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हों, तब तो बीज में से वृक्ष बनता है और फल चखने को मिलता है। इसलिए ये जो फल आते हैं, उनमें दूसरे निमित्तों के बिना फल किस तरह आएगा? अपमान खाने का बीज हमने ही बोया है, उसीका फल आता है, अपमान मिले उसके लिए दूसरे निमित्त मिलने ही चाहिए। अब उन निमित्तों को दोषी देखकर कषाय करके मुनष्य अज्ञानता से नये कर्म बाँधता है और ज्ञान हाज़िर रहे कि सामनेवाला निमित्त ही है, निर्दोष है और यह अपमान मिल रहा है वह मेरे ही कर्म का फल है, तो नया कर्म नहीं बँधेगा और उतना ही मुक्त रहा जा सकेगा। और सामनेवाला दोषित दिख जाए तो तुरन्त ही उसे निर्दोष देखें, और दोषी देखा उसके लिए प्रतिक्रमण शूट एट साइट कर दें, जिससे बीज भुन जाए और उगे ही नहीं।
अन्य सभी निमित्त इकट्ठे होकर खुद के डाले हुए बीज का फल आना और खुद को भुगतना पड़े, वह पूरा प्रोसेस ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं और उसे ही दादाश्री ने कहा है कि 'व्यवस्थित शक्ति' फल देती है।
_ 'ज्ञानी पुरुष' परम पूज्य श्री दादा भगवान ने खुद के ज्ञान में अवलोकन करके दुनिया को 'कर्म का विज्ञान' दिया है, जो दादाश्री की वाणी में यहाँ संक्षिप्त में पुस्तक के रूप में रखा गया है, जो पाठक को जीवन में उलझानेवाली पहलियों के सामने समाधानकारी हल देगा!
___- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद