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कर्म का विज्ञान दादाश्री : हाँ, इस पूरी ज़िन्दगी कर्म के फल भुगतने हैं ! और यदि राग-द्वेष करें तो उनमें से नये कर्म खड़े होते हैं। यदि राग-द्वेष न करें तो कुछ भी नहीं।
कर्म में हर्ज नहीं, कर्म तो, यह शरीर है इसलिए होंगे ही, पर रागद्वेष करें, उसमें हर्ज है। वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग बनो।
इस दुनिया में कोई भी काम करते हो, उसमें काम की क़ीमत नहीं है, पर उसके पीछे राग-द्वेष हों, तभी अगले जन्म का हिसाब बँधता है। राग-द्वेष नहीं होते हों, तो ज़िम्मेदारी नहीं है।
पूरी देह, जन्म से लेकर मृत्यु तक अनिवार्य है। उनमें से राग-द्वेष जो होते हैं, उतना ही हिसाब बँधता है।
इसलिए वीतराग क्या कहते हैं कि वीतराग होकर मोक्ष में चले जाओ।
हमें तो कोई गालियाँ दे तो हम समझते हैं कि यह अंबालाल पटेल को गालियाँ दे रहा है, पुद्गल को गालियाँ दे रहा है। आत्मा को तो वह जान ही नहीं सकता, पहचान ही नहीं सकता न, इसलिए 'हम' स्वीकार नहीं करते। हमें' स्पर्श ही नहीं करता, हम वीतराग रहते हैं। हमें उस पर राग-द्वेष नहीं होता। इसलिए फिर एक अवतारी या दो अवतारी होकर सब खतम हो जाएगा।
वीतराग इतना ही कहना चाहते हैं कि कर्म बाधक नहीं हैं, तेरी अज्ञानता बाधक है! अज्ञानता किसकी? 'मैं कौन हूँ' उसकी। देह है तब तक कर्म तो होते ही रहेंगे, पर अज्ञान जाए तो कर्म बँधने बंद हो जाएँ!
कर्म की निर्जरा कब होती है? प्रश्नकर्ता : कर्म होने कब रुकते हैं?
दादाश्री : 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका अनुभव होना चाहिए। यानी तू शुद्धात्मा हो जाए, उसके बाद कर्मबंध रुकेगा। कर्म की निर्जरा होती रहेगी