवता के ही कर्म कर रहे हैं न!
दादाश्री : तो वहाँ की टिकट आ गई, रिज़र्वेशन हो गया। यानी कि मिलावट करता हो, अणहक्क का खा जाता हो, भोग लेता हो, झूठ बोलता हो, चोरियाँ करता हो, उन सबकी अब निंदा करने का अर्थ ही क्या है? ये उनकी टिकट उन्हें मिल गई हैं!
चार गति में भटकन । प्रश्नकर्ता : यह मनुष्य नीच योनि में जा सकता है क्या?
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
कर्म का विज्ञान दादाश्री : मनुष्य में से फिर तो देवता में, सबसे बड़ा देवता बनकर खड़ा रह सकता है, इस दुनिया में टॉपमोस्ट। और नीच योनि अर्थात् कैसी नीच योनि? घृणाजनक योनि में जाता है। जिसका नाम सुनते ही घृणा होती
मनुष्य, मनुष्य जन्म में ही कर्म बाँध सकता है। बाक़ी दूसरे किसी योनि में कर्म नहीं बाँधता। दूसरी सभी योनियों में कर्म भुगतता है। और यहाँ मनुष्य में कर्म बाँधता भी है और कर्म भुगतता भी है, दोनों होता है। पिछले कर्म भुगतते जाते हैं और नये बाँधते हैं। इसलिए यहाँ से चार गति में भटकना है, यहाँ से जाना होता है और ये गायें-भैंसे, ये सब जानवर दिखते हैं, ये देवी-देवता, उन्हें कर्म भोगने हैं सिर्फ, उन्हें कर्म करने का अधिकार नहीं है।
प्रश्नकर्ता : पर अधिकांश मनुष्य के तो कर्म अच्छे होते ही नहीं हैं न?
दादाश्री : यह तो कलियुग है और दूषमकाल है, इसलिए काफी कुछ कर्म खराब ही होते हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यहाँ पर दूसरे नये कर्म बँधेगे ही न?
दादाश्री : रात-दिन बँधते ही रहते हैं। पुराने भुगतता जाता है और नये बांधता जाता है।
प्रश्नकर्ता : तो इससे अब दूसरा कोई अच्छा जन्म है क्या?
दादाश्री : किसी जगह पर नहीं है। इतना ही अच्छा है। दूसरे तो दो प्रकार के भव। यहाँ यदि कर्ज हो गया हो, यानी खराब कर्म बंध गए हों, वह कर्ज़ कहलाता है। तब फिर जानवरों में जाना पड़ता है, डेबिट भुगतने के लिए और नर्कगति में जाना तो डेबिट अधिक हो गया हो, तो वहाँ पर कर्ज भुगतकर वापिस आना है, डेबिट भुगतकर। यहाँ अच्छे कर्म हुए हों, तो बड़े, ऊँची जाति के मनुष्य बनते हैं। वहाँ पूरी ज़िन्दगी सुख होता है। वह भोगकर वापिस जैसा था वैसा का वैसा, और नहीं तो देवगति
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
में जाता है। क्रेडिट के सुख भोगने के लिए। पर क्रेडिट पूरी हो गई, लाख रुपये पूरे हो गए, खर्च हो गए तो वापिस यहीं पर, मुआ!
प्रश्नकर्ता : अन्य सभी जन्मों से इस मनुष्यजन्म का आयुष्य अधिक है न?
दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। इन देवी-देवताओं का लाखों वर्षों का आयुष्य होता है।
प्रश्नकर्ता : पर देवी-देवता बनने के लिए तो ये सारे कर्म पूरे हो जाएँ, फिर नंबर आएगा न?
दादाश्री : नहीं, ऐसा कुछ नहीं। यदि कोई सुपरह्युमन हो तो देवता ही बनता है। खुद का सुख खुद नहीं भोगता और दूसरों को दे देता है, वह सुपरह्युमन कहलाता है। वह देवगति में जाता है! ।
प्रश्नकर्ता : खुद को सुख नहीं हो, तो फिर वह दूसरों को किस तरह सुख दे सकेगा?
दादाश्री : इसलिए ही नहीं दे सकता न, पर कोई ऐसा मनुष्य हो, करोडों में एकाध मनुष्य, वह खुद का सुख दूसरों को दे देता है, वह देवगति में जाता है। पहले तो ऐसे बहुत लोग थे। सौ में से दो-दो, तीनतीन प्रतिशत, पाँच-पाँच प्रतिशत थे। अभी तो करोड़ों में दो-चार निकलते हैं शायद। अभी तो दुःख नहीं दे तो भी समझदार कहलाएगा। दूसरों को कुछ भी दुःख नहीं दे तो फिर से मनुष्य में आता है। मनुष्य में अच्छी जगह पर कि जहाँ बंगला तैयार हो, गाड़ियाँ तैयार हों, वहाँ जन्म होता है,
और पाशवता के कर्म करे, ये मिलावट करे, लुच्चापन करे, चोरियाँ करे, तो पशु में जाना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : तो नियम क्या है?
दादाश्री : अधोगति में जानेवाला हो, वह पकड़ा नहीं जाता और ऊर्ध्वगति में जो जाता है, ऐसे मनुष्य के हल्के कर्म होते हैं न, तो उसे पुलिसवाले से पकड़वा ही देते हैं तुरन्त ही। वह आगे उल्टा जाते हुए रुक
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
कर्म का विज्ञान जाता है और उसके भाव बदल जाते हैं। कुदरत हेल्प किसे करती है? कि जो भारी है, उसे भारी होने देती है। हल्का है, उसे हल्का होने देती है। हल्केवाला ऊर्ध्वगति में जाता है। भारीवाला अधोगति में जाता है। यानी यह कुदरत के नियम हैं ऐसे। अभी जैसे किसीने कभी चोरी नहीं की हो
और एक बार चोरी करे न, तो तुरन्त पकड़ा जाता है और पक्का चोर पकड़ में नहीं आता। क्योंकि उसके भारी कर्म हैं, इसलिए उसमें पूरे मार्क्स चाहिए न! माइनस मार्क भी पूरे चाहिए न! तो ही दुनिया चलेगी न?
मनुष्यजाति में ही बंधे कर्म प्रश्नकर्ता : मैं इसलिए ही पूछ रहा हूँ कि मनुष्य जन्म के अलावा दूसरा कोई ऐसा जन्म है या नहीं कि जिसमें कम कर्म बँधते हों? ।
दादाश्री : और कहीं कर्म बँधते ही नहीं। दूसरी किसी योनि में कर्म बँधते ही नहीं, सिर्फ यहीं पर बँधते हैं और जहाँ नहीं बँधते, वे लोग क्या कहते हैं? कि यहाँ कहाँ इस जेल में आए? कर्म बँधे वैसी जगह तो मुक्तता कहलाती है, यह तो (जहाँ कर्म नहीं बंधे) जेल कहलाती है।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य जन्म में ही कर्म बंधते हैं। अच्छे कर्म भी यहीं पर बँधते हैं न?
दादाश्री : अच्छे कर्म भी यही बँधते हैं और बुरे भी यहीं पर बँधते
ये मनुष्य कर्म बाँधते हैं। उनमें यदि लोगों को नुकसान करनेवाले, लोगों को दुःख देनेवाले कर्म होते हैं, तो वह जानवर में जाता है और नर्कगति में जाता है। लोगों को सुख देने के कर्म हों तो मनुष्य में आता है और देवगति में जाता है। यानी जैसे कर्म वह करता है, उस अनुसार उसकी गति होती है। अब गति हुई यानी फिर भुगतकर वापिस यहीं पर आना पड़ता है। ___कर्म बांधने का अधिकार मनुष्यों को ही है, दूसरे किसीको नहीं, और जिसे बाँधने का अधिकार है, उसे चारों गति में भटकना पड़ता है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
और यदि कर्म नहीं करे, बिल्कुल कर्म ही न करे तो मोक्ष में जाता है। मनुष्य में से मोक्ष में जाया जा सकता है। दूसरी किसी जगह से मोक्ष में नहीं जा सकता। कर्म नहीं करे वैसा आपने देखा है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, वैसा नहीं देखा।
दादाश्री : आपने देखे हैं कर्म नहीं करे वैसे? इन्होंने देखे हैं और आपने नहीं देखे?!
ये जानवर वगैरह सभी हैं, वे खाते हैं, पीते हैं, मारपीट करते हैं, लड़ाई-झगड़ा करते हैं, फिर भी उन्हें कर्म नहीं बँधते। उसी प्रकार मनुष्यों को भी कर्म नहीं बंधे, ऐसी स्थिति संभव है। परन्तु 'खुद' कर्म का कर्ता नहीं बने तो और कर्म भुगते उतना ही! इसलिए यहाँ, हमारे यहाँ आएँ, उन्हें 'सेल्फ रियलाइज़' का ज्ञान प्राप्त हो जाए तो कर्म का कर्त्तापन छूट जाता है, करना ही छूट जाता है, भुगतना ही रहता है फिर। अहंकार हो तब तक कर्म का कर्ता।
आठ जन्मों तक की पूँजी साथ में प्रश्नकर्ता : जिन-जिन योनियों में कर्म नहीं बँधते, सिर्फ कर्म भुगतने ही पड़ते हैं, तो उस जीव का अगला जन्म किस तरह से होता
दादाश्री : यह इतना अधिक है कि मनुष्य यहाँ से गया, तो गाय का जन्म मिला। वह गाय का जन्म भुगतता है। वह पूरा हो जाए, उसके बाद बकरी का जन्म मिलता है। वह बकरी का ही आए ऐसा नहीं है। जिस किसी योनि में उसका हिसाब हो उसके अनुसार आता है। डिज़ाइन हो उसके अनुसार आता है। फिर, गधे का जन्म आता है। सौ- दो सौ वर्ष इस तरह भटककर आता है। यानी सारा डेबिट भुगत लिया जाता है। यानी यहाँ पर मनुष्य में जन्म वापिस आता है। दूसरी सब जगह एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता है। तो वह कर्म करने से नहीं होता। वह कर्म भुगते जा चुके हैं, इसलिए होता है। यह एक परत गई और दूसरी परत
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
आई, दूसरी परत गई और तीसरी परत आई, इस तरह सारी परतें भुगत ली जाएँ, तब सभी आठ जन्म पूरे हो जाते हैं और वापिस यहाँ मनुष्य में आ जाता है। अधिक से अधिक आठ जन्म दूसरी गतियों में भटककर वापिस मनुष्य में आ ही जाता है। ऐसा कर्म का नियम है।
मनुष्यों के लायक हो, वैसे कर्म तो उसके पास पूँजी के रूप में रहते ही हैं। जहाँ जाए, देवगति में जाए तो भी। यानी पूँजी के आधार पर वापिस लौटकर आता है। इस तरह इस पूँजी को रखकर, बाकी दूसरे सारे कर्म भुगत लेता है।
प्रश्नकर्ता : मनुष्य में आता है, फिर उसका जीवन किस तरह चलता है? वह उसके भाव पर ही चलता है न? उसके कौन-से कर्मों के आधार पर उसका जीवन चलता है?
दादाश्री : उसके पास मनुष्य के कर्म तो पूँजी में हैं ही। यह पूँजी तो अपने पास है ही, परन्तु उधार हो गया हो तो उधार भुगत लो और फिर वापिस आओ, कहते हैं। क्रेडिट हो गया हो, तब क्रेडिट भुगतकर वापिस यहाँ पर आओ। यह तो पूँजी है ही अपने पास। यह पूँजी तो कम पड़े ऐसी है नहीं। यह पूँजी कब कम पड़ती है? कि जब कर्त्तापद छूटे तब छूटती है। तब मोक्ष में चला जाता है। नहीं तो कर्त्तापद छूटता ही नहीं न! अहंकार खतम हो जाए तब छूटता है। अहंकार हो, तब उन कर्मों को भुगतकर वापिस यहीं के यहीं आ जाता है मुआ।
प्रश्नकर्ता : दूसरी सभी योनियों में से वापिस मनुष्य में आता है, तो आए तब कहाँ पर जन्म लेता है? मछुआरे के वहाँ या राजा के वहाँ लेता है?
दादाश्री : यहाँ मनुष्य योनि में खुद के पास जो सामान तैयार रख गया था न, वह और दूसरा यह कर्ज़ खड़ा किया है, वह कर्ज चुकाकर आता है और फिर वहीं के वहीं आ जाता है और उस सामान से वापिस शुरू करता है। इसलिए हम जिस बाज़ार में जाते हैं, वे सारे काम निपटाकर वापिस घर पर ही आ जाते हैं। उसी तरह यह घर है। यहीं के यहीं वापिस
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
६३
आना है। यहाँ यह घर है । यहाँ पर जब अहंकार खतम हो जाएगा, तब यहाँ पर भी नहीं रहेंगे। मोक्ष में चले जाएँगे बस । अब दूसरे जन्मों में अहंकार का उपयोग नहीं होता। जहाँ भुगतना है, वहाँ अहंकार का उपयोग नहीं होता। इसलिए कर्म ही नहीं बँधते । इन भैंसों को, इन गायों को, किसीको अहंकार नहीं होता । दिखता ज़रूर है कि यह घोड़ा अहंकारी है, पर वह डिस्चार्ज अहंकार । सच्चा अहंकार नहीं है। सच्चा अहंकार हो तो कर्म बँधता है। यानी अहंकार के कारण वापिस यहाँ आता है । अहंकार यदि खतम हो जाए तो मोक्ष में चला जाए ।
रिटर्न टिकट लिया है जानवर में से !
प्रश्नकर्ता : आपने कहा कि कर्मों का फल मिलता है, तो ये जो जानवर हैं, वे वापिस मनुष्य में आ सकते हैं क्या?
I
दादाश्री : वे ही आते हैं । वे ही अभी आए हैं । उनकी आबादी बढ़ गई है। और वे ही मिलावट करते हैं, ये सारी ।
प्रश्नकर्ता : उन जानवरों ने कौन-से सत्कर्म किए होंगे कि वे मानव बने?
दादाश्री : उन्हें सत्कर्म नहीं करने पड़ते। मैं आपको समझाऊँ। एक मनुष्य कर्ज़दार बन गया । कर्ज़दार बना इसलिए दिवालिया कहलाता है । लोग दिवालिया कहते हैं उसे। तो फिर उसने कर्ज़ चुका दिया, तब फिर उसे दिवालिया कहेंगे क्या?
प्रश्नकर्ता: नहीं, फिर नहीं कहेंगे ।
दादाश्री : उसी तरह यहाँ से जानवर में जाते हैं न, कर्ज़ चुकाने के लिए ही। कर्ज़ चुकाकर यहाँ वापिस आ जाता है और देवगति में जाए तो क्रेडिट (जमा) भोगकर वापिस यहीं पर आता है ।
ऐसे निमंत्रित करते हैं अधोगति
प्रश्नकर्ता : मनुष्य को जानवरों का ही जन्म मिलेगा, वह किस
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
कर्म का विज्ञान तरह पता चलता है?
दादाश्री : उसके सारे लक्षण ही कह देते हैं। अभी उसके विचार हैं न, वे विचार ही पाशवता के आते हैं। कैसे आते हैं? किसका भुगत लूँ? किसका खा जाऊँ, किसका ऐसा करूँ? मृत्यु समय की स्थिति का फोटो भी जानवर का बनता है।
प्रश्नकर्ता : आम की गुठली बोने पर आम ही आता है, वैसे ही मनुष्य मरे तो मनुष्य में से वापिस मनुष्य ही बनता है?
दादाश्री : हाँ, मनुष्य में से वापिस अर्थात् यह मेटरनिटी वॉर्ड में मनुष्य की कोख से कुत्ता नहीं जन्मता। समझ में आता है न! पर मनुष्य में जिसे सज्जनता के विचार हों यानी मानवता के गुण हों तो फिर वापिस मनुष्य में आता है, और खुद के हक़ का भोगने का हो, वह लोगों को दे दे तो देवगति में जाता है, सुपरह्युमन कहलाता है। और खुद की स्त्री भोगने में हर्ज नहीं है। वह हक़ का कहलाता है, पर अणहक्क (बिना हक़) का नहीं भोग सकते। वे भोग लेने के विचार हैं, वही मनुष्य में से दूसरे जन्म में जानवर में जाने की निशानी है उसकी। वह वीज़ा है, हम उसका वीज़ा देख लें न, तो पता चल जाता है।
प्रश्नकर्ता : कर्म का सिद्धांत ऐसा है कि मनुष्य को उसके कर्म मनुष्य योनि में ही भुगतने पड़ते हैं।
दादाश्री : नहीं। कर्म तो यहीं के यहीं भुगतने हैं। परन्तु जो विचार किए हुए हों कि किसका भोग लूँ, किसका ले लूँ, और किसका ये कर लूँ, ऐसे संकल्प-विकल्प किए हों, वे उसे ले जाते हैं वहाँ पर। यहाँ किए हुए कर्म तो यहीं के यहीं भुगत लेता है। पाशवता का कर्म किया हों, वह तो यहीं के यहीं भुगत लेता है। उसमें हर्ज नहीं है। आँखों से दिखें ऐसे पाशवता के कर्म किए हों, वे यहीं पर भुगतने पड़ते हैं। उन्हें किस तरह भुगतता है? लोगों में निंदा होती है, लोग दुत्कारते हैं। परन्तु यदि पाशवता के विचार किए, संकल्प-विकल्प खराब किए कि ऐसे ही करना चाहिए, ऐसे करना चाहिए, ऐसे भोगना चाहिए, योजनाएँ बनाईं। वे योजना उसे
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान जानवरगति में ले जाती है। योजना गढ़ता है न अंदर? नहीं गढ़ता? वे जानवरगति में ले जाती हैं।
इसमें भोगनेवाला कौन? प्रश्नकर्ता : अच्छे कर्म करे तो पुण्य बँधता है और बुरे कर्म करे तो पाप। ये पाप-पुण्य कौन भुगतता है, शरीर या आत्मा?
दादाश्री : ये पाप-पुण्य जो करता है, वह भुगतता है। कौन भुगतता है? अहंकार करता है और अहंकार भुगतता है। शरीर नहीं भुगतता और आत्मा भी नहीं भुगतता। यह अहंकार भुगतता है। शरीर सहित अहंकार होता है, तो शरीर सहित भुगतता है। शरीर के बिना किया हुआ अहंकार शरीर के बिना भुगतता है। सिर्फ मानसिक रूप से भुगतता है।
प्रश्नकर्ता : मृत्यु के बाद स्वर्ग या नर्क जैसा कुछ है क्या? दादाश्री : मृत्यु के बाद स्वर्ग और नर्क दोनों ही हैं।
प्रश्नकर्ता : यानी खराब कर्म किए हों तो नर्क में कौन जाता है? आत्मा जाता है?
दादाश्री : अरे आत्मा और शरीर दोनों साथ ही होंगे न! प्रश्नकर्ता : मर जाते हैं तब शरीर तो यहीं पर छूट जाता है न?
दादाश्री : वहाँ फिर नया शरीर बनता है। नर्क में अलग तरह का शरीर बनता है, वहाँ पारे (पारद) जैसा शरीर होता है।
प्रश्नकर्ता : वहाँ पर शरीर भुगतता है या आत्मा भुगतता है?
दादाश्री : अहंकार भुगतता है। जिसने किए हों न, नर्क के काम किए हों, वह भुगतता है।
हिटलर ने कैसे कर्म बाँधे? हिटलर ने इन लोगों को मारा, उसे उसका फल क्यों नहीं मिला?
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
कर्म का विज्ञान
उसने जिन्हें मारा, वे सब कहाँ से मिले? उसे ये प्लेन कहाँ से मिल गए? यह सब कहाँ से मिला? मिल गया तो मारे, यानी यह कर्मफल था उस बेचारे का? उसका भी फल वापिस नर्कगति आएगा। शास्त्रकारों ने आगे कहा है, यहाँ जो मर गया और जगत् में निंदनीय हो गया तो नर्कगति या जानवर में जाएगा। जगत् में यदि कभी तारीफ के लायक हुए और उसकी ख्याति फैले तो देवगति या बहुत हुआ तो मनुष्य में जाता है! यानी उसका वापिस फल तो आएगा। इसलिए इसे लोगों के तराजू से देख लेना।
सत्ताधीश के हिसाब प्रजा के संग प्रश्नकर्ता : किसी एक देश के सत्ताधीश हैं न, वहाँ के धर्मगुरु कहो कि अभी सत्ता सबकुछ उनके हाथ में है। वे देश के प्रमुख कहलाते हैं अभी। अभी लाखों लोग मर रहे हैं। दुनिया के सभी देशों ने उनसे विनती की कि आप समाधान करो। पर वे समाधान करने को तैयार नहीं है और लाखों लोगों का निकंदन हो ही रहा है। वह कैसा कर्म है? उनके साथ ऋणानुबंध, लाखों लागों के साथ के ऋणानुबंध क्या है?
दादाश्री : वे लोग तो उनके कर्म भोग रहे हैं और वे बाँध नहीं रहे हैं, वे भोग रहे हैं।
प्रश्नकर्ता : और वह जो मार रहा है उसका? दादाश्री : वह तो कर्म बाँध रहा है। वह नर्कगति में जाएगा।
प्रश्नकर्ता : ये सभी मर रहे हैं। उसका निमित्त तो यह मारनेवाला बनता है न? वह किस कारण से?
दादाश्री : निमित्त बनता है और इसलिए वह नर्क में जाएगा।
प्रश्नकर्ता : नर्क में जाएगा वह ठीक है। पर यह हुआ किस तरह? किस हिसाब से हुआ होगा?
दादाश्री : लोगों का हिसाब। उसके साथ का हिसाब नहीं, लोगों ने गुनाह किए थे इसलिए वैसा निमित्त मिल गया।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
___ लोगों ने गुनाह किए थे, इसलिए कोई भी निमित्त मिल गया और उन्हें खतम कर दिया। उन सबका कर्म व्यक्तिगत नहीं है। यह व्यक्तिगत तो कब कहलाएगा? ऐसे आप यों ही बातचीत नहीं करते और आपको देखू तो मुझे अंदर उबाल आए, वह व्यक्तिगत। दूर रहकर काम हो, वह व्यक्तिगत नहीं कहलाता।
वह कहलाता है सामूहिक कर्मोदय प्रश्नकर्ता : अब इस जगत् में जो भूकंप होते हैं और ज्वालामुखी फटते हैं, वह सब कौन-सी शक्ति करती है?
दादाश्री : सारा व्यवस्थित शक्ति । व्यवस्थित शक्ति सबकुछ करती है। एविडेन्स खड़ा होना चाहिए। सब एविडेन्स इकट्ठे हुए या फिर ज़रा कुछ कच्चा रह गया हो न तो (बाकी का) थोड़ा-सा मिल गया कि फूटता है ज़ोर से।
प्रश्नकर्ता : यह तूफ़ान आँधी वगैरह व्यवस्थित भेजता है?
दादाश्री : तो और कौन भेजेगा? यह तूफ़ान तो पूरे मुंबई पर होता है, पर कुछ लोग ऐसा पूछते हैं, 'तूफ़ान आया है या नहीं?' ऐसा कहकर पूछते हैं अरे मुए, पूछ रहे हो? तब कहेंगे, 'हमने तो नहीं देखा अभी तक, हमारे यहाँ तो नहीं आया।' ऐसा है यह सब तो। तूफ़ान मुंबई में सभी को स्पर्श नहीं करता। किसीको एक प्रकार से स्पर्श करता है, किसीका पूरा ही मकान उड़ा देता है एकदम से, और किसीकी दरियाँ पड़ी हुई हों, तो उन्हें कुछ नहीं होता। सबकुछ पद्धतिपूर्वक काम कर रहे हैं। तूफ़ान आए उसका डर नहीं रखना है। सब व्यवस्थित भेजता है।
प्रश्नकर्ता : ये सारे भूकंप होते हैं, साइक्लोन आते है, लड़ाईयाँ होती हैं, वह सबकुछ हानि-वृद्धि के आधार पर नहीं है?
दादाश्री : नहीं, कर्म के उदय के आधार पर है, वह सब। सभी उदय भुगत रहे हैं। मनुष्यों की वृद्धि हो रही हो न तब भी भूकंप होते रहते हैं। यदि हानि-वृद्धि के अधीन हो तो नहीं होगा न?
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
कर्म का विज्ञान प्रश्नकर्ता : जिसे भुगतना है उसका उदय?
दादाश्री : मनुष्यों का उदय, जानवरों का, सभी का। हाँ, सामूहिक उदय आता है। देखो न, हीरोशिमा और नागासाकी में उदय आया था न!
प्रश्नकर्ता : जैसे एक व्यक्ति ने पाप किया, वैसे सामूहिक पाप करते हैं, उसका बदला सामूहिक प्रकार से मिलता है? एक आदमी खुद चोरी करने गया और दस लोग साथ में डाका डालने गए, तो उसका दंड सामूहिक मिलता होगा?
दादाश्री : हाँ, फल सामूहिक मिलेगा, पर दसों लोगों को कमज़्यादा। उनके भाव कैसे हैं, उस आधार पर। कोई व्यक्ति तो ऐसा कहता है कि यह मेरे चाचा की जगह पर मुझे जबरदस्ती जाना पड़ा, ऐसे भाव होते हैं। इसलिए जितना स्ट्रोंग भाव हैं, उस पर से हिसाब सारे चुकाने हैं। बिल्कुल करेक्ट। धर्म के काँटे जैसा।
प्रश्नकर्ता : परन्तु ये जो कुदरती कोप होते होंगे, यह किसी जगह प्लेन गिरा और इतने लोग मर गए और किसी जगह कोई ज्वालामुखी फटा
और दो हज़ार लोगों की हानि हुई, उन सबके एक साथ मिलकर किए गए कर्मों के सामूहिक दंड का परिणाम होगा वह?
दादाश्री : उन सबका हिसाब है सारा। उतने ही हिसाबवाले पकड़े जाते हैं उसमें, कोई दूसरा नहीं पकड़ा जाता। आज मुंबई गया हो और उसके बाद कल यहाँ भूकंप आ जाए और मुंबईवाले यहाँ पर आए हुए हों, और वे मुंबईवाले यहाँ मर जाते हैं, यानी सब हिसाब है।
प्रश्नकर्ता : इसलिए अभी जो इतने सारे जहाँ-तहाँ सब मरते हैं, वे कोई पाँच सौ-दो सौ और ऐसी संख्या में। जो पहले कभी भी इतने सारे, समूह में मरते हुए देखने में नहीं आते थे, तो इतना सारा समूह में पाप होता होगा?
दादाश्री : पहले समूह थे भी नहीं न! अभी तो लाल झंडेवाले निकले हों तो कितने होंगे? ये सफेद झंडेवाले कितने होंगे? अभी समूह
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९
कर्म का विज्ञान हैं, इसलिए समूह का काम। पहले समूह थे ही नहीं न!
प्रश्नकर्ता : हं... अर्थात् कुदरती कोप, वह समूह का ही परिणाम है न! यह अनावृष्टि होना, यह किसी जगह पर भारी बाढ़ आ जाना, किसी जगह पर भूकंप से लाखों लोगों का मर जाना।
दादाश्री : सब इन लोगों का ही परिणाम।
प्रश्नकर्ता : यानी जिस समय दंड मिलना हो, तब चाहे जहाँ से खिंचकर यहाँ पर आ ही गया होता है?
दादाश्री : ये कुदरत ही ले आती है वहाँ पर और उबाल देती है, भून देती है। उसे प्लेन में लाकर प्लेन को गिरा देती है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, दादा। ऐसे उदाहरण देखने में आते हैं कि जो जानेवाला हो, वह किसी कारण से रह जाता है और कभी भी नहीं जानेवाला हो, वह उसकी टिकट लेकर बैठ गया होता है। फिर प्लेन गिरकर टूट जाता है।
दादाश्री : हिसाब है सारा। पद्धति अनुसार न्याय। बिल्कुल धर्म के काँटे जैसा। क्योंकि उसका मालिक नहीं है, मालिक हो, तब तो अन्याय हो।
प्रश्नकर्ता : एयर-इन्डिया का प्लेन टूट गया। वह सबका निमित्त था, यह व्यवस्थित था? दादाश्री : हिसाब ही। हिसाब के बिना तो कुछ होता नहीं।
पाप-पुण्य का नहीं होता प्लस-माइनस प्रश्नकर्ता : पाप कर्म और पुण्यकर्म का प्लस-माइनस (जोड़बाक़ी) होकर नेट में रिज़ल्ट आता है, भुगतने में?
दादाश्री : नहीं, प्लस-माइनस नहीं होता। पर उसका भुगतना कम किया जा सकता है। प्लस-माइनस का तो, यह दुनिया है तब से ही नियम
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
कर्म का विज्ञान ही नहीं है। नहीं तो अक्कलवाले लोग ही लाभ उठा लेते, ऐसा करके। क्योंकि सौ पुण्य करे और दस पाप करे, उन दस को कम करके मेरे नब्बे बचे हैं, जमा कर लेना, कहेंगे। तब अक्कलवालों को तो मज़ा आ जाएगा सबको। ये तो कहते है, यह पुण्य भोग और फिर बाद में दस पाप भुगत।
प्रश्नकर्ता : दादा, हमसे बिना अहंकार से कोई सत्कार्य हो अथवा किसी संस्था या होस्पिटल आदि को पैसे दें तो अपने कर्म के अनुसार जो भोगना होता है, वह कम हो जाता है, यह सच्ची बात है?
दादाश्री : नहीं, कम नहीं होता। कम-ज्यादा नहीं होता। उससे दूसरे कर्म बँधते हैं। दूसरे पुण्य के कर्म बँधते हैं। परन्तु वह हम किसीको मुक्का मार आएँ, उसका फल तो भुगतना पड़ेगा। नहीं तो ये सारे व्यापारी लोग माइनस करके फिर सिर्फ फायदा ही रखते। यह ऐसा नहीं है। नियम बहुत सुंदर है। एक मुक्का मारा हो, उसका फल आएगा। सौ पुण्य में से दो माइनस नहीं होंगे। दो पाप भी हैं और सौ पुण्य भी हैं। दोनों अलग-अलग भोगने हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह शुभकर्म करें और अशुभ कर्म करें, दोनों का फल अलग-अलग मिलता है?
दादाश्री : अशुभवाला अशुभ फल देता ही है। शुभ का शुभ देता है। कुछ भी कम-ज्यादा नहीं होता। भगवान के वहाँ नियम कैसा है? कि आपने आज शुभ कर्म किया यानी सौ रुपये दान में दिए, तो सौ रुपये जमा करते हैं और पाँच रुपये किसीको गाली देकर उधार चढ़ाया, तो आपके खाते में उधार लिख देते हैं। वे पँचानवे जमा नहीं करते। वे पाँच उधार भी करते हैं और सौ जमा भी करते हैं। बहुत पक्के हैं। वर्ना इन व्यापारी लोगों को फिर से दुःख ही नहीं पड़ते। ऐसा हो तो जमा-उधार करके उनका जमा ही रहे, और तब फिर कोई मोक्ष में जाए ही नहीं। यहाँ पर पूरा दिन सिर्फ पुण्य ही होता। फिर कौन जाए मोक्ष में? यह नियम ही ऐसा है कि सौ जमा करते हैं और पाँच उधार भी करते हैं। बाकी
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
७१
कर्म का विज्ञान (माइनस) नहीं करते। इसलिए आदमी को, जो जमा किया हो, वह फिर भुगतना पड़ता है, वह पुण्य अच्छा नहीं लगता फिर, बहुत पुण्य इकट्ठा हो गया हो न, दस दिन, पंद्रह दिन खाने करने का, सब शादियाँ वगैरह चल रही हो, अच्छा नहीं लगता ऊब जाते हैं। बहुत पुण्य से भी ऊब जाते हैं, बहुत पाप से भी ऊब जाते हैं। पंद्रह दिन तक सेन्ट और इत्र ऐसे घिसते रहे हों, खूब खाना खिलाया, फिर भी खिचड़ी खाने के लिए घर पर भाग जाता है। क्योंकि यह सच्चा सुख नहीं है। यह कल्पित सुख है। सच्चे सुख का कभी भी अभाव ही नहीं होता। वह आत्मा का जो सच्चा सुख है, उसका अभाव कभी भी होता ही नहीं। यह तो कल्पित सुख है।
कर्मबंधन में से मुक्ति का मार्ग... प्रश्नकर्ता : पुनर्जन्म में कर्मबंध का हल लाने का रास्ता क्या है? हमें ऐसा साधारण मालूम है कि पिछले जन्म में हमने अच्छे या बुरे सभी कर्म किए हुए ही हैं, तो उन्हें हल करने का रास्ता क्या है?
दादाश्री : यदि कोई तुझे परेशान कर रहा हो, तो तू अब समझ जाता है कि मैंने इसके साथ पूर्वजन्म में खराब कर्म किए हैं, उसका यह फल दे रहा है, तो तुझे शांति और समता से उसका निबेड़ा लाना है। खुद से शांति रहती नहीं और वापिस दूसरा बीज डालता है तू। इसलिए पूर्वजन्म के बंधन खोलने का एक ही रास्ता है, शांति और समता। उसके लिए खराब विचार भी नहीं आना चाहिए और मेरा ही हिसाब भोग रहा हूँ, वैसा होना चाहिए। यह जो कर रहा है, वह मेरे पाप के आधार पर ही, मैं मेरे ही पाप भुगत रहा हूँ, वैसा लगना चाहिए, तो छुटकारा होगा। और वास्तव में आपके ही कर्म के उदय से वह दुःख देता है। वह तो निमित्त है। पूरा जगत् निमित्त है, दुःख देनेवाला, रास्ते में सौ डॉलर ले लेनेवाला, सभी निमित्त हैं। आपका ही हिसाब है। आपको यह पहले नंबर का इनाम कहाँ से लगा? इन्हें क्यों नहीं लगता? सौ डॉलर ले लिए, वह इनाम नहीं कहलाता?
