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कर्म का विज्ञान तो फिर इज़्जत चली जाएगी, उसके लिए यह वापिस खिचड़ी-कढ़ी नहीं परोसता, दूसरा हलवा आदि परोसता है। पर अंदर मन में फिर गालियाँ देता है। अभी कहाँ से मुए! वह उसका कर्म। यानी ऐसा नहीं होना चाहिए।
इसीलिए मत बिगाड़ो भाव कभी प्रश्नकर्ता : पुण्यकर्म और पापकर्म किस तरह बँधते हैं?
दादाश्री : दूसरों को सुख देने का भाव किया, उससे पुण्य बँधता है और दूसरों को दुःख देने का भाव किया, उससे पाप बँधता है। मात्र भाव से ही कर्म बँधते हैं, क्रिया से नहीं। क्रिया में वैसा हो या नहीं भी हो, परन्तु भाव में जैसा हो वैसा कर्म बँधता है। इसलिए भाव को बिगाड़ना मत।
कोई भी कार्य स्वार्थ भाव से करें तब पाप कर्म बँधता है और नि:स्वार्थ भाव से करें तब पुण्यकर्म बँधता है। परन्तु दोनों ही कर्म हैं न! जो पुण्यकर्म का फल है, वह सोने की बेड़ी, और पाप कर्म का फल, लोहे की बेड़ी। पर दोनों बेड़ियाँ ही हैं न?
स्थूल कर्म : सूक्ष्म कर्म एक सेठ ने पचास हज़ार रुपये दान में दिए। तो उसके मित्र ने उनसे पूछा, 'इतने सारे रुपये दे दिए?' तब सेठ बोले, 'मैं तो एक पैसा भी हूँ, वैसा नहीं हूँ। ये तो इस मेयर के दबाव के कारण देने पड़े।' अब इसका फल वहाँ क्या मिलेगा? पचास हज़ार का दान दिया, वह स्थूल कर्म, उसका फल यहीं का यहीं सेठ को मिल जाता है। लोग 'वाह-वाह' करते हैं। कीर्तिगान करते हैं और सेठ ने भीतर सूक्ष्म कर्म में क्या चार्ज किया? तब कहें, ‘एक पैसा भी , वैसा नहीं हूँ।' उसका फल आनेवाले जन्म में मिलेगा। तब अगले जन्म में सेठ एक पैसा भी दान में नहीं दे सकेगा। अब इतनी सूक्ष्म बात किसे समझ में आए?
वहीं पर दूसरा कोई गरीब हो, उसके पास भी वे ही लोग गए हों दान लेने, तब वह गरीब आदमी क्या कहता है कि, 'मेरे पास तो अभी