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कर्म का विज्ञान ही नहीं है। नहीं तो अक्कलवाले लोग ही लाभ उठा लेते, ऐसा करके। क्योंकि सौ पुण्य करे और दस पाप करे, उन दस को कम करके मेरे नब्बे बचे हैं, जमा कर लेना, कहेंगे। तब अक्कलवालों को तो मज़ा आ जाएगा सबको। ये तो कहते है, यह पुण्य भोग और फिर बाद में दस पाप भुगत।
प्रश्नकर्ता : दादा, हमसे बिना अहंकार से कोई सत्कार्य हो अथवा किसी संस्था या होस्पिटल आदि को पैसे दें तो अपने कर्म के अनुसार जो भोगना होता है, वह कम हो जाता है, यह सच्ची बात है?
दादाश्री : नहीं, कम नहीं होता। कम-ज्यादा नहीं होता। उससे दूसरे कर्म बँधते हैं। दूसरे पुण्य के कर्म बँधते हैं। परन्तु वह हम किसीको मुक्का मार आएँ, उसका फल तो भुगतना पड़ेगा। नहीं तो ये सारे व्यापारी लोग माइनस करके फिर सिर्फ फायदा ही रखते। यह ऐसा नहीं है। नियम बहुत सुंदर है। एक मुक्का मारा हो, उसका फल आएगा। सौ पुण्य में से दो माइनस नहीं होंगे। दो पाप भी हैं और सौ पुण्य भी हैं। दोनों अलग-अलग भोगने हैं।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह शुभकर्म करें और अशुभ कर्म करें, दोनों का फल अलग-अलग मिलता है?
दादाश्री : अशुभवाला अशुभ फल देता ही है। शुभ का शुभ देता है। कुछ भी कम-ज्यादा नहीं होता। भगवान के वहाँ नियम कैसा है? कि आपने आज शुभ कर्म किया यानी सौ रुपये दान में दिए, तो सौ रुपये जमा करते हैं और पाँच रुपये किसीको गाली देकर उधार चढ़ाया, तो आपके खाते में उधार लिख देते हैं। वे पँचानवे जमा नहीं करते। वे पाँच उधार भी करते हैं और सौ जमा भी करते हैं। बहुत पक्के हैं। वर्ना इन व्यापारी लोगों को फिर से दुःख ही नहीं पड़ते। ऐसा हो तो जमा-उधार करके उनका जमा ही रहे, और तब फिर कोई मोक्ष में जाए ही नहीं। यहाँ पर पूरा दिन सिर्फ पुण्य ही होता। फिर कौन जाए मोक्ष में? यह नियम ही ऐसा है कि सौ जमा करते हैं और पाँच उधार भी करते हैं। बाकी