__ प्रार्थना का महत्व, कर्म भुगतने में प्रश्नकर्ता : दादा, मैं प्रश्न ऐसा पूछ रहा था कि जो प्रारब्ध बन
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
कर्म का विज्ञान चुका है, कोई बीमार पड़नेवाला है या किसीका कुछ नुकसान होनेवाला है, तो प्रार्थना से उसे बदल सकते हैं क्या?
दादाश्री : ऐसा है न, प्रारब्ध के भाग हैं। प्रारब्ध के प्रकार होते हैं। एक प्रकार ऐसा होता है कि वह प्रार्थना करने से उड़ जाता है। दूसरा प्रकार ऐसा है कि आप साधारण पुरुषार्थ करो तो उड़ जाता है। और तीसरा प्रकार ऐसा है कि आप चाहे जितना पुरुषार्थ करो, पर भुगते बिना चारा नहीं होता। बहुत गाढ़ होता है। तो किसी व्यक्ति अपने कपड़ों पर थूका, उसे ऐसे धोने जाएँ और वह हल्का हो तो पानी डालने पर धुल जाता है। बहुत गाढ़ हो तो?
प्रश्नकर्ता : नहीं निकलता।
दादाश्री : उसी प्रकार जो कर्म गाढ़ होते हैं, उन्हें निकाचित कर्म कहा है।
प्रश्नकर्ता : पर कर्म बहुत गाढ़ हों तो प्रार्थना से भी कुछ फ़र्क नहीं पड़ता?
दादाश्री : कुछ फ़र्क नहीं पड़ता। पर प्रार्थना से उस घड़ी सुख लगता है।
प्रश्नकर्ता : भुगतने की शक्ति मिलती है?
दादाश्री : नहीं, यह आपको जो दुःख आया है न, दुःख में सुख का भाग लगता है, प्रार्थना के कारण। पर प्रार्थना रह सके, वह मुश्किल है। ये संयोग खराब हों, और मन जब बिगड़ा हुआ हो, उस घड़ी प्रार्थना रहनी मुश्किल है। उस घड़ी रहे तो बहुत उत्तम कहलाता है। तब दादा भगवान जैसे को याद करके बुलाओ कि जो खुद शरीर में नहीं रहते हैं, शरीर के मालिक नहीं हैं, उन्हें यदि याद करके बुलाएँगे तो वह रहेगा, नहीं तो नहीं रहेगा।
प्रश्नकर्ता : वर्ना उन संयोगों में प्रार्थना याद ही नहीं आएगी?
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
कर्म का विज्ञान
दादाश्री : याद ही नहीं आएगी। याद को ही उड़ा देती है, भान ही उड़ जाता है सारा।
देवी-देवताओं की मनौती का बंधन? प्रश्नकर्ता : किसी भी देवी-देवता की मनौती रखने से कर्म बंधन होता है क्या?
दादाश्री : मनौती रखने से कर्म बंधन अवश्य होता है। मनौती अर्थात् क्या कि उनके पास से हमने मेहरबानी माँगी। इसलिए वे मेहरबानी करते भी हैं, और आप उसका बदला देते हो, और उससे ही कर्म बँधते
प्रश्नकर्ता : संत पुरुष के सहवास से कर्म बंधन छूटते हैं क्या?
दादाश्री : कर्म बंधन कम हो जाते हैं और पुण्य के कर्म बँधते हैं, पर वे उसे नुकसान नहीं करते। पाप के बंधन नहीं बंधते।
जागृति, कर्मबंधन के सामने.... प्रश्नकर्ता : कर्म नहीं बँधे, उसका उपाय क्या है?
दादाश्री : यह कहा न, तुरन्त ही भगवान से कह देना यह, अरेरे! मैंने ऐसे-ऐसे खराब विचार किए। अब ये जो आए हैं वे तो, उनका हिसाब होगा तब तक रहेंगे, पर मुझे तो ऐसा हुआ कि 'ये अभी कहाँ से आए मुए!' यह मैंने हिसाब बाँधा। उसकी क्षमा माँगता हूँ, फिर से ऐसा नहीं करूँगा।
प्रश्नकर्ता : कोई खून करे और फिर भगवान से पछतावा करके ऐसा कहे, तो कर्म किस तरह छूटते हैं?
दादाश्री : हाँ, छूटते हैं। खून करके खुश हो तो खराब कर्म बँधते हैं, और खून करके ऐसा पछतावा करने से कर्म हल्के हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : कुछ भी करे, फिर भी कर्म तो बँधा ही न?
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
कर्म का विज्ञान दादाश्री : बँधकर छूटता भी है। खून हुआ न, वह कर्म छूटा है। उस समय बँधता कब है? मन में ऐसा हो कि यह खून करना ही चाहिए। तो वापिस नया बँध गया। यह कर्म पूरा छूटा या छूटते समय पछतावा करें न, तो छूट जाएगा। मारा, वह बहुत बड़ा नुकसान करता है। यह मारा, उससे अपकीर्ति होगी, शरीर में तरह-तरह के रोग उत्पन्न हो जाएँगे। भुगतने पड़ेंगे। यहीं के यहीं भुगतना है। नया गाढ़ कर्म नहीं बँधेगा। वह कर्मफल है, वह भुगतना है। मारा, वह कर्म के उदय से ही मारा, और मारा मतलब कर्मफल भोगना पड़ेगा, पर सच्चे दिल से पछतावा करे तो नये कर्म ढीले पड़ जाते हैं। मारने से नया कर्म कब बँधता है? कि 'मारना ही चाहिए', वह नया कर्म। राज़ी-खुशी से मारे तो गाढ़ कर्म बँधता है, और पछतावे सहित करे तो कर्म ढीले पड़ जाते हैं। उल्लास से बाँधे हुए कर्मों का पश्चाताप से नाश होता है।
एक गरीब आदमी को उसके बीवी-बच्चे परेशान करते हों कि आप मांस नहीं खिलाते। तब कहे, 'पैसे नहीं है, क्या खिलाऊँ?' तो कहे, 'हिरण मारकर लाओ।' तब चुपचाप जाकर हिरण मारकर ले आया और खिलाया। अब इसका उसे दोष लगा। और वैसा ही हिरण, एक राजा का बेटा था, वह शिकार करने गया। वह शिकार करके खुश हो गया। अब हिरण तो दोनों ने मारा। इसने यह अपने शौक के लिए मारा, जब कि वह गरीब आदमी खाने के लिए मारता है। अब जो खाता है, उसे उसका फल, वह मनुष्य में से जानवर बनता है, वह गरीब आदमी! और राजा का बेटा शौक के लिए करता है, खाता नहीं है। सामनेवाले को मार देता है। खुद के किसी भी लाभ के बिना। खुद को और कोई लाभ नहीं होता और बेकार शिकार करके मार डालता है। इसलिए उसका फल नर्कगति आता है। कर्म एक ही प्रकार का परन्तु भाव अलग-अलग। गरीब आदमी को तो उसके बच्चे परेशान करते हैं, इसलिए बेचारा, और यह तो शौक के लिए जीवों को मारता है। शिकार का शौक होता है न! फिर वहीं के वहीं हिरण पड़ा रहता है, राजा को कुछ लेना-देना नहीं होता। पर क्या कहता है फिर? देखो, एक्ज़ेक्ट निशाना लगाया और इस तरह गिरा दिया उसे। ये ट्रेफिक के लॉज़ हम नहीं समझें, तो फिर ट्रेफिक में मार ही डालेंगे न, आमने सामने! पर
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान वह तो आता है सभी को! 'यह' आए ऐसा नहीं है, इसलिए हमारे जैसे सिखानेवाले चाहिए।
फाँसी की सजा का जज को क्या बंधन? एक जज मुझे कहते हैं कि, 'साहब, आपने मुझे ज्ञान तो दे दिया और अब मुझे वहाँ कोर्ट में फाँसी की सजा करनी चाहिए या नहीं?' तब मैंने उन्हें कहा, 'उसका क्या करोगे, फाँसी की सजा नहीं दोगे तो?' उसने कहा, 'लेकिन दूंगा तो मुझे दोष लगेगा।'
फिर मैंने उसे तरीका बताया कि आपको यह कहना है कि, 'हे भगवान, मेरे हिस्से में यह काम कहाँ से आया?' और उसका दिल से प्रतिक्रमण करना। और दूसरा, गवर्मेन्ट के नियम के अनुसार काम करते जाना।
प्रश्नकर्ता : किसीको हम दुःख पहुँचाएँ और फिर हम प्रतिक्रमण कर लें, पर उसे भारी आघात-ठेस पहुँची हो तो उससे हमें कर्म नहीं बँधेगा?
