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कर्म का विज्ञान दादाश्री : बँधकर छूटता भी है। खून हुआ न, वह कर्म छूटा है। उस समय बँधता कब है? मन में ऐसा हो कि यह खून करना ही चाहिए। तो वापिस नया बँध गया। यह कर्म पूरा छूटा या छूटते समय पछतावा करें न, तो छूट जाएगा। मारा, वह बहुत बड़ा नुकसान करता है। यह मारा, उससे अपकीर्ति होगी, शरीर में तरह-तरह के रोग उत्पन्न हो जाएँगे। भुगतने पड़ेंगे। यहीं के यहीं भुगतना है। नया गाढ़ कर्म नहीं बँधेगा। वह कर्मफल है, वह भुगतना है। मारा, वह कर्म के उदय से ही मारा, और मारा मतलब कर्मफल भोगना पड़ेगा, पर सच्चे दिल से पछतावा करे तो नये कर्म ढीले पड़ जाते हैं। मारने से नया कर्म कब बँधता है? कि 'मारना ही चाहिए', वह नया कर्म। राज़ी-खुशी से मारे तो गाढ़ कर्म बँधता है, और पछतावे सहित करे तो कर्म ढीले पड़ जाते हैं। उल्लास से बाँधे हुए कर्मों का पश्चाताप से नाश होता है।
एक गरीब आदमी को उसके बीवी-बच्चे परेशान करते हों कि आप मांस नहीं खिलाते। तब कहे, 'पैसे नहीं है, क्या खिलाऊँ?' तो कहे, 'हिरण मारकर लाओ।' तब चुपचाप जाकर हिरण मारकर ले आया और खिलाया। अब इसका उसे दोष लगा। और वैसा ही हिरण, एक राजा का बेटा था, वह शिकार करने गया। वह शिकार करके खुश हो गया। अब हिरण तो दोनों ने मारा। इसने यह अपने शौक के लिए मारा, जब कि वह गरीब आदमी खाने के लिए मारता है। अब जो खाता है, उसे उसका फल, वह मनुष्य में से जानवर बनता है, वह गरीब आदमी! और राजा का बेटा शौक के लिए करता है, खाता नहीं है। सामनेवाले को मार देता है। खुद के किसी भी लाभ के बिना। खुद को और कोई लाभ नहीं होता और बेकार शिकार करके मार डालता है। इसलिए उसका फल नर्कगति आता है। कर्म एक ही प्रकार का परन्तु भाव अलग-अलग। गरीब आदमी को तो उसके बच्चे परेशान करते हैं, इसलिए बेचारा, और यह तो शौक के लिए जीवों को मारता है। शिकार का शौक होता है न! फिर वहीं के वहीं हिरण पड़ा रहता है, राजा को कुछ लेना-देना नहीं होता। पर क्या कहता है फिर? देखो, एक्ज़ेक्ट निशाना लगाया और इस तरह गिरा दिया उसे। ये ट्रेफिक के लॉज़ हम नहीं समझें, तो फिर ट्रेफिक में मार ही डालेंगे न, आमने सामने! पर