________________
७६
कर्म का विज्ञान दादाश्री : उसमें कर्म बँधते ही हैं न! हर एक बात में कर्म ही बँधते हैं। रात को सो जाएँ तो भी कर्म बँधते हैं, और ये जप-तप करते हैं उससे तो बड़े कर्म बँधते हैं। पर वे पुण्य के बँधते हैं। उससे अगले जन्म में भौतिक सुख मिलते हैं।
प्रश्नकर्ता : तो कर्म खपाने के लिए धर्म की शक्ति कितनी?
दादाश्री : धर्म-अधर्म दोनों कर्म खपा देते हैं। सांसारिक बँधे हुए कर्मों को, विज्ञान हो तो तुरन्त ही कर्मों का नाश कर देता है। विज्ञान हो तो कर्मों का नाश हो जाता है। धर्म से पुण्यकर्म बँधते हैं, और अधर्म से पापकर्म बँधते हैं, और आत्मज्ञान से कर्मों का नाश हो जाता है, भस्मीभूत हो जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : धर्म और अधर्म, दोनों को खपाता हो तो उसे धर्म कैसे कह सकते हैं?
दादाश्री : धर्म से पुण्य के कर्म बँधते हैं और अधर्म से पाप के कर्म बँधते हैं। अभी धौल मारे तब क्या होगा? कोई धौल मारे तो क्या करोगे आप? उसे दो लगा दोगे न! डबल करके दोगे। नुकसान करवाए बिना देते हैं, डबल करके। वह आपके पाप का उदय आया, इसलिए उसे धौल मारने का मन हुआ। आपके कर्म का उदय आपको दूसरे के पास से धौल मरवाता है, मारनेवाला तो निमित्त बना। अब एक धौल दे, तो हमें कह देना है कि 'खत्म हुआ हिसाब अपना, मैं जमा कर लेता हूँ',
और जमा कर लो। पहले दी थी, वह वापिस दे गया। जमा कर देना है, नया उधार नहीं देना है। पसंद हो तो उधार देना। पसंद है क्या? नहीं? तो उसे नया उधार मत देना।
अपने पुण्य का उदयकर्म हो तो सामनेवाला अच्छा बोलता है और पाप का उदयकर्म हो तो सामनेवाला गालियाँ देता है। उसमें किसका दोष? इसलिए हम कहें कि उदयकर्म मेरा ही है और सामनेवाला तो निमित्त है। ऐसे करने से अपने दोष की निर्जरा (आत्मप्रदेश में से कर्मों का अलग होना) हो जाएगी। और नया नहीं बँधेगा।