दादाश्री : हम उसके नाम के प्रतिक्रमण करते रहें, और उसे जितनी मात्रा में दुःख हुआ हो, उतनी मात्रा में प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। हमें तो प्रतिक्रमण करते रहना है। दूसरी ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है।
हमेशा किसी भी कार्य का पछतावा करो, तो उस कार्य का फल रुपये में बारह आने तक नाश हो ही जाता है। (उस कार्य का फल पचहत्तर (७५) प्रतिशत खत्म हो जाता है।) फिर जली हुई डोरी होती है न, उसके जैसा फल आता है। वह जली हुई डोरी आनेवाले जन्म में बस ऐसे ही करें, तो उड़ जाएगी। कोई क्रिया यों ही बेकार तो जाती ही नहीं। प्रतिक्रमण करने से वह डोरी जल जाती है, पर डिज़ाइन वैसी की वैसी रहती है। अब आनेवाले जन्म में क्या करना पड़ेगा? इतना ही किया, झाड़ दिया कि उड़ गई।
जप-तप से कर्म बँधते हैं या खपते हैं? प्रश्नकर्ता : जप-तप में कर्म बँधते हैं या कर्म खपते हैं?
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
कर्म का विज्ञान दादाश्री : उसमें कर्म बँधते ही हैं न! हर एक बात में कर्म ही बँधते हैं। रात को सो जाएँ तो भी कर्म बँधते हैं, और ये जप-तप करते हैं उससे तो बड़े कर्म बँधते हैं। पर वे पुण्य के बँधते हैं। उससे अगले जन्म में भौतिक सुख मिलते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो कर्म खपाने के लिए धर्म की शक्ति कितनी?
दादाश्री : धर्म-अधर्म दोनों कर्म खपा देते हैं। सांसारिक बँधे हुए कर्मों को, विज्ञान हो तो तुरन्त ही कर्मों का नाश कर देता है। विज्ञान हो तो कर्मों का नाश हो जाता है। धर्म से पुण्यकर्म बँधते हैं, और अधर्म से पापकर्म बँधते हैं, और आत्मज्ञान से कर्मों का नाश हो जाता है, भस्मीभूत हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : धर्म और अधर्म, दोनों को खपाता हो तो उसे धर्म कैसे कह सकते हैं?
दादाश्री : धर्म से पुण्य के कर्म बँधते हैं और अधर्म से पाप के कर्म बँधते हैं। अभी धौल मारे तब क्या होगा? कोई धौल मारे तो क्या करोगे आप? उसे दो लगा दोगे न! डबल करके दोगे। नुकसान करवाए बिना देते हैं, डबल करके। वह आपके पाप का उदय आया, इसलिए उसे धौल मारने का मन हुआ। आपके कर्म का उदय आपको दूसरे के पास से धौल मरवाता है, मारनेवाला तो निमित्त बना। अब एक धौल दे, तो हमें कह देना है कि 'खत्म हुआ हिसाब अपना, मैं जमा कर लेता हूँ',
और जमा कर लो। पहले दी थी, वह वापिस दे गया। जमा कर देना है, नया उधार नहीं देना है। पसंद हो तो उधार देना। पसंद है क्या? नहीं? तो उसे नया उधार मत देना।
अपने पुण्य का उदयकर्म हो तो सामनेवाला अच्छा बोलता है और पाप का उदयकर्म हो तो सामनेवाला गालियाँ देता है। उसमें किसका दोष? इसलिए हम कहें कि उदयकर्म मेरा ही है और सामनेवाला तो निमित्त है। ऐसे करने से अपने दोष की निर्जरा (आत्मप्रदेश में से कर्मों का अलग होना) हो जाएगी। और नया नहीं बँधेगा।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान
७७
कर्म-अकर्म दशा की स्थिति प्रश्नकर्ता : कोई भी गलत काम करें तो कर्म तो बँधेगे ही, ऐसा मैं मानता हूँ।
दादाश्री : तो अच्छे कर्म का बंधन नहीं है? प्रश्नकर्ता : अच्छा और बुरा, दोनों से कर्म बँधते हैं न!
दादाश्री : अरे! इस समय भी आप कर्म बाँध रहे हो! इस समय आप बड़े पुण्य का कर्म बाँध रहे हो! परन्तु कर्म कभी भी नहीं बँधे, वैसा दिन नहीं आता है न? उसका क्या कारण होगा?
प्रश्नकर्ता : कोई प्रवृत्ति तो करते ही होंगे न, अच्छी या खराब?
दादाश्री : हाँ, पर कर्म नहीं बँधे, ऐसा रास्ता नहीं होगा? भगवान महावीर किस प्रकार से बिना कर्म बाँधे मुक्त हुए होंगे? यह देह हैं तो कर्म तो होते ही रहेंगे! संडास जाना पड़ता है, सबकुछ नहीं करना पड़ता?
प्रश्नकर्ता : हाँ, पर जो कर्म बाँधे हों, उनके फल वापिस भुगतने पड़ते हैं न!
दादाश्री : कर्म बाँधे तब तो वापिस अगला जन्म हुए बगैर रहेगा नहीं। यानी कि कर्म बाँधे, तो अगले जन्म में जाना पड़ेगा! परन्तु इस जन्म में महावीर को अगले जन्म में नहीं जाना पड़ा था, तो कोई रास्ता तो होगा न? कर्म करें फिर भी कर्म नहीं बँधे ऐसा?
प्रश्नकर्ता : होगा।
दादाश्री : आपको ऐसी इच्छा होती है कि कर्म नहीं बँधे? कर्म करते हुए भी कर्म नहीं बँधे ऐसा विज्ञान होता है। उस विज्ञान को जानो तो मुक्त हो जाओ।
____ बाधक है अज्ञानता, नहीं कर्म रे... प्रश्नकर्ता : हमारे कर्म के फल के कारण यह जन्म मिलता है न?
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
कर्म का विज्ञान दादाश्री : हाँ, इस पूरी ज़िन्दगी कर्म के फल भुगतने हैं ! और यदि राग-द्वेष करें तो उनमें से नये कर्म खड़े होते हैं। यदि राग-द्वेष न करें तो कुछ भी नहीं।
कर्म में हर्ज नहीं, कर्म तो, यह शरीर है इसलिए होंगे ही, पर रागद्वेष करें, उसमें हर्ज है। वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग बनो।
इस दुनिया में कोई भी काम करते हो, उसमें काम की क़ीमत नहीं है, पर उसके पीछे राग-द्वेष हों, तभी अगले जन्म का हिसाब बँधता है। राग-द्वेष नहीं होते हों, तो ज़िम्मेदारी नहीं है।
पूरी देह, जन्म से लेकर मृत्यु तक अनिवार्य है। उनमें से राग-द्वेष जो होते हैं, उतना ही हिसाब बँधता है।
इसलिए वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग होकर मोक्ष में चले जाओ।
हमें तो कोई गालियाँ दे तो हम समझते हैं कि यह अंबालाल पटेल को गालियाँ दे रहा है, पुद्गल को गालियाँ दे रहा है। आत्मा को तो वह जान ही नहीं सकता, पहचान ही नहीं सकता न, इसलिए 'हम' स्वीकार नहीं करते। हमें' स्पर्श ही नहीं करता, हम वीतराग रहते हैं। हमें उस पर राग-द्वेष नहीं होता। इसलिए फिर एक अवतारी या दो अवतारी होकर सब खतम हो जाएगा।
वीतराग इतना ही कहना चाहते हैं कि कर्म बाधक नहीं हैं, तेरी अज्ञानता बाधक है! अज्ञानता किसकी? 'मैं कौन हूँ' उसकी। देह है तब तक कर्म तो होते ही रहेंगे, पर अज्ञान जाए तो कर्म बँधने बंद हो जाएँ!
कर्म की निर्जरा कब होती है? प्रश्नकर्ता : कर्म होने कब रुकते हैं?
दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका अनुभव होना चाहिए। यानी तू शुद्धात्मा हो जाए, उसके बाद कर्मबंध रुकेगा। कर्म की निर्जरा होती रहेगी
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म का विज्ञान और कर्म होने रुक जाएँगे! ___ कर्म नहीं बँधे, उसका रास्ता क्या है? स्वभाव-भाव में आ जाना, वह। 'ज्ञानी पुरुष' खुद के स्वरूप का भान करवाते हैं, फिर कर्म नहीं बँधते। फिर नये कर्म चार्ज नहीं होते। पुराने कर्म डिस्चार्ज होते रहते हैं और सभी कर्म पूरे हो जाए, तब अंत में मोक्ष हो जाता है!
यह कर्म की बात आपको समझ में आई इसमें! यदि कर्ता बने तो कर्म बँधते हैं। अब कर्त्तापन छूट जाए, तब फिर कर्म नहीं बाँधेगा। यानी आप आज कर्म बाँध रहे हो, पर जब मैं आपका कर्त्तापन छुड़वा दूंगा, तब आपको कर्म नहीं बँधेगे और जो पुराने हैं वे भुगत लेना। यानी पुराना हिसाब चुक जाएगा और कॉज़ खड़े नहीं होंगे। सिर्फ 'इफेक्ट' ही रहेंगी और फिर इफेक्ट भी पूरी भोग ली गईं कि संपूर्ण मोक्ष हो गया!
- जय सच्चिदानंद
ऊपरी अणहक्क
उकरडा
मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द : बॉस, वरिष्ठ मालिक : बिना हक़ का : कूड़ा-करकट फेंकने का स्थान : बाहर से आनेवाले दुःख : आत्मप्रदेश में से कर्मों का अलग होना : पाश, बंधन
उपाधि निर्जरा
वळगणा
पोल
: घोटाला, ग़फलत, अंधेर
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राप्तिस्थान
दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सिटी, अहमदाबाद-कलोल हाईवे,
पोस्ट : अडालज, जिला : गांधीनगर, गुजरात - 382421
फोन : (०७९) ३९८३०१००, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, ५, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे,
उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : 079-27540408 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाईवे, तरघड़िया चोकड़ी,
पोस्ट : मालियासण, जिला : राजकोट. फोन : 9274111393 भुज : त्रिमंदिर, हिल गार्डन के पीछे, सहयोगनगर के पास, एयरपोर्ट
रोड, भुज (कच्छ), गुजरात. संपर्क : 02832-290123 मुंबई : 9323528901 दिल्ही : 9310022350 कोलकता : 033-32933885 चेन्नई : 9380159957 जयपुर : 9351408285
भोपाल : 9425024405 इन्दोर : 9893545351
जबलपुर : 9425160428 रायपुर : 9425245616 भिलाई : 9827481336 पटना : 9431015601 अमरावती : 9823127601 बेंगलूर : 9590979099
हैदराबाद : 9989877786 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin,
100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel:785-271-0869, E-mail: bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882
Tel. : 951-734-4715, E-mail:shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Rd., (Above Kingsbury Print.),
Kingsbury, London, NW9 0BH, Tel. : +447956476253,
E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock,
Toronto, M9W6B7. Tel. : 416 675 3543
E-mail:ashadinsha@yahoo.ca Dubai : +971506754832 Singapore : +65 81129229 Australia : +61421127947 New Zealand : +64 96237423
Website : www.dadabhagwan.org
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________ कर्ताभाव से कर्मबंधन ! कर्म कैसे बंधते हैं? मैं कर रहा हूँ' यह कर्त्ताभाव है। करता है कोई और, और आरोपण करता है कि मैंने किया। इस कर्त्ताभाव से कर्म बंधते हैं। अब कर्ता कौन है' यह जानना पड़ेगा, ताकि फिर कर्म नहीं बंधे और मुक्ति हो जाए! - दादाश